उर्मिलेश-
पटना से प्रकाशित ‘सबाल्टर्न’ पत्रिका का नया अंक-6 (जुलाई 2023) पिछले अंकों की तरह ही बेहद पठनीय है. बल्कि पीछे के कुछ अंकों से ज़्यादा विचारोत्तेजक है..इसके कुछ आलेखों के बारे में मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि ऐसे लेख हिंदी में बहुत कम छपते हैं. निश्चय ही ये लेख मेहनत, शोध और गंभीर मंथन के बाद लिखे गये हैं.
वैसे तो ‘सबाल्टर्न’ के इस अंक की हर सामग्री पठनीय और विचारणीय है. लेकिन कुछ आलेखों को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. ऐसे कुछ लेखों में प्रमुख हैंः फासीवाद और हिन्दुत्व( प्रसन्न कुमार चौधरी), कांग्रेस पार्टी के एजेंडे पर सामाजिक न्याय(तथागत मंडल), हिंदी साहित्य जगत का ख़म ठोक जातिवाद( संजीव चंदन), सवर्ण व्यामोह में फँसा वाम इतिहासबोध(रिंकू यादव), विज्ञान में डायवर्सिटी का गला घोटती जाति व्यवस्था(अंकुर पालीवाल), रंजित गुहाः शताब्दी के आर पार(रमाशंकर सिंह), हिन्दुत्व के चौसर पर जाति जनगणना(सतीश देशपांडे) और बिहार में कृषि मंडियों के ख़ात्मे की एक पड़ताल(गोपाल कृष्ण).
इनमें कुछेक लेख अंग्रेज़ी में पहले प्रकाशित हुए और यहाँ उनका अनुवाद लिया गया है. हिंदी पाठकों के लिए ये ज़रूरी लेख हैं.
पत्रिका के प्रधान संपादक महेंद्र सुमन, संपादक द्वयः अरुण नारायण और संतोष यादव इस अच्छे अंक के लिए बधाई के पात्र हैं. बधाई इसलिए भी कि किसी बड़े प्रकाशन गृह या संस्थान के वित्तीय समर्थन के बग़ैर यह पत्रिका निकल रही है. लेकिन इसकी निरंतरता के लिए इसके संपादकों-प्रबंधकों को निश्चय ही एक कारगर और टिकाऊ राजस्व मॉडल विकसित करना होगा.
सबाल्टर्न के सभी अंकों को ऑनलाइन यहाँ से पढ़ा जा सकता है: http://NotNul.com/Pages/ViewPort.aspx?ShortCode=TK0F80Zf