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सुख-दुख

चार जजों ने जो चिट्ठी मुख्य न्यायाधीश को लिखी है, उसका हिंदी अनुवाद पढ़िए

प्रिय मुख्य न्यायाधीश जी,

बड़ी नाराज़गी और दुख के साथ हमने सोचा कि यह चिठ्ठी आपके नाम लिखी जाए ताकि इस अदालत से जारी किए गए कुछ आदेशों को चिंहित किया जा सके, जिन्होंने न्याय देने की पूरी कार्यप्रणाली और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के काम करने के तौर-तरीक़ों को बुरी तरह प्रभावित करके रख दिया है।

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प्रिय मुख्य न्यायाधीश जी,

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बड़ी नाराज़गी और दुख के साथ हमने सोचा कि यह चिठ्ठी आपके नाम लिखी जाए ताकि इस अदालत से जारी किए गए कुछ आदेशों को चिंहित किया जा सके, जिन्होंने न्याय देने की पूरी कार्यप्रणाली और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के काम करने के तौर-तरीक़ों को बुरी तरह प्रभावित करके रख दिया है।

जब से कलकत्ता, मुंबई और मद्रास में तीन उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई उसी समय से ही न्यायिक प्रशासन में कुछ मान्यताएं और परंपराएं भी स्थापित हुई हैं। इन उच्च न्यायालयों की स्थापना के लगभग सौ साल बाद सुप्रीम कोर्ट अस्तित्व में आया था। ये वो परम्पराएं हैं, जिनकी जड़ें अंग्रेजी न्यायतंत्र में थी।

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स्थापित सिद्धांतों में एक सिद्धांत यह भी है कि रोस्टर का फैसला करने का विशेषाधिकार प्रधान न्यायधीश के पास है, जिससे कि यह व्यवस्था निर्वाध बनी रहे कि सर्वोच्च न्यायालय का कौन सदस्य और कौन सी पीठ और किस मामले का सुनवाई करेगी। यह परंपरा इसलिए भी बनाई गई है ताकि अदालत का कामकाज अनुशासित और सुचारू तरीके से चलता रहे। यह परंपरा प्रधान न्यायधीश को अपने सहयोगियों के ऊपर अपनी बात थोपने की इजाजत नहीं देती है।

हमारे देश के न्यायतंत्र में यह बात भी पूरी तरह स्थापित है कि प्रधान न्यायधीश सभी न्यायधीशों के बराबर है-बस सूची में पहले नंबर पर है, न उनसे कम और न ही उससे ज्यादा। रोस्टर तय करने के मामले में पूर्व स्थापित और मान्य परंपराएं रही हैं कि प्रधान न्यायधीश मामले की ज़रूरत के हिसाब से ही पीठ का निर्धारण करेंगे।

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उपरोक्त सिद्धांत के बाद अगला तर्कसंगत कदम ये होगा कि इस अदालत समेत अलग-अलग न्यायिक इकाइयां ऐसे किसी मामले से ख़ुद नहीं निपट सकती, जिनकी सुनवाई किसी उपयुक्त बेंच से होनी चाहिए। उपरोक्त दोनों नियमों का उल्लंघन करने से दुखद और अवांछित परिणाम होगें जिससे न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा को लेकर देश की राजनीतिक के मन में संदेह पैदा होगा। साथ ही, अगर ऐसा नहीं होगा तो ऐसा हंगामा मचेगा जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।

हम यह बताते हुए बेहद निराश हैं कि पिछले कुछ समय से जिन दो नियमों की बात हो रही है, उसका पालन पूरी तरह नहीं किया जा रहा है। ऐसे कई मामले हैं जिनमें देश और संस्थान पर असर डालने वाले मुकदमे इस अदालत के आपने ‘अपनी पसंद की’ बेंच को सौंप दिए, जिनके पीछे कोई तर्क नज़र नहीं आता। इसकी रक्षा हर हाल में होनी चाहिए।
हम इसका पूरा विवरण इसलिए नहीं दे रहे हैं क्योंकि ऐसा करने से सुप्रीम कोर्ट को और अधिक शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी, लेकिन इसका जरूर खयाल रखा जाना चाहिए कि इस सबके चलते ही कुछ हद तक पहले से ही इस संस्थान की छवि को नुकसान पहुंच चुका है।

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इस संदर्भ में हमें लगता है कि 27 अक्टूबर 2017 के आर पी लूथरा बनाम भारतीय गणराज्य वाले मामले को आपके ध्यानार्थ लाया जाए। इसमें कहा गया था कि जनहित को ध्यान में रखते हुए ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर’ को अंतिम रूप देने में अब और बिलंब नहीं करना चाहिए। जब मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन एंड ए एन आर बनाम भारतीय गणराज्य मामले में संवैधानिक पीठ का हिस्सा था, तो ये समझना मुश्किल है कि कोई अन्य पीठ इस मामले क्यों देखेगी।

इसके अलावा संवैधानिक पीठ के फैसले के बाद आप समेत पांच न्यायाधीशों के कॉलेजियम ने विस्तृत चर्चा की थी और मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम रूप देकर मार्च 2017 में प्रधान न्यायधीश ने उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। भारत सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और इस चुप्पी को देखते हुए ये माना जाना चाहिए कि भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (सुपरा) मामले में इस अदालत के फैसले के आधार पर मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए किसी भी मुकाम पर पीठ को मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम रूप देने को लेकर कोई व्यवस्था नहीं देनी थी या फिर इस मामले को अनिश्चितकाल के लिए टाला नहीं जा सकता था।

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चार जुलाई 2017 को इस अदालत के सात जजों की पीठ ने माननीय न्यायधीश सी एस कर्णन (2017, 1SCC1) को लेकर फैसला सुनाया था। उस फैसले में (आर पी लूथरा के संदर्भ में) हम दो जजों ने व्यवस्था दी थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। साथ ही हमें महाभियोग से अलग भी कोई दूसरे उपाय के बारे में सोचने की जरूरत है। मेमोरैंडम ऑफ प्रॉसिजर को लेकर सातों जजों की ओर से कोई टिप्पणी नहीं की गई थी।

मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को लेकर किसी भी मुद्दे पर प्रधान न्यायधीशों के कॉन्फ्रेंस और सभी जजों वाली अदालत में विचार होनी चाहिए। ये मामला बहुत ही अहम है और अगर न्यायपालिका को इस पर विचार करना है तो इसपर विचार करने की जिम्मेदारी सिर्फ संवैधानिक पीठ दी जानी चाहिए।

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उपरोक्त घटनाक्रम को बहुत ही गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। भारत के माननीय प्रधान न्यायधीश का यह कर्तव्य है कि इस स्थिति को कॉलेजियम के दूसरे सदस्यों के साथ सुलझाएं और और बाद में अगर जरूरत पड़े तो इस अदालत के माननीय न्यायधीशों के साथ विचार-विमर्श करके इसमें सुधार करना चाहिए।

एक बार आपकी तरफ से आर पी लूथरा बनाम भारतीय गणराज्य से जुड़े 27 अक्टूबर 2017 के आदेश वाले मामले को निपटा लिया जाए। अगर उसके जरूरत पड़ी तो हम आपको इस अदालत द्वारा पारित अन्य कई ऐसे न्यायिक आदेशों के बारे में बताएंगे, जिनसे इसी तरह तत्काल निपटाए जाने की जरूरत है।

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सादर,

जे चेलमेश्वर, रंजन गगोई, मदन बी लोकुर, कुरियन जोसफ

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