नवीन रांगियाल-
साल 2002 में अटल जी ने कहा था- राजधर्म का पालन कीजिए. तब उनके समीप खिसियाए से बैठे आपने कहा था- वही कर रहे हैं साहब.
मसला समय और स्मृति का है; 19 साल के लंबे अंतराल के बाद आधुनिक भारत में राजधर्म वाली स्टीरियोटाइप बातें कौन और कहां याद रखता है?
जो समय राजधर्म का था, वहां चुनावी कर्म था.
ग़लत टाइमिंग और विस्मृति के अपने कंसीक्वेंसेस हैं– अपना एक इंची कद बढ़ाने में ढाई फ़ीट घट भी जाता है. बहरहाल, तकलीफ़ यहीं ख़त्म नहीं होती, इस नशे में किसी दूसरे का कद आपकी बराबरी पर आ जाता है.
70 साल की आज़ादी वाले इस महान देश के चरित्र को पिछले डेढ़ साल के कोरोना संक्रमण ने पूरी तरह उजागर कर दिया है। इन कुछ महीनों में ही हमारे राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को नंगा कर दिया है। कैसे सरकार ने इस संक्रमण को त्रासदी और हम भारतवासियों ने इसे सीजन में तब्दील कर दिया।
भारत की राजधानी और दुनिया का पावर सेंटर माने-जाने वाले दिल्ली में लोग सड़क पर बगैर इलाज के मर रहे हैं। देश के तमाम शहरों में जीवन रक्षक दवाओं के लिए लोग नेताओं के पैरों में अपना माथा रगड़ रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर कांधे पर ढो रहे हैं।
क्योंकि स्कूल, अस्पताल और लेबोरेटरीज की जगह प्रतिमाओं और मंदिरों के लिए अरबों फूंक दिए गए हैं।
धर्म, हिंदुत्व और विकास ने नाम पर मैंडेट हासिल करने वाली सरकार और लाचार विपक्ष कैसे राजनीतिक मंच पर अपने- अपने कपड़े उतारकर नाच रहे हैं, यह भी अंततः सामने आ ही गया।
… तो देश के इस चरित्र का प्रादुर्भाव कोई आजकल में नहीं हुआ, चरित्र हनन का यह विकास क्रम पिछले कई सालों से बल्कि आज़ादी के बाद से ही होता आ रहा है। राजनीतिक गोरखधंधा कोई आज की बात नहीं, हमारा सामाजिक पतन कोई आज की बात नहीं, और अब बाज़ारवाद हमें ‘फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट’ के साथ शिकार कर रहा है।
हम सरकार के सामने नंगे खड़े हैं, सरकार हमारे सामने नंगी खड़ी है। एक दूसरे को देखते रहो, सिस्टम ऐसे ही तो चलता है!