Palash Biswas : कोबरा पोस्ट के स्टिंग आपरेशन के ब्यौरे पढ़ते हुए हैरत से ज्यादा शर्म का अहसास हो रहा है। हमने इसी पत्रकारिता में पूरी जिंदगी खपा दी। भारतीय पत्राकरिता की गौरवशाली परंपरा में जुड़ने के लिए मैंने कभी आगे पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस माध्यम का उपयोग आम जनता के हकहकूक की आवाज उठाने के लिए भरसक कोशिश की। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में मीडिया और पत्रकारिता में क्रमशः हाशिये पर जाने के बावजूद हमने सामाजिक सांस्कृतिक सक्रियता बढ़ाते हुए वैकल्पिक मीडिया तैयार करने की कोशिश की है।
एकाध अखबार को छोड़कर सारे के सारे अखबार कारपोरेट हिंदुत्व के शिकंजे में है, यह साबित करने के लिए शायद किसी स्टिंग आपरेशन की जरूरत नहीं थी। मुनाफे की इस पत्रकारिता में मिशन तो क्या ईमानदारी भी बची नहीं है। हम यह देखते देखते रिटायर हुए कि संपादक और पत्रकार बाजार के एजंट में तब्दील होते जा रहे हैं और जनता के विरुद्ध नरसंहारी अस्वमेध अभियान के वे सिपाहसालार भी बनते जा रहे हैं। सच को सामने लाने के बजाय सच छुपाना और झूठ फैलाना ही आज की पत्रकारिता बन गयी है।
हम जैसे लोगों के लिए अब मुंह छुपाना मुश्किल है क्योंकि आम जनता में पत्रकारिता की कोई साख नहीं बची है और राजनीति जिस तरह भ्रष्ट हुई है, उससे कहीं बहुत तेजी से पत्रकारिता भ्रष्ट हो गयी है और पत्रकारों की कोई सामाजिक हैसियत बची नहीं है।
जिन्हें न मनुष्यता और न समाज, न संस्कृति से कुछ लेना देना है, उनकी फाइव स्टार दुनिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कस्बों और छोटे शहरों के आम पत्रकार भी इस गोरखधंधे में माहिर होना अपनी कामयाबी मानने लगे हैं और बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं।ऐसे में हमारी हैसियत यक ब यक दो कौड़ी की हो गयी है। यूरोप अमेरिका और तीसरी दुनिया में भी पत्रकारिता हमेशा आम जनता के पक्ष में रही है। भारत में भी इस जनपक्षधरता की गौरवशाली परंपरा रही है।
हम इस परंपरा के वारिश होने की खुशफहमी में जी रहे थे। पिछले करीब बीस साल से साहित्य की किसी विधा में लिखना बंद कर दिया था क्योंकि हमसे बेहतर लिखने वाले लाखों लोग हैं। आम जनता की बुनियादी समस्याओं पर लिखना जरुरी लग रहा था और हम अपनी क्षमता के मुताबिक शुरू से ऐसा ही कर रहे थे।
पेशेवर पत्रकारिता में इसकी गुंजाइश जितनी कम होती गयी, पत्रकारिता के लिए मैं उतना ही अवांछित और अस्पृश्य हो होता गया। फिर भी मुझे इसका अफसोस नहीं है। दिनेशपुर के एक शरणार्थी गांव में जन्मे एक किसान परिवार के बेटे के लिए यह बहुत गर्व की बात रही है कि देशभर में हर कहीं पहचान के साथ साथ प्यार भी मिला है इस पत्रकारिता की वजह से। विदेश कभी नहीं गया, लेकिन बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका से लेकर चीन, क्यूबा, म्यांमार जैसे देशों, यूरोप और अमेरिका, लातिन अमेरिका और अफ्रीका में भी मेरे पाठक रहे हैं।
चालीस साल देशभर में भटकने के बाद गांव में बुढापे में लौटने के बाद अपनी इज्जत और हैसियत खो देने का सदमा झेलना मुश्किल होगा। बदलाव के सपने को ज्यादा झटका लगा है। माध्यमों और विधाओं की इस जनविरोधी भूमिका के चलते अब शायद कुछ भी बदलने के हालात नहीं है।
मुख्य धारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा विज्ञापनदाताओं और सरकार की गोद में जा बैठा है
Devpriya Awasthi : कोबरा पोस्ट के खुलासे से प्रेस की स्वतंत्रता में यकीन करनेवाले लोग कितनी भी उछलकूद क्यों न कर लें, जमीनी धरातल पर कोई बदलाव शायद ही आए। कारण, 1990 के दशक में उदारीकरण की नीतियां लागू होने के साथ ही मीडिया की परिभाषा और भूमिका बदल गई थी। रातोंरात मुख्य धारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा विशुद्ध रूप से विज्ञापन उद्योग में तब्दील हो गया और स्पेस और टाइम स्लाट बेचना उसका मुख्य मकसद बन गया।
इसी का परिणाम है कि मुख्य धारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा पाठक और आमजन के दुख दर्द से मुंह फेरकर विज्ञापनदाताओं तथा सरकार की गोद में जा बैठा। विज्ञापन और पेड न्यूज के घालमेल के चलते समाचार और विचार या कहें कि पूरी संपादकीय सामग्री महज पैकेजिंग मैटिरियल बनकर रह गई और पूरा संपादकीय विभाग एडिटोरियल की जगह कंटेंटोरियल बन गया।
कंटेंट जनरेशन, कंटेंट प्लानिंग, कंटेंट राइटिंग और कंटेंट एडिटिंग जैसे नए शब्दों ने पूरे मीडिया को अपने आगोश में ले लिया। मौजूदा दौर में कंटेंट मैनेजमेंट ही मीडिया है और इसकी नकेल विज्ञापन विभाग के हाथ में रहती है।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग आपरेटर किसी मीडिया संस्थान के लोगों से रुपयों की थैली के प्रस्ताव के साथ मनमाफिक कंटेंट छापने का आग्रह अनुग्रह करेंगे तो वही रेस्पांस मिलेगा जो अभी मिला है। फिर भी, कोबरा पोस्ट के साहसिक स्टिंग को दाद देनी होगी कि उसने मीडिया के एक बड़े हिस्से की करतूतों का भांडा फोड़ा है और उसे आईना भी दिखाया है।
वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास और देवप्रिय अवस्थी की एफबी वॉल से.
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