हिमालय को लेकर केंद्र सरकार की चिंता व गंभीरता ने अब तक राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर रहे उत्तराखण्ड सहित अन्य हिमालयी राज्यों में भी एक नई आशा जगा दी है। जहाँ एक तरफ सरकार उत्तराखण्ड में हिमालय सम्बंधी अध्ययन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय खोलने की तैयारी में जुटी है, वहीं हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन और हिमालय सस्टेनेबलिटी फंड भी शुरू करने जा रही है। केंद्र की यह पहल जलवायु परिवर्तन व प्रदूषण की वजह से हिमालय को हो रहे भारी नुकसान से बचाने के लिए दीर्घकालिक तैयारी का हिस्सा है। उत्तराखण्डवासियों के लिए यह गौरव का विषय है कि प्रस्तावित योजना के तहत यहाँ की पावन देवभूमि में समूचे हिमालयी क्षेत्र के लिए विकास की नई नीतियां व तकनीकें तैयार की जायेंगी। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि नेपाल व चीन की सीमा से सटे और साथ ही समूचे राष्ट्र की सामरिक सुरक्षा के लिए संवेदनशील यहाँ के सैकड़ों निर्जन हो गये गाँवों में फिर से बहार लौटने की संभावना बढ़ गई है।
भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में हिमालय के विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ जैसा एक निकाय बनाने जो वादा किया था, लगता है उस पर प्रधानमंत्री मोदी दृढ़ निश्चय हैं। अपने विचार को अमली जामा पहनाते हुए उन्होंने हिमालय मंत्रालय का गठन किया। यह पहला अवसर है जब हिमालय सम्बंधी सभी प्रकार के सरोकारों को लेकर केन्द्र सरकार इतना गंभीर नजर आ रही है। हिमालय क्षेत्र के अध्ययन के लिए विशेष टास्क फोर्स के गठन की घोषणा उन्होंने पहले ही कर दी थी और फिर अपनी भूटान यात्रा में उन्होंने वहाँ हिमालय केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव भी रखा। वे जानते हैं कि हिमालय इस संपूर्ण क्षेत्र की साझी विरासत ही नहीं, यहाँ की सभ्यता, संस्कृति और जीवन का मुख्य आधार भी है। ग्लोबल वार्मिंग हो या पर्यावरण सम्बंधी अन्य संकट, इनका सर्वाधिक दुष्प्रभाव हिमालय पर पड़ता है। इन मुसीबतों से बचने के लिए सभी पड़ोसी देशों को समेकित प्रयास करने होंगे जिसमें भारत ने अपनी ओर से शुरुआत कर भी दी है। भविष्य में जिसका लाभ पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र को मिलेगा। मोदी के इस विचार की भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ही नहीं, राजा जिग्मे खेसर वांगचुक ने भी काफी सराहना की।
इधर, हाल ही प्रकाशित मीडिया रिपोर्टों के अनुसार भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने भी हिमालय के संरक्षण को, खास तौर से उत्तराखण्ड में गत वर्ष हुए जल-प्रलय के बाद, तत्काल कदम उठाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है। उन्होंने मीडियाकर्मियों से कहा भी कि ‘हिमालय का अस्तित्व उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल, भूटान और नेपाल के लिए अलग नहीं है बल्कि एक है। यह संपूर्ण क्षेत्र की एक भौगोलिक एवं पर्यावरणीय प्रणाली है। इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। हमें हिमालय की सुरक्षा के लिए एक सुदृढ़ व्यवस्था बनाने की जरूरत है और संसद द्वारा हर साल इसके लिए धन का आवंटन किया जाना चाहिए। हमें ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ जैसा एक समर्पित निकाय गठित करना चाहिए जो हिमालय में विकास सम्बंधी गतिविधियों और पर्यावरण संरक्षण के कामों की निगरानी करेगा। साथ ही यहाँ किस प्रकार की तकनीक प्रयोग में लायी जाये, किस तरह के मकान और सड़कें बनाई जायें, इसका सुझाव भी देगा।’
