‘बॉम्बे वेलवेट’ अनुराग कश्यप की भारत में रहते हुए बनायी शायद आखिरी फिल्म होगी क्योंकि इसी महीने वे बोरिया-बिस्तर समेटकर पेरिस शिफ्ट हो रहे हैं। इस लिहाज से दो बातें कही जा सकती हैं। एक तो यह, कि बॉम्बे वेलवेट बंबई को दी गयी उनकी श्रद्धांजलि है। दूसरे, इस फिल्म के बजट और इसकी महत्वाकांक्षी योजना के चलते यह कश्यप के सिनेमाई विकास का पैमाना भी है। मेरे खयाल से इसकी जो भी आलोचना बनेगी, वह फ्रेम ऑफ रेफरेंस के फर्क से पैदा होगी।
यह एक पीरियड फिल्म है जिसे हम 2015 में देख रहे हैं, इसे नहीं भूलना चाहिए। मैं न तो साठ के दशक की बंबई को जानता हूं और न ही मैंने ज्ञान पांडे के ”बंबई फेबल्स” को पढ़ा है। इसलिए मेरे लिहाज से यह एक कठिन सिनेमा का उदाहरण है जो आम से लेकर प्रबुद्ध दर्शक तक को थोड़ा अपाच्य लगेगा।
पता नहीं क्यों, ऐसा लगता है कि अनुराग कश्यप की रचनात्मकता चुक गयी है। इसका सबूत है दुहराव। बॉलीवुड पर करीबी निगाह रखने वाले किसी दर्शक को आप न बताएं कि यह अनुराग की फिल्म है तब भी वह पकड़ लेगा। यही फिल्म की कमज़ोर नस है। वही पुराना इश्क, महत्वाकांक्षा, पैसा, धोखेबाज़ी, पाखंड, हत्या, प्रतिशोध, साजिश, यौन विकृति का मिलाजुला फॉर्मूला, जिसमें इतना नमक भी नहीं है कि आप एक सेकंड रुक कर अपनापा कायम कर सकें। कह सकते हैं कि यह बेहद असम्पृक्त फिल्म है।
फिल्मों के दीवाने वैसे भी इसे छोड़ेंगे नहीं, इसलिए मैं क्या कहूं। एक बात हालांकि ज़रूर खटकती है। वो यह, कि फिल्म की स्क्रिप्ट किसी अवसादग्रस्त मनोस्थिति में लिखी गयी लगती है। अगर अस्पष्टता, मुहावरेबाज़ी और धुंधलापन कोई पैमाना हो, तो मैं No Smoking को इससे बेहतर रचना मानूंगा। अनुराग को वास्तव में बंबई छोड़ देनी चाहिए वरना उन्हें बरबाद होते देर नहीं लगेगी। हो सकता है हवा-पानी बदलने पर ”सत्या” वाला तीखापन आए, ”गैंग्स ऑफ वासेपुर” वाला भदेसपन लौटे और ”अग्ली” वाली चुस्ती दोबारा हासिल हो। फिलहाल तो यह कायदे का आदमी खतम लग रहा है।
अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वॉल से