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सुख-दुख

पुराने दौर की पहचान “नया दौर” के संपादक शहनवाज़ का इंतेक़ाल!

नवेद शिकोह-

उत्तर प्रदेश सूचना विभाग की मशहूर पत्रिका नया दौर के पुराने संपादक शहनवाज़ कुरैशी का भी इंतेक़ाल हो गया। उर्दू साहित्य और साहित्यकारों का गुलदस्ता कहे जाने वाली पत्रिका “नया दौर” देश-दुनिया में विख्यात थी, और इसे इतनी मक़बूलियत दिलाने में शाहनवाज साहब का भी अहम रोल था। मरहूम ने सरकारी मुलाज़मत के दौरान उर्दू की जितनी हो सकती थी खिदमत की। वो उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी में सचिव भी रहे। रिटायर हुए तो लखनऊ से प्रकाशित उर्दू रोज़नामों में बतौर संपादक जुड़कर उन्होंने हिन्दुस्तान की शिरीन ज़ुबान के लिए अपनी अदबी और सहाफी सलाहियतों का इस्तेमाल किया। पहले “इन दिनों” और फिर लम्बे वक्त तक “सहाफत” अखबार के संपादक रहे।

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मेरा उनसे दिली लगाव था, वजह थी कि मेरी पत्रकारिता के वो पहले सोर्स थे। उर्दू अकादमी पर मेरी पहली एक्सक्लूसिव बाइलाइन खबर में उनका श्रेय जाता है।

अदब में सियासत के दखल से उन्हें चिढ़ थी। एजाज रिजवी उन दिनों यूपी भाजपा के बड़े नेता नेता थे। उनकी बेटी शीमा रिजवी को कल्याण सिंह सरकार में उर्दू अकादमी का चेयरपर्सन बनाया गया। राजनीतिक रसूख की ताक़त अकादमी के फरायज़ पर हावी हो जाती थी। सचिव पद पर रहकर भी राजनीतिक दबाव में हाथ कटे रहने (कुछ बेहतर ना कर पाने) और तमाम अनियमितताओं को देखकर साहनवाज़ साहब को कोफ्त होती थी। इस तरह से वो अकादमी की तमाम अनियमितताओं की खबरें देने का सोर्स बनकर मेरी खबरों के ज़रिए अपने दिल की भड़ास निकाल लेते थे। इन खबरों से उर्दू अकादमी की चेयरपर्सन शीमा रिज़वी साहिबा बहुत आहत होती थीं। पत्रकारिता के सफर में मुझे तमाम लीगल नोटिस मिले। पहला लीगल नोटिस शीमा रिज़वी साहिबा ने भिजवाए था।

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ख़ैर अब ना शीमा रिजवी रहीं और ना शाहनवाज कुरैशी। मरती हुई अदबी पत्रिकाओं और दम दौड़ती पत्रकारिता के नए दौर में पुराने दौर के किस्से-कहानियां और अतीत की सहाफत के गवाहों की सुनानियां ( मौत की ख़बरें) ही रह गई हैं।

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