उधर, केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी के अनुसार केन्द्र सरकार जल्दी ही हिमालय सम्बंधी अध्ययन के लिए उत्तराखण्ड में अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक विश्वविद्यालय खोलेगी। इसमें श्रेष्ठतम अध्यापकों की नियुक्ति के लिए भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी विशेषज्ञों को शामिल किया जायेेगा। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से भारी नुकसान झेल रहे हिमालय को लेकर दीर्घकालिक तैयारी के तौर पर सरकार ने इस विवि को शुरू करने की योजना बना ली है। इसमें न केवल पर्याप्त संख्या में हिमालय सम्बंधी विषयों के जानकार तैयार होंगे, बल्कि यहाँ उच्च स्तरीय शोध भी हो सकेगा। अभी इस तरह का कोई संस्थान देश में नहीं है, जबकि न सिर्फ हिमालयी ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघल रहे हैं, बल्कि यहाँ उपलब्ध होने वाली वनस्पतियों में भी भारी कमी आई है। केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने गत सप्ताह राज्यों के उच्च शिक्षा सचिवों के साथ बैठक में इस विवि का ऐलान किया। इसी के तहत केन्द्र सरकार हिमालयी तकनीक पर केन्द्रीय विवि खोलने के साथ ही ‘हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन’ व ‘हिमालयन सस्टेनेबलिटी फंड’ भी शुरू करेगी।
संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी तथा पर्यावरणीय असंतुलन का सीधा दुष्प्रभाव यहाँ के जल, जंगल, जमीन और जन-जीवन पर स्वाभाविक रूप से पड़ता है। इसके कमजोर होने से यहाँ ‘जीवन’ की कल्पना करना एक तरह से असंभव है। देश के योजनाकारों ने अब तक हिमालयी क्षेत्र के लिए विकास की जैसी योजनाएं बनाईं उनसे यहाँ विकास तो नहीं हुआ, अलबत्ता यहाँ के समग्र पर्यावरण को रौंद डाला गया। जिसका पता यहाँ प्रतिवर्ष लगातार बढ़ती जा रही प्राकृतिक आपदाओं की व्यापक विनाशलीला से चलता है। योजनाकारों की उन गलतियों तथा हवाई आकलनों का खमियाजा अब यहाँ के लोगों को भुगतने पड़ रहे हैं। अतः यहाँ के जन-जीवन को सलाना बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए हिमालय को समग्रता में बचाया जाना बेहद जरूरी है।
हिमालय को लेकर केंद्र सरकार की इस चिंता व गंभीरता ने अब तक राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर रहे उत्तराखण्ड सहित अन्य हिमालयी राज्यों के पर्वतीय क्षेत्रों में भी उम्मीद की नई आशा का संचार कर दिया है। जहाँ एक तरफ केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय उत्तराखण्ड में हिमालय सम्बंधी अध्ययन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय खोलने की तैयारी में जुटा है, वहीं हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन और हिमालय सस्टेनेबलिटी फंड भी शुरू करने जा रहा है। केंद्र की यह पहल जलवायु परिवर्तन व प्रदूषण की वजह से हिमालय को हो रहे भारी नुकसान से बचाने के लिए दीर्घकालिक तैयारी के रूप में देखी जा रही है। उत्तराखण्ड के लिए निश्चित तौर पर यह हर्ष व गौरव का विषय है कि केंद्र की इस योजना के तहत राज्य की धरती पर समूचे हिमालयी क्षेत्र के लिए विकास की नई नीतियां व तकनीकें तैयार की जायेंगी।
चाहे उत्तराखण्ड, हिमाचल व जम्मू-कश्मीर जैसे उत्तर हिमालयी क्षेत्र हों या असम, मेघालय, अरुणाचल व नागालैंड आदि जैसे पूर्वोत्तर के राज्य, सबके लिए केंद्र की यह पहल आशा की नई किरण से कम नहीं है। उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षो में जिस तेजी से पलायन हुआ, उससे यहाँ के सैकड़ों गाँव निर्जन हो गये हैं। इस दुरूह समस्या के मूल में पहाड़ी क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, यातायात, संचार, चिकित्सा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से सम्बंधित सटीक नियोजन की कमी रही। पलायन का दूसरा