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सियासत

मजीठिया आंदोलन : केस के बाद सेवामुक्ति पर मिलता है स्टे

मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार और नौकरी से निकालने की खबरें बेचैन कर देने वाली हैं। प्रेस मालिकों की ये गुस्ताखी कि पहले तो मजीठिया वेतनमान न दें और जो अपने हक के लिए लड़े, उसे परेशान करें।

<p>मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार और नौकरी से निकालने की खबरें बेचैन कर देने वाली हैं। प्रेस मालिकों की ये गुस्ताखी कि पहले तो मजीठिया वेतनमान न दें और जो अपने हक के लिए लड़े, उसे परेशान करें।</p>

मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार और नौकरी से निकालने की खबरें बेचैन कर देने वाली हैं। प्रेस मालिकों की ये गुस्ताखी कि पहले तो मजीठिया वेतनमान न दें और जो अपने हक के लिए लड़े, उसे परेशान करें।

यदि आप कानून सही है तो कोर्ट में मुकाबला करों। खैर किसे समझा रहा हूं। जो पत्रकार मजीठिया वेतनमान के लिए लड़ रहे है और उनका मामला कोर्ट में है यदि संस्थान उन्हें निकालता है या निकालने का प्रयास करता है तो वादी को कोर्ट में एक आवेदन पत्र देना पड़ता है कि वेज पाने के लिए मैंने कोर्ट का दरवाजा खटखटा इसलिए संस्थान मुझे बदले की भावना वश सेवा से पृथक कर दिया गया। इसके बाद कोर्ट स्टे देता और कहता है कि चूंकि मामला कोर्ट में, इसलिए जब तक केस चल रहा है तब तक आवेदक की सेवा शर्तों में परिवर्तन न किया जाए। यदि संस्थान फिर भी नहीं मानता तो दंड मिलता है। और जिन साथियों को निकालने का डर हो, तो श्रम विभाग में या लेबर कोर्ट में एक शिकायत पत्र दे सकते हैं। ध्यान रखें, शुद्ध शब्दों में कहें तो श्रम विभाग में शिकायत संस्थान को परेशान करने के लिए और कोर्ट में शिकायत संस्थान पर कार्यवाही करने के लिए की जाती है क्योंकि श्रम विभाग हर शिकायत पर जेब सेकने का प्रयास करता है। 

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मौखिक सेवा मुक्ति पर

जिन्होंने मजीठिया की मांग मौखिक की और सेवा से पृथक कर दिए गए, उन्हें थोड़ी परेशानी हो सकती है क्योंकि उन्हें वेज का और नौकरी से पृथक करने का केस दोनों फाइल करना पड़ता है। मौखिक रूप से नौकरी से निकालने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 10 व 25 एफ के तहत केस चलता है। 

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एक रोचक मामला गुजरात से सुनने में आया है कि दैनिक भास्कर ने कुछ लोगों को नौकरी से निकाल भी दिया और बाद में बिना बताए अनुपस्थित रहने का नोटिस भेज दिया। उल्लेखनीय है कि नौकरी से निकाल दिया, इसके लिए किसी नोटिस की जरूरत नहीं पड़ती। वश कोर्ट में यह कहना पड़ता है कि मौखिक आदेश देकर नौकरी से निकाल दिया। लेबर कोर्ट में 90 प्रतिशत बात लेबर की सुनी जाती है। गुजरात दैनिक भास्कर के मामले में यही कहना चाहूंगा कि जब 20 लोगों ने समूहिक याचिका लगाई तो केस अवधि तक हर सुख-दुख में एक साथ रहना चाहिए। जैसे 4 लोगों को काम से निकाला तो सभी को बहिष्कार कर देना चाहिए और कोर्ट में शिकायत कर देनी चाहिए। एक साथ न रहने से कंपनी का पक्ष मजबूत होता है कि वास्तव में कर्मचारी केस के बाद काम पर नहीं आ रहा है। 

जीत लगभग तय

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सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया वेतन मान का जो मामला चल रहा है, उसमें पत्रकारों की जीत निश्चित है। बड़े वकील खड़े करने से कुछ नहीं होता। मजदूरों के पक्ष में जो कानून बना है, उसमें किंतु-परंतु नहीं है। इसलिए चाहे कितना भी बड़ा वकील हो, जिरह नहीं कर पाएगा। हां अपने प्रभाव से संस्थान मालिकों को जेल जाने से बचा ले या कोर्ट से कुछ और वक्त ले ले, ऐसा हो सकता है। 

चूंकि पत्रकारों का मामला और न्यायलीन अवमानना मामले में कारपॉरेट घरानों को सीधे जेल होती है। यदि कोर्ट ने सजा नहीं दी तो देश की सबसे बड़ी कानून व्यवस्था पर उंगुली उठने लगेगी। कुछ साथी यह सोचते हैं कि कोर्ट के बारे में हम कुछ नहीं लिख सकते, यदि लिखेंगे तो न्यायलीन अवमानना का सामना करना पड़ेगा। ऐसा नहीं है। यदि आपके पास ठोस सबूत हैं तो कोर्ट के बारे में भी लिख सकते हैं, चाहे कैसी भी अदालत हो। उक्त दोनों बातों का उल्लेख न्यायालीन अवमानना अधिनियम में भी है।  

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रोचक दलीलें

प्रभात खबर और हिन्दुस्तान की रोचक कहानी पढ़कर हंसी आती है। प्रभात खबर के मालिक यह कहते हैं कि जज को संस्थान की चाबी दे देंगे। चाबी तो देनी पड़ेगी लेकिन संस्थान भर की नहीं अपितु दुकान और घर की भी। उसके बदले एक कटोरा मिल जाएगा। अभी तक संस्थान ने जो लाभ कमाया, उसे कौन चुकाएगा। शुक्र है, पत्रकारों ने मूल राशि के साथ 10 गुने जुर्माने की मांग नहीं की और पुराने साथियों ने मणिसाना वेज वोर्ड की मांग नहीं की, इसलिए प्रेस मालिकों की अकड़ स्वाभाविक है। और हिन्दुस्तान पत्रकारों का पद परिवर्तन कर नए शब्दावली का प्रयोग कर रहा है। इसमें संस्थान को ही घाटा है। क्योंकि मजीठिया वेज बोर्ड प्रेस में काम करने वाले हर कर्मचारी के लिए है। अब कोई नई शब्दावली आयी और श्रमिक ने कहा कि इसका मतलब संपादक के समकक्ष काम करना है, तो संस्थान का दिवाला निकाल जाएगा। और किसी भी कोर्ट में जाएगा तो संदेह का लाभ हमेशा श्रमिक को मिलेगा। 

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