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सियासत

एक साथ 5 भारत रत्न बांटना राजनीतिक चकमेबाजी के अलावा कुछ नहीं है!

कृष्ण पाल सिंह-

पुरस्कार भी राजनीतिक हितसाधन के हथियार होते हैं। नोबल पुरस्कार को वैश्विक पैमाने पर अत्यंत प्रतिष्ठापूर्ण माना जाता है। लेकिन उसके जरिये पश्चिमी औपनिवेशिक दुनिया ने कितनी बार अपने मकसद साधे यह किसी से छुपा नहीं है।

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सोवियत संघ के जनवाद को भेदने के लिए वहां के लेखक सोलोजेनित्सिन को नोबल पुरस्कार दिया गया था ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे तथाकथित व्यक्तिगत अधिकारों की वकालत को प्रभावशाली बनाया जा सके। इस इरादे से नोबल पुरस्कार को मोहरा बनाये जाने के उपक्रम को तात्कालिक सफलता तो नहीं मिल पायी लेकिन यह बीजारोपण आगे चलकर गोर्बाचोफ के रूप में इतने बड़े वटवृक्ष के रूप में फलित हुआ कि सोवियत व्यवस्था की चूलें हिल गई।

विश्व शांति के नोबल पुरस्कार के लिए महात्मा गांधी से अधिक उपयुक्त नाम कोई नहीं हो सकता था लेकिन उन्हें यह पुरस्कार इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वे उपनिवेशवाद के लिए खतरा पैदा करने वाली शख्सियत के बतौर स्थापित हो चुके थे। देश में मोदी सरकार ने गांधी शांति पुरस्कार के लिए गीता प्रेस गोरखपुर का नाम चयनित करा दिया गया जबकि गीता प्रेस गोरखपुर और गांधी जी के बीच अंतिम समय में इतनी तल्खी संबंधों में हो चुकी थी कि गीता प्रेस की लोकप्रिय पत्रिका कल्याण में गांधी जी की हत्या की सूचना तक प्रकाशित नहीं की गई थी शोक संवेदना छापना तो दूर की बात थी।

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भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक अलंकरण है। इसे प्रदान करने में मोदी सरकार ने पहले के वर्षों में अत्यंत कृपणता बरती लेकिन चुनावी वर्ष में वह दोनों हाथों से लुटाने के अंदाज में भारत रत्न बांटने में लगी है। उसने कुछ ही दिनों पहले यह पुरस्कार बिहार के दिवंगत मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के नाम घोषित किया। इसके बाद भाजपा के शीर्ष संस्थापकों में से एक लालकृष्ण आडवानी को इसे देने की घोषणा की ताकि प्रधानमंत्री मोदी पर से एहसान फरामोश होने का कलंक मिटाया जा सके। इसके बाद एक साथ तीन नामों को मरणोपरांत भारत रत्न का अधिकारी बनाने का फैसला घोषित कर दिया जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहाराव और हरित क्रांति के प्रणेता एमएस स्वामी नाथन शामिल हैं।

भारत रत्न एक वर्ष विशेष में तीन से अधिक महापुरूषों को नहीं दिया जा सकता जबकि इस पुरस्कार के लिए वर्तमान अकेले एक वर्ष में पांच नाम घोषित किये जा चुके हैं। इसके कारण वैधानिक रूकावट के चक्रव्यूह से पार पाने के लिए सरकार यह कह रही है कि पिछले जिन वर्षो में किसी को भारत रत्न नहीं दिया गया था उनके बैकलाग को जोड़कर पांच ही नहीं और ज्यादा नामों को यह सम्मान देने मे सरकार सक्षम है। निश्चित रूप से यह दलील चकमेबाजी के अलावा कुछ नहीं है।

