प्रेस क्लब आफ इंडिया के चुनाव में यशवंत हारे, देखें नतीजे

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Yashwant Singh : टोटल 1750 वोट पड़े हैं जिनमें 500 वोटों की गिनती हो चुकी है। इस आधार पर कहें तो सत्ताधारी पैनल क्लीन स्वीप की तरफ है। मैनेजिंग कमेटी के लिए जो 16 लोग चुने जाने हैं उनमें 500 वोटों के आधार पर मेरी पोजीशन 23 नम्बर पर है। चमत्कार की कोई गुंजाइश आप पाल सकते हैं। मैंने तो हार कुबूल कर लिया है। प्रेस क्लब के इस चुनाव में शामिल होकर इस क्लब को गहरे से जानने का मौका मिला जो मेरे लिए एक बड़ा निजी अनुभव है। नामांकन करने से लेकर बक्सा सील होने, बैलट वाली मतगणना देखना सुखद रहा। अब साल भर तैयारी। अगले साल फिर लड़ने की बारी। सपोर्ट के लिए आप सभी को बहुत बहुत प्यार। इतना समर्थन देखकर दिल जुड़ा गया। ये अलग बात है कि जो क्लब के टोटल वोटर है, उनमें बड़ी संख्या में मुझसे और मैं उनसे अपरिचित हूं। साल भर में इन सबसे जुड़ने की कोशिश किया जाएगा और अगली साल ज्यादा प्रोफेशनल तरीके से लड़ा जाएगा।

कल मतगणना शुरू होने के ठीक बाद उपरोक्त स्टेटस यशवंत ने फेसबुक पर डाला था.

Abhishek Srivastava : प्रधानजी को नापसंद लुटियन की दिल्ली से खास खबर- प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के पत्रकारों ने एक स्वर में आरएसएस समर्थित चुनावी पैनल को किया खारिज, यथास्थिति कायम। गौतम-विनय-मनोरंजन का पैनल भारी मतों के अंतर से विजयी। सभी दोस्तों और बड़ों का दिल से शुक्रिया जिन्होंने मुझे और मेरे पैनल को वोट दिया।

मैनेजिंग कमेटी सदस्य के लिए विजयी हुए सत्ताधारी पैनल वाले अभिषेक श्रीवास्तव ने उपरोक्त स्टेटस चुनाव नतीजे आने के बाद पोस्ट किया.

Ashwini Kumar Srivastava : दिल्ली प्रेस क्लब के चुनाव में Abhishek Srivastava और उसके पैनल ने विजयश्री हासिल कर ली है। हालांकि अभिषेक का जैसा विराट व्यक्तित्व, अद्भुत समझ, समाज से गहरा सरोकार, जबरदस्त संघर्षशीलता और अपार लोकप्रियता रही है, उस हिसाब से यह चुनाव या यह जीत उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। मगर मैं जानता हूँ कि प्रेस क्लब और बाकी पत्रकारों के लिए जरूर यह जीत खासी अहम है। जीत की इस खुशी में मुझे एक दुख भी है…और वह है Yashwant Singh के हारने का। यशवंत जी पर भी मैं अपनी किसी अगली पोस्ट में लिखूंगा लेकिन फिलहाल अभी अभिषेक की ही बात करते हैं।

मुझे ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद मैं 2001-02 के उस दौर में अभिषेक से पहली बार मिला था, जब वह आईआईएमसी में मेरे ठीक बाद वाले बैच में पढ़ रहा था। तब उसके बाकी बैचमेट सामान्य आईआईएमसीएन की ही तरह बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों में नौकरी पाने के लिए इस कदर आतुर रहते थे कि किसी भी सीनियर आईआईएमसीएन को पाकर न सिर्फ निहाल हो जाते थे बल्कि तरह तरह के सवाल पूछकर जान भी खा जाते थे।

