पिछले एक दशक से पारंपरिक मीडिया को एक नए मीडिया से चुनौती मिल रही है जिसका डिलीवरी मैकेनिज़्म अलग है। जो इंटरनेट के जरिए पाठक और दर्शक तक पहुँचता है और प्रिंट तथा टेलीविजन से ज्यादा सक्षम है, खास तौर पर अपनी इंटरएक्टिविटी की वजह से। यह है नया मीडिया या डिजिटल मीडिया।
इस नए मीडिया ने अमेरिका और यूरोप के पारंपरिक मीडिया में बहुत तबाही मचाई है क्योंकि बहुत से पाठक और विज्ञापन अखबारों से अलग हटकर सोशल मीडिया और वेबसाइटों की ओर चले गए। टेलीविजन के लिए भी स्थितियाँ कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं क्योंकि यू-ट्यूब, मेटा कैफे, यूस्ट्रीम और डेली मोशन जैसी ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइटें दर्शक के लिए अलग किस्म का वीडियो प्लेटफॉर्म ले आई हैं। जहाँ डिजिटल टेलीविजन एक पेड सर्विस है वहीं ये सभी निःशुल्क वेबसाइटें हैं। खास बात यह है कि यहाँ दर्शक सिर्फ मूक दर्शक नहीं है बल्कि वह चाहे तो खुद ब्रॉडकास्टर भी बन सकता है। दूसरे यह कन्टेन्ट टेलीविजन की तरह किसी खास समय के साथ बंधा हुआ नहीं है बल्कि दर्शक की सहूलियत के हिसाब से किसी भी समय देखा जा सकता है, यानी ऑन डिमांड।
प्रिंट मीडिया के उलट, अभी हाल तक टेलीविजन की दुनिया में किसी ने डिजिटल मीडिया की चुनौती को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। वास्तव में इसे एक अवसर समझा गया, जिसका प्रिंट और टेलीविजन ने पर्याप्त दोहन भी किया है। ट्विटर इसका एक शानदार उदाहरण है, जो खबरों के अकाल के समय संकटमोचक के रूप में उभर कर सामने आता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह और अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, आमिर खान, विशाल डडलानी जैसे फिल्मी कलाकार ऐसे संकट के समय अपने किसी न किसी दिलचस्प ट्वीट के जरिए नई खबर का सृजन कर देते हैं।
सो, हम डिजिटल मीडिया को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। किसी मुद्दे पर तुरत-फुरत ऑनलाइन पोल करवा लिया और खबर बन गई। किसी के ब्लॉग या फेसबुक अकाउंट पर कोई विवादित टिप्पणी आ गई और खबर बन गई। यू-ट्यूब तो खबरों का खजाना है। एक भैंसे ने शेर को खदेड़ दिया तो ब्रेकिंग न्यूज बन गई। मैंने सुना है कि हमारे चैनलों में यू-ट्यूब के वीडियो को खबर के तौर पर प्ले करने के विशेषज्ञ खड़े हो गए हैं। एक टीवी चैनल ने तो दस सैकंड के वीडियो पर तीस मिनट का कार्यक्रम बना डाला। वह चाहता तो इस पर विशेषज्ञों के बीच आधे घंटे की चर्चा भी करवा सकता था। संभावनाएँ तो अनंत हैं।
मैं कह रहा था कि भारत में प्रिंट और टेलीविजन ने डिजिटल मीडिया को चुनौती के रूप में कम और अवसर के रूप में ज्यादा देखा है। वह काफी हद तक नए मीडिया की तरफ से पैदा होने वाले उस संकट को टालने में सफल हो गया है जो अमेरिका और यूरोप का मीडिया नहीं कर सका। आप जानते हैं कि वहाँ दर्जनों के हिसाब से अखबार बंद हो गए, न्यूज़वीक जैसी पत्रिका प्रिंट मीडिया को अलविदा कर पूरी तरह ऑनलाइन हो गई। कंपनी मैगजीन, गोल्फ मैगजीन, पीसी मैगजीन, गोल्फ वर्ल्ड, जेट मैगजीन, स्मार्ट मनी, स्पिन मैगजीन, एसक्यू मैगजीन, एल स्टाइल जी स्टाइल आदि ऐसी ही कुछ मिसालें हैं। बंद होने वाले कुछ अखबार ऐसे हैं जो सौ साल से भी ज्यादा समय से प्रकाशित हो रहे थे। जिन अखबारों का बंद होना खास तौर पर दुःखद था, वे थे बाल्टीमोर सन, डेट्रॉइट फ्री प्रेस, द रॉकी माउंटेन न्यूज और सिएटल पोस्ट इंटेलीजेंसर। एसक्यू मैगजीन ने लिखा – A new era begins: Print is dead, we are going online only..