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इन नामों को सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजने के पीछे जो राजनीतिक प्रयोजन हैं वे किसी की आंख से ओझल नहीं हो सकते। चौधरी चरण सिंह के नाम को इसलिए मोहरा बनाया गया ताकि इंडिया गठबंधन से जयंत चैधरी को तोड़कर एनडीए में लाया जा सके। नरसिंहाराव ने अपने दक्षिणपंथी रूख के कारण आर्थिक नीतियों की समाजवादी दिशा के साथ विश्वासघात किया था। इसके बाद राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रति अपने साफ्ट कार्नर के कारण उन्होंने बावरी मस्जिद बचाने में उदासीनता बरती जिससे कांग्रेस को देश भर में बड़ा नुकसान झेलना पड़ा और वह 1996 के चुनाव में बेहद पीछे हो गये। इसीलिए सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की बागडोर संभाली तो उन्हें नरसिंहाराव को लेकर काफी आपत्ति थी और इस नाराजगी का परिचय उन्होंने नरसिंहाराव की उपेक्षा करके दिया।

अब इसी को भुनाने के लिए मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से नवाजने का फैसला किया है। किसानों के प्रति इस सरकार की नीतियां जिस तरह से घातक साबित हो रहीं हैं उनके परिप्रेक्ष्य में किसानों के विरोध को हल्का करने के लिए एमएस स्वामीनाथन को भारत रत्न दिया गया है जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग मोदी सरकार को स्वीकार्य नहीं है।

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इतिहास की गति विचित्र है। इसका उदाहरण भी मोदी सरकार के फेंसलों में देखने में आ रहा है। भाजपा को नियंत्रित करने वाली वर्गसत्ता सामाजिक न्याय के हमेशा से विरोध में रही। इसलिए पहली बार जब अपने दम पर बहुमत हासिल करके मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आयी तो इस वर्ग का दबाव उस पर आरक्षण की व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने के लिए था। यहां तक कि संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने भी बिहार विधानसभा के उस समय के चुनाव में आरक्षण की समीक्षा का बयान देकर इस मंतव्य की पूर्ति का प्रयास किया था जिससे जनमत भाजपा के खिलाफ चला गया था। आज भी भाजपा वर्ण व्यवस्था के पुनरूत्थान के इरादे से पीछे नहीं हटी है।

लेकिन विरोधाभास यह है कि जहां मोदी सरकार ने आरक्षण व्यवस्था के बड़े पुरोधा कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न घोषित किया वहीं उसने लालकृष्ण आडवानी को भी भारत रत्न दे डाला जिन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के फेसले के कारण रथ यात्रा निकालकर मंडल को कमंडल से शह देने का काम किया था। चौधरी चरण सिंह को ही मंडल आयोग के गठन का श्रेय है। उन्हें भी भारत रत्न दिया गया है। सवाल यह है कि यह सरकार मंडल के पक्ष में है या कमंडल के पक्ष में।

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जो भी हो लेकिन राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के लिए हुंकार के अभियान से मोदी सरकार बेहद दबाव में है। उसके सामने ऐसी बाध्यतायें पैदा हो रही हैं जिससे वह न चाहते हुए भी सामाजिक न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति का संवाहक बनती जा रही है। दूसरी ओर परंपरावादी अनुदार तबका इस हौचपोच में भ्रमित होकर बेबस हो गया है। राजनीतिक स्तर पर सवर्ण वर्चस्व में लगातार गिरावट को झेलना उसकी नियति बन गया है। कांग्रेस के समय अधिकांश राज्यों में मुख्यमंत्री ब्राहण होते थे लेकिन आज भाजपा ने केवल राजस्थान में एक मुख्यमंत्री ब्राह्मण बनाया है वे भजन लाल शर्मा भी कितने प्रभावी हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं। कृपा पात्र होने के अलावा उनकी कोई पहचान नहीं है।

एक समय जब दलितों के लिए राजनीतिक आरक्षण लागू किया गया था तो कोटे की पूर्ति के लिए दलित नेता समायोजित किये जाते थे। क्या आज भजन लाल शर्मा के उदाहरण से यह बात सामने नहीं आ रही है कि सवर्ण समाज के सबसे बड़े नेतृत्व वर्ग यानी ब्राह्मण की दशा भी वैसी ही दयनीय बना दी गई है। अगर प्रगतिवाद के सिद्धांत पर यकीन किया जाये तो इतिहास की अग्रसरता न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुशीलन के लिए बाध्य है।

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