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वेब-सिनेमा

पढ़ते रहें भड़ास, लामबंद हो अब उत्पीड़ित-वंचित मीडिया बिरादरी

हम किसी भी कीमत पर इस कारपोरेट मीडिया के तिलिस्म को किरचों में बिखेरना चाहते हैं। मजीठिया के नाम पर धोखाधड़ी से जिन्हें संशोधित वेतनमान के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं हुआ है और अपने अपने दफ्तरों में गुलामों जैसी जिनकी जिंदगी है, बेड़ियां उतार फेंकने की चुनौती वे अब स्वीकार करें। 

 

हम किसी भी कीमत पर इस कारपोरेट मीडिया के तिलिस्म को किरचों में बिखेरना चाहते हैं। मजीठिया के नाम पर धोखाधड़ी से जिन्हें संशोधित वेतनमान के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं हुआ है और अपने अपने दफ्तरों में गुलामों जैसी जिनकी जिंदगी है, बेड़ियां उतार फेंकने की चुनौती वे अब स्वीकार करें। 

 

पांचवां स्तंभ बनाना असंभव नहीं है और असंभव नहीं है चुप्पियां तोड़ना भी। अपनी कलम और उंगलियों के एटम बम को फटने दो और देखते रहो कि मेहनतकशों के खून पसीने से सजे ताश के महल कैसे भरभराकर गिरते हैं। इसी सिलसिले में भड़ास की भूमिका अभूतपूर्व है, जहां मीडिया का रोजनामचा दर्ज होता रहता है राउंड द क्लाक। हमारे युवा साथी यशवंत सिंह ने यह करिश्मा कर दिखाया है।

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लेकिन यथार्थ का खुलासा काफी नहीं होता है दोस्तों, इस यथार्थ को बदलने के लिए एक मुकम्मल लड़ाई जरुरी है। अब रोज रोज पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। जान माल के खतरे बढ़े हैं।क्योंकि हमारी क्रांति सिर्फ आपबीती सुनाने की है। हमें अपने सिवाय किसी की परवाह होती नहीं है।

दावानल इस सीमेंट के जंगल में भी भयंकर है और इस दावानल में वे भी नहीं बचेंगे जो स्वीमिंग पूल में मदिरापान करके मजे ले रहे हैं। आग के पंख होते हैं और फन भी होते हैं आग के। बेहतर हो कि झुलसने से पहले इस कारपोरेट तंत्र को तहस नहस करने की कोई जुगत बनायें। साथी हाथ बढ़ाना। हाथों में हों हाथ, हम सब हो साथ साथ तो देख लेंगे कातिल बाजुओं में आखिर दम कितना है कि हममें से हर किसी का सर कलम कर दें।

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इस देश में प्रकृति और मनुष्य के विरुद्ध जो जनसंहारी अश्वमेध हैं, उसके सिपाहसालार वे तमाम चेहरे हैं, जो मीडियाकर्मियों के खून पसीने से तरोताजा हैं। इस जनसंहार संस्कृति के खिलाफ इस तिलिस्म में कैद जनगण को जगाना तब तक नामुमकिन है, जब हमारी एटम बम बिरादरी कुंभकर्णी नींद से जागती नहीं। जागो दोस्तों। बहरहाल अब हम अपने ब्लागों में मौका मिलते रहने पर भड़ास की खबरों के लिंक भी शेयर करते रहेंगे ताकि कोई बंदा अलग थलग मरे नहीं बेमौत।

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