बहरहाल, बहुत से अखबार जैसे कि सान फ्रांसिस्को क्रॉनिकल, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट अपने खर्चों पर जबरदस्त अंकुश लगाकर, शेयर या प्रॉपर्टी बेचकर या अमेजॉन के जेफ बेज़ोस जैसे उद्यमियों की आर्थिक मदद से उस संकट को टालने में कामयाब रहे। इन्होंने डिजिटल माध्यमों का खुद भी अच्छा प्रयोग किया और उससे प्रतिद्वंद्विता करने की बजाए उसके साथ खड़े हो गए। न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट ने तो डिजिटल मीडिया में बहुत मजबूत उपस्थिति बना ली है। उन्होंने जिस तरह इस संकट का सामना किया, उसका अध्ययन और मीमांसा करने की ज़रूरत है क्योंकि इसके भीतर से मीडिया के भविष्य की कुछ चुनौतियों के जवाब मिल सकते हैं।
मैं वहाँ के प्रिंट मीडिया के सर्कुलेशन के आँकड़े देख रहा था। वहाँ के समग्र सर्कुलेशन में सन् 2003 से गिरावट होनी शुरू हुई थी जो सन् 2009 तक निम्नतम स्तर तक पहुँच गई थी। लेकिन एक साल बाद उसने फिर बढ़ना शुरू किया और सन् 2013 में वह 2003 के स्तर पर लौट गई। यदि इन आंकड़ों पर दशक के लिहाज से नज़र डालें तो कहेंगे कि 2003 से 2013 तक अमेरिकी प्रिंट मीडिया की दस-वर्षीय वृद्धि दर लगभग 0.5 फीसदी रही। इससे जो संदेश निकलता है वह यह है कि डिजिटल मीडिया द्वारा पैदा किए गए जबरदस्त संकट के बावजूद और बड़ी संख्या में प्रकाशनों के धराशायी होने के बावजूद अमेरिकी प्रिंट मीडिया ने अपने आपको खड़ा रखने में कामयाबी हासिल की।
इस लिहाज से भारतीय मीडिया की मजबूती की तारीफ करनी चाहिए कि फिलहाल उसे ऐसी बड़ी कुरबानी नहीं देनी पड़ी। हालाँकि इसके दूसरे कारण भी थे, जैसे हमारे यहाँ इंटरनेट का उतना ज्यादा प्रसार न होना और इंटरनेट बैंडविड्थ की सीमाएँ। तकनीकी लिहाज से हमारा पिछड़ापन प्रिंट मीडिया के लिए डूबते को तिनके का सहारा सिद्ध हुआ। लेकिन क्या कोई इस बात की गारंटी ले सकता है कि भविष्य में भी प्रिंट मीडिया पर ऐसा कोई संकट नहीं आएगा? जिस तरह मोबाइल का प्रसार हुआ है और इंटरनेट कनेक्टिविटी के प्रभावशाली आंकड़े सामने आ रहे हैं, उसमें खबरों का वैकल्पिक माध्यम यानी डिजिटल मीडिया धीरे-धीरे अपने आपको मजबूत करता जाएगा। वह प्रिंट और टेलीविजन दोनों को चुनौती देगा।
(‘प्रभासाक्षी’ से साभार)