जबकि अभिषेक इन सबसे अलग था। वह तब भी जेनएयू और अन्य सार्वजनिक मंचों या राजनीतिक/सांस्कृतिक संगठनों में जोरदार तरीके से एक्टिव था। मैं नवभारत टाइम्स में नौकरी कर रहा था और मैं भी संयोग से जेनएयू में जन संस्कृति मंच से जुड़ा हुआ था और मित्रों के साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया करता था।

आईआईएमसी करने के बाद के बरसों में अभिषेक ने शायद ही देश का कोई ऐसा मीडिया संस्थान हो, जहां पर सिलेक्शन प्रोसेस में टॉप में अपनी जगह न बनाई हो और शायद ही कोई ऐसा संस्थान हो, जहां उसने नौकरी का एक साल भी पूरा किया हो। मीडिया की नौकरी उसके लिए और वह नौकरी के लिए बने ही नहीं हैं। टाइम्स ग्रुप में भी वह मेरे साथ कुछ समय रहा। लेकिन उसके अभूतपूर्व क्रांतिकारी स्वभाव ने टाइम्स ग्रुप में संपादकीय विभाग से लेकर मैनेजमेंट तक में जबरदस्त खलबली मचा दी थी। बतौर सीनियर भले ही अभिषेक मुझे हमेशा से सम्मान देता रहा हो लेकिन वहां रहने के दौरान उसने मुझे भी कभी नहीं बख्सा और लगातार मेरी भी गलतियां सार्वजनिक तौर पर अखबार रंग कर बाकी सभी जूनियर-सीनियर्स की तरह खिल्ली उड़ाने के अपने रोजमर्रा के कार्यक्रम में शामिल कर लिया था।

हालांकि उसी दौर में देर रात हम लोग महफिलों में भी साथ ही शरीक भी होते थे। क्योंकि मैंने कभी उसकी इस बात का बुरा ही नहीं माना। वह इसलिए क्योंकि मैं या जो भी शख्स अगर अभिषेक को जानता-पहचानता होगा, तो उसे यह अच्छी तरह से पता होगा ही कि अभिषेक अपने आदर्श, मूल्य और विचारधारा के तराजू पर सबको बराबर तौलता है।

अभिषेक की सबसे खास बात, जिसने मुझे हमेशा ही उसका फैन बनाया है, वह यह है कि अपने 10-12 साल के मीडिया कैरियर में मुझे अभिषेक के अलावा ऐसा एक भी पत्रकार नहीं मिला, जिसे हर मीडिया संस्थान या बड़े पत्रकार ने सर माथे पर बिठाया हो लेकिन उसके बावजूद उसने नौकरी या मीडिया से जुड़े किसी भी अन्य फायदे के लिए कभी अपनी विचारधारा, क्रांतिकारी स्वभाव और व्यक्तित्व में एक रत्ती का भी बदलाव न किया हो। मगर अभिषेक ऐसा ही है। मीडिया में सबसे अनूठा और एकमात्र….सिंगल पीस।

एक से बढ़कर एक नौकरियां उसे लगातार बुलाती भी रहीं, बुलाकर पछताती भी रहीं पर अभिषेक बाबू नहीं बदले। अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तरह इतनी बदलियों के बाद भी अगर अभिषेक नहीं बदले तो इस चुनाव की जीत से भी अभिषेक के बदलने की कोई गुंजाइश मुझे नहीं दिखती। जाहिर है, इसका फायदा अब पत्रकारों और प्रेस क्लब को ही होगा….क्योंकि वहां चुनाव जीत कर भी अभिषेक के न बदलने का सीधा मतलब यही है कि अब वहां के हालात और राजनीति जरूर कुछ न कुछ तो बदलने ही लगेगी।

बहरहाल, यही उम्मीद है कि सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन में पहला औपचारिक कदम रखकर अभिषेक ने जब सही दिशा पकड़ ही ली है तो कम से कम अब भविष्य में हमें वह इसी क्षेत्र में और बड़ी भूमिकाएं निभाते हुए भी नजर आएंगे। ढेर सारी बधाइयां और शुभकामनाएं…

पत्रकार और उद्यमी अश्विनी कुमार श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.



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