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यशवंत जैसे जुझारू और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का प्रेस क्लब में जीतकर आना बहुत जरूरी था

Ashwini Kumar Srivastava : अपने एक फेसबुक कमेंट में हमारे प्रिय सखा Satyendra PS जी ने इस बार के दिल्ली प्रेस क्लब के चुनाव को छात्र संघ चुनाव सरीखा करार दिया था। क्योंकि उनकी नजर में इस बार का चुनाव दरअसल, छात्र संघ चुनाव जैसा ही रोमांचक और हंगामाखेज था। इसकी वजह यह थी क्योंकि इस बार मीडिया के दो ऐसे अराजक मगर क्रांतिकारी साथी चुनाव मैदान में उतर गए थे, जिनका लोहा तकरीबन हर पत्रकार मानता है…चाहे वह उनका विरोधी हो या समर्थक। और ये दो अद्भुत खिलाड़ी हैं Abhishek Srivastava और Yashwant Singh.

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Ashwini Kumar Srivastava : अपने एक फेसबुक कमेंट में हमारे प्रिय सखा Satyendra PS जी ने इस बार के दिल्ली प्रेस क्लब के चुनाव को छात्र संघ चुनाव सरीखा करार दिया था। क्योंकि उनकी नजर में इस बार का चुनाव दरअसल, छात्र संघ चुनाव जैसा ही रोमांचक और हंगामाखेज था। इसकी वजह यह थी क्योंकि इस बार मीडिया के दो ऐसे अराजक मगर क्रांतिकारी साथी चुनाव मैदान में उतर गए थे, जिनका लोहा तकरीबन हर पत्रकार मानता है…चाहे वह उनका विरोधी हो या समर्थक। और ये दो अद्भुत खिलाड़ी हैं Abhishek Srivastava और Yashwant Singh.

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ऐन नरेंद्र मोदी की तरह इन दोनों को ही नजरंदाज कर पाना किसी के लिए भी नामुमकिन ही है। आप मीडिया में रहकर या तो इन्हें गरियाएँगे या फिर इनके मुरीद होकर इन्हें प्यार करेंगे। इन्हें नजरअंदाज तो आप कतई कर ही नहीं सकते। बहरहाल, इस छात्र संघी टाइप प्रेस क्लब चुनाव के नतीजे आ गए और इन दोनों महारथियों में से एक विजयश्री पा गया तो एक को पराजय हाथ लगी। अभिषेक की जीत से जहां मुझे और उनके मित्रों को अपार खुशी मिली है, वहीं यशवंत जी की हार से गहरा दुख भी हुआ है। अभिषेक की जीत पर तो मैंने काफी कुछ लिख भी दिया लेकिन मुझे लगता है कि यशवंत जी की हार पर भी कुछ लिखा जाना चाहिए।

यशवंत जी ने प्रेस क्लब के चुनाव में उतरने का ऐलान अचानक ही किया था। वह भी उस घटना के कुछ समय बाद ही, जब उन पर प्रेस क्लब के बाहर ही कुछ अराजक पत्रकारों ने हमला कर दिया था। मेरा ऐसा मानना है कि यशवंत जी ने उन हमलावरों की भाषा में उनसे पलटकर मारपीट करने या दबंगई का जवाब दबंगई से देने की बजाय क्रांतिकारी तरीके से प्रेस क्लब में चुनाव लड़कर देने का फैसला किया था। उनका यह तरीका एकदम वैसा ही है, जैसा कभी उन्होंने मीडिया की नौकरी छोड़कर भड़ास के जरिये मीडिया के अंदर की गंदगी को आईना दिखा कर किया था। मैं यह तो नहीं जानता कि यशवंत जी कोई महापुरुष हैं या साधारण इंसान, लेकिन इतना जानता हूँ कि अपने साथ हुए किसी अन्याय/शोषण/भेदभाव आदि के खिलाफ सबको इकट्ठा करके एक सार्वजनिक मंच से लड़ने वाला दरअसल वास्तविक क्रांतिकारी ही होता है।

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महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से मारपीट कर धकिया दिए गए। वह वहां बैरिस्टर थे तो जाहिर है, मारपीट करने वाले उन अंग्रेजों से व्यक्तिगत लड़ाई लड़कर भी वह उन्हें सबक सिखा सकते थे। लेकिन उन्होंने उस घटना को श्वेत बनाम अश्वेत और रंगभेद का एक सार्वजनिक मुद्दा बनाया और ऐसी लड़ाई लड़ी, जिसने दक्षिण अफ्रीका की शक्लो सूरत ही बदल दी। उनकी मृत्यु के बाद भी नेल्सन मंडेला जैसे नेता गांधी के उस प्रतिरोध के तरीके से सीख कर क्रांति करते रहे।