महत्वपूर्ण और समूचे राष्ट्र के लिए संवेदनशील पक्ष है उत्तराखण्ड में नेपाल व चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे देश के सीमांत क्षेत्रों में अनेक गाँवों का जन शून्य हो जाना। अब इन गाँवों में फिर से बहार लौटने तथा सामरिक सुरक्षा को मजबूती मिलने की संभावना बढ़ गई है। स्पष्ट है यदि हिमालय के प्रति केंद्र सरकार की यह तैयारी वास्तव में भोर की सुखद हवा के झौंके की तरह धरातल पर उतर कर भूल सुधार का उदाहरण बनी, तो पलायन से निर्जन हो चुके यहाँ के गाँवों में फिर से रौनक लौटने के साथ ही सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा भी बेहतर ढंग से संभव हो सकेगी।
अभी कुछ दिन पूर्व ही केंद्र सरकार ने विकास योजनाओं के लिए पाँच हेक्टेयर तक वनभूमि हस्तांतरण का अधिकार राज्य सरकार को देकर उत्तराखण्ड में अपनी इस मुहिम की एक तरह से शुरुआत भी कर दी है। जून 2013 में आई भीषण दैवीय आपदा की विनाशलीला से चैंकन्ने केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी मौसम की सटीक भविष्यवाणी के लिए उत्तराखण्ड में चार डॉप्लर रडार लगाने की प्रक्रिया तेज कर दी है। आजादी के बाद संभवतः यह पहला अवसर है जब केंद्र सरकार ने न सिर्फ हिमालय की चिंता की, बल्कि इस दिशा में कदम उठाने भी शुरू कर दिये हैं। ऐसे में केंद्र की इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने में राज्य सरकार को भी अपने स्तर पर ठोस भूमिका निभानी होगी। केंद्र ने वनभूमि हस्तांतरण व प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए अर्ली वार्निग प्रणाली विकसित करने में जिस तरह त्वरित कदम उठाये हैं, राज्य को भी इसका भरपूर लाभ उठाने के लिए कारगर रणनीति से काम करना होगा।
यहाँ उल्लेखनीय है कि संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण असंतुलन व ग्लोबल वार्मिग के दुष्परिणाम विगत वर्षों में ही स्पष्ट दिखने लगे थे। इस सम्बंध में यदि केवल उत्तराखण्ड का ही उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जहाँ औसतन 12 से 15 सेमी. सालाना की दर से ऊपर की ओर सिकुड़ते जा रहे हिमालयी ग्लेशियरों से निकलने वाली गंगा तथा यमुना जैसी सदानीरा नदियां होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश क्षेत्रों में पेयजल के लिए मचने वाला हाहाकार प्रतिवर्ष गहराता जा रहा है क्योंकि यहाँ के प्राकृतिक जलस्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं और पीने के पानी की कमी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1,100 मिली मीटर बारिश होती है और यदि जलस्रोतों के संवर्धन के लिए यहाँ रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली विकसित की जाती तो आज पेयजल की इतनी मारामारी न होती। समस्या से बेखबर सरकारी तंत्र वर्षा-जल का राज्य में समुचित उपयोग करने की ठोस प्रणाली अब तक विकसित नहीं कर पाया है। जब सरकारी स्तर पर वर्षा के पानी को रिचार्ज करने की ईमानदारी से कोशिशें ही नहीं की गईं तो धरातल पर उसके सुखद नतीजे कैसे आते। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड भी मानता है कि यदि उत्तराखण्ड में बारिश के पानी का 20 फीसद हिस्सा ही इस्तेमाल कर लिया जाये तो राज्य में पेयजल संकट जैसी कोई स्थिति ही पैदा न हो, परन्तु रेन वाटर हार्वेटिंग की दिशा में राज्य में अब तक के प्रयास नगण्य ही हैं।
आशा की जानी चाहिए कि, देर से ही सही, आजादी के बाद पहली बार केन्द्रीय स्तर पर हिमालय को लेकर गंभीरतापूर्वक किये जा रहे प्रयासों के सुखद परिणाम जल्दी ही देश व दुनिया के सामने होंगे और प्रगति के पथ पर हम भी दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे होंगे। आमीन!
श्यामसिंह रावत
मो-9410517799