यशंवत जी भी कमोबेश अपने जीवन में यही कर रहे हैं। कम से कम मीडिया के क्षेत्र में अब तक उन्होंने ऐन गांधीवादी तरीके से ही हर पीड़ित, शोषित, दमित और परेशान पत्रकार या मीडियाकर्मी को एक मंच दिया है। और उनका दिया हुआ मंच हर बार खुद यशवंत जी की किसी व्यक्तिगत पीड़ा या संघर्ष से ही तैयार हुआ है। ऐसे जुझारू और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का प्रेस क्लब में जीतकर आना बहुत जरूरी था क्योंकि इस जीत से अभिषेक की जीत में भी चार चांद लग जाते। ये दोनों जुझारू व्यक्ति अगर प्रेस क्लब में चुनकर साथ ही जाते तो दोनों की उपस्थिति से प्रेस क्लब और पत्रकारों का काफी भला होता। भले ही यह दोनों विपरीत ध्रुव हों, चुनाव में लड़े पैनल के हिसाब से लेकिन जीतने के बाद किसी टकराव की संभावना के बावजूद टकराव से जो निकल कर आता, वह प्रेस क्लब या पत्रकारों के लिए मंथन में मिले अमृत से कम नहीं होता।

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बहरहाल, ‘एक हार से कोई फकीर तो एक जीत से कोई सिकंदर नहीं बनता’ की तर्ज पर दोनों के लिए मेरी बिन मांगे ही एक सलाह है कि इस जीत-हार को भूलकर भविष्य में और बड़े लक्ष्यों के लिए मेहनत करें।

आईआईएमसी से पढ़ाई करने के बाद बिजनेस स्टैंडर्ड समेत कई अखबारों में काम करने वाले अश्विनी कुमार श्रीवास्तव इन दिनों रीयल इस्टेट फील्ड में बतौर उद्यमी सक्रिय हैं. उनके लिखे उपरोक्त स्टेटस पर आए इस कमेंट को पढ़ें….

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Yashwant Singh  शुक्रिया अश्विनी भाई. मैंने तो अपना वोट Abhishek Srivastava भाई को भी दिया था. दो में से कोई एक भी जीत गया है तो समझिए हम दोनों ही जीत गए हैं. बाकी जिंदा कौमें पांच साल तो नहीं, पर साल भर इंतजार कर लिया करती हैं. मुझे तो उस दिन का इंतजार रहेगा जब हम सब प्रेस क्लब के सदस्य साथी इतने लोकतांत्रिक हो जाएं कि एक शाम इकट्ठे बैठकर खाते पीते एक ड्रा निकालें और जो जो नाम निकले, उन्हें पदाधिकारी बनाते जाएं साल भर के लिए. अगले साल फिर यही प्रक्रिया. पर कुछ लोग प्रेस क्लब को जबरन राजनीति का अखाड़ा बनाए हुए हैं और हर चीज को वैचारिक चश्मे से देखते हुए भेड़िया आया भेड़िया आया करते रहते हैं. अगले साल हम लोग खुद अपना पैनल उतारेंगे. दिल से आभार, इतने प्यार भरे शब्दों से नवाजने और लिखने के लिए. तव यू अश्विनी भाई.

Abhishek Srivastava गुरु, आपका और मेरा होना बराबर समझें। भेडि़या तो पीछे था और अब भी उसका खतरा बना हुआ है। इसमें कोई शक़ नहीं है हमें।

Yashwant Singh हा हा… तूहूं मरदे… केहूरो भेड़िया ना बा… लोकतंत्र में किसी मसले पर कई किस्म के विचार हो सकते हैं… सबका स्वागत करना चाहिए… सब पत्रकार साथी हैं. सबका कोई न कोई सोचने का तरीका है. कोई लेफ्ट, कोई राइट, कोई न्यूट्रल, कोई एनार्किस्ट, कोई कम्यूनल, कोई डेमोक्रेटिक… तरीके से सोचता जीता है… भेड़िया रोग से मुक्त होना चाहिए. सहज मनुष्य बनना और बनाना चाहिए. कई बार हम किसी खास मनोअवस्था में किसी खास किस्म के जीव को देखने लग जाते हैं… जबकि वो होता नहीं है… 🙂

Abhishek Srivastava आप राजनीतिविज्ञान को मनोविज्ञान बना देंगे महराज

अब अभिषेक श्रीवास्तव के बारे में अश्विनी कुमार श्रीवास्तव ने जो फेसबुक पर लिखा है, उसे पढ़ें :

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Ashwini Kumar Srivastava : दिल्ली प्रेस क्लब के चुनाव में Abhishek Srivastava और उसके पैनल ने विजयश्री हासिल कर ली है। हालांकि अभिषेक का जैसा विराट व्यक्तित्व, अद्भुत समझ, समाज से गहरा सरोकार, जबरदस्त संघर्षशीलता और अपार लोकप्रियता रही है, उस हिसाब से यह चुनाव या यह जीत उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। मगर मैं जानता हूँ कि प्रेस क्लब और बाकी पत्रकारों के लिए जरूर यह जीत खासी अहम है। जीत की इस खुशी में मुझे एक दुख भी है…और वह है Yashwant Singh के हारने का। यशवंत जी पर भी मैं अपनी किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा लेकिन फिलहाल अभी अभिषेक की ही बात करते हैं।

मुझे ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद मैं 2001-02 के उस दौर में अभिषेक से पहली बार मिला था, जब वह आईआईएमसी में मेरे ठीक बाद वाले बैच में पढ़ रहा था। तब उसके बाकी बैचमेट सामान्य आईआईएमसीएन की ही तरह बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों में नौकरी पाने के लिए इस कदर आतुर रहते थे कि किसी भी सीनियर आईआईएमसीएन को पाकर न सिर्फ निहाल हो जाते थे बल्कि तरह तरह के सवाल पूछकर जान भी खा जाते थे।

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जबकि अभिषेक इन सबसे अलग था। वह तब भी जेनएयू और अन्य सार्वजनिक मंचों या राजनीतिक/सांस्कृतिक संगठनों में जोरदार तरीके से एक्टिव था। मैं नवभारत टाइम्स में नौकरी कर रहा था और मैं भी संयोग से जेनएयू में जन संस्कृति मंच से जुड़ा हुआ था और मित्रों के साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया करता था।

आईआईएमसी करने के बाद के बरसों में अभिषेक ने शायद ही देश का कोई ऐसा मीडिया संस्थान हो, जहां पर सिलेक्शन प्रोसेस में टॉप में अपनी जगह न बनाई हो और शायद ही कोई ऐसा संस्थान हो, जहां उसने नौकरी का एक साल भी पूरा किया हो। वह इसलिए क्योंकि मीडिया की नौकरी उसके लिए और वह नौकरी के लिए बने ही नहीं हैं।

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टाइम्स ग्रुप में भी वह मेरे साथ कुछ समय रहा। लेकिन उसके अभूतपूर्व क्रांतिकारी स्वभाव ने टाइम्स ग्रुप में संपादकीय विभाग से लेकर मैनेजमेंट तक में जबरदस्त खलबली मचा दी थी। बतौर सीनियर भले ही अभिषेक मुझे हमेशा से सम्मान देता रहा हो लेकिन वहां रहने के दौरान उसने मुझे भी कभी नहीं बख्सा और लगातार मेरी भी गलतियां सार्वजनिक तौर पर अखबार रंग कर बाकी सभी जूनियर-सीनियर्स की तरह खिल्ली उड़ाने के अपने रोजमर्रा के कार्यक्रम में शामिल कर लिया था।

हालांकि उसी दौर में देर रात हम लोग महफिलों में भी साथ ही शरीक भी होते थे। क्योंकि मैंने कभी उसकी इस बात का बुरा ही नहीं माना। वह इसलिए क्योंकि मैं या जो भी शख्स अगर अभिषेक को जानता-पहचानता होगा, तो उसे यह अच्छी तरह से पता होगा ही कि अभिषेक अपने आदर्श, मूल्य और विचारधारा के तराजू पर सबको बराबर तौलता है।
अभिषेक की सबसे खास बात, जिसने मुझे हमेशा ही उसका फैन बनाया है, वह यह है कि अपने 10-12 साल के मीडिया कैरियर में मुझे अभिषेक के अलावा ऐसा एक भी पत्रकार नहीं मिला, जिसे हर मीडिया संस्थान या बड़े पत्रकार ने सर माथे पर बिठाया हो लेकिन उसके बावजूद उसने नौकरी या मीडिया से जुड़े किसी भी अन्य फायदे के लिए कभी अपनी विचारधारा, क्रांतिकारी स्वभाव और व्यक्तित्व में एक रत्ती का भी बदलाव न किया हो। मगर अभिषेक ऐसा ही है। मीडिया में सबसे अनूठा और एकमात्र….सिंगल पीस।

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एक से बढ़कर एक नौकरियां उसे लगातार बुलाती भी रहीं, बुलाकर पछताती भी रहीं पर अभिषेक बाबू नहीं बदले।

अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तरह इतनी नौकरियां बदलने के बाद भी अगर अभिषेक नहीं बदले तो इस चुनाव की जीत से भी अभिषेक के बदलने की कोई गुंजाइश मुझे नहीं दिखती। जाहिर है, इसका फायदा अब पत्रकारों और प्रेस क्लब को ही होगा….क्योंकि वहां चुनाव जीत कर भी अभिषेक के न बदलने का सीधा मतलब यही है कि अब वहां के हालात और राजनीति जरूर कुछ न कुछ तो बदलने ही लगेगी।

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बहरहाल, यही उम्मीद है कि सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन में पहला औपचारिक कदम रखकर अभिषेक ने जब सही दिशा पकड़ ही ली है तो कम से कम अब भविष्य में हमें वह इसी क्षेत्र में और बड़ी भूमिकाएं निभाते हुए भी नजर आएंगे। ढेर सारी बधाइयां और शुभकामनाएं…

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