पहली ख़बर: सत्रह सितम्बर को चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग भारत में आ गये। दूसरी ख़बर: उससे एक दो दिन पहले चीन की सेना के सैनिक लद्दाख में भारतीय सीमा में घुस आये। तीसरी ख़बर: सत्रह सितम्बर को ही अपने देश की आज़ादी के संघर्ष में लगे हुये तिब्बतियों ने दिल्ली में चीन के दूतावास के सामने मोर्चे संभाल लिये। वे माँग कर रहे हैं कि चीन तिब्बत से निकल जाये और उनके देश को आज़ाद करे। चीन के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जब भी भारत आते हैं तो ये तीनों समाचार एक साथ प्रकाशित होते हैं।
किसी समाचार को कितनी महत्ता देनी है, यह या तो समाचार समूह का मालिक तय करता है या फिर उसमें थोड़ी बहुत सरकार की भूमिका भी रहती ही होगी। लेकिन ये तीनों घटनाएँ एक साथ क्यों होती हैं? ख़ासकर चीन के प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति के आने के साथ साथ ही चीन की सेना भी भारतीय सीमा में घुसपैठ क्यों करती है? विदेश नीति संचालित करने की यह चीन की अपनी विशिष्ट शैली है। चीन मामलों के एक सिद्धहस्त विद्वान ने अपनी एक पुस्तक में एक घटना का ज़िक्र किया है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने भी चीन से यही सवाल पूछा था कि चीन भारत में घुसपैठ क्यों करता है?
तो चीन का उत्तर था, केवल प्रतिक्रिया जानने के लिये। इसका अर्थ हुआ कि चीन भारत की प्रतिक्रिया देख समझ कर ही अपनी विदेश नीति, रणनीति व कूटनीति निर्धारित करता है। इस लिये इस बात से चिन्तित होने की जरुरत नहीं है कि चीन के राष्ट्रपति के साथ साथ चीन की सेना भी लद्दाख के चमार क्षेत्र में पहुँच गई है। वहाँ उससे किस प्रकार सुलझना है, भारत की सेना उसमें सक्षम है ही। लेकिन असली प्रश्न यह है कि कुल मिला कर भारत सरकार की प्रतिक्रिया क्या है?
लेकिन इससे पहले संक्षेप में यह जान लेना भी जरुरी है कि भारत का चीन के साथ झगड़ा क्या है और उसका कारण क्या है? वैसे तो चीन और भारत के बीच विवाद का कोई कारण नहीं होना चाहिये था क्योंकि दोनों देशों की सीमा आपस में कहीं नहीं लगती। दोनों के बीच में तिब्बत पड़ता है। लेकिन 1949 में चीन के गृहयुद्ध का अन्त हुआ और देश की सरकार पर माओ के नेतृत्व में चीन की साम्यवादी पार्टी का क़ब्ज़ा हो गया तो चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और धीरे धीरे पूरे तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया जिसके फलस्वरूप वहाँ के शासनाध्यक्ष चौदहवें दलाई लामा को भाग कर भारत में आना पड़ा। उनके साथ लगभग एक लाख और तिब्बती भी भारत में आये।
तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लेने के बाद चीन भारत का पड़ोसी देश बन गया और उसने भारत व तिब्बत के बीच की सीमा रेखा को मानने से इन्कार कर दिया। यह सीमा रेखा मैकमहोन सीमा रेखा कहलाती है और इस पर 1914 में भारत व तिब्बत के बीच सहमति बनी थी। लेकिन चीन इस सीमा रेखा को अमान्य कर चुप नहीं बैठा, उसने 1962 में भारत पर आक्रमण भी कर दिया और उसकी हज़ारों वर्गमील भूमि पर अभी भी क़ब्ज़ा किया हुआ है। इस आक्रमण के बाद दोनों देशों के दौत्य सम्बंध समाप्त हो गये। लेकिन 1975 में आपात स्थिति लागू हो जाने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फिर से चीन के साथ सम्बंध बनाने की शुरुआत की।
परन्तु दोनों देशों के बीच सम्बंधों को बढ़ाने के काम में तेज़ी राजीव गांधी के राज्यकाल में आई और इसमें नटवर सिंह अपनी भूमिका मुख्य मानते हैं। इसका कारण भी वे ख़ुद ही बताते हैं कि राजीव गांधी को विदेश नीति की ज़्यादा समझ नहीं थी। इसका अर्थ हुआ कि राजीव गांधी की अज्ञानता का लाभ उठा कर कुछ लोगों ने विदेश नीति के मामले में पलड़ा चीन के पक्ष में झुकाने की कोशिश की। उसके बाद ही चीन ने भारतीय सीमा में अपनी सेना की घुसपैठ को भारत के प्रति अपनी रणनीति व विदेश नीति के साथ जोड़ना शुरु किया।
अभी तक चीन विदेश नीति के मामले में एजेंडा निर्धारित करने वाला रहा है। भारत चीन द्वारा किये जाने वाले काम पर प्रतिक्रिया जिताने का काम करता रहा है। उदाहरण के लिये चीन अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा घोषित करता है तो भारत उसे बयान देकर नकारता है। चीन अरुणाचल के लोगों को भारतीय पासपोर्ट पर नहीं बल्कि एक अलग काग़ज़ पर बीजा देता है तो भारत उसे अमान्य कर देता है। चीन ने जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान द्वारा क़ब्ज़ाये गये भू भाग के एक हिस्से को पाकिस्तान से ले लिया है और अप्रत्यक्ष रुप से वह जम्मू कश्मीर मामले में भी एक पक्ष बनने का प्रयास करता है तो भारत उसे बयान से नकारता है।
गिलगित बल्तीस्तान में चीन की सेना किसी न किसी रुप में बैठ गई है। चीन ब्रह्मपुत्र पर तिब्बत के क्षेत्र में बाँध बना रहा है। भारत इधर उधर का बयान देकर महज़ अपनी चिन्ता जता देता है। लेकिन जब तिब्बत के भीतर सौ से भी ज़्यादा भिक्षु और छात्र अहिंसक तरीक़े से स्वतंत्रता संघर्ष करते हुये आत्मदाह करते हैं तो भारत मानवीय अधिकारों के इस हनन पर चिन्ता भी ज़ाहिर नहीं करता। परन्तु जब चीन की सेना भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करती है तो महज़ बयान देने से तो काम नहीं चल सकता। उस वक़्त भारत सरकार की प्रतिक्रिया रहती है कि तुम भी पीछे हट जाओ और हम भी पीछे हट जायेंगे।
यही चीन के अनुकूल है। वह तो भारतीय क्षेत्र से पीछे हट कर अपने पूर्ववत स्थान पर लौटता है लेकिन भारत के सैनिक अपने ही क्षेत्र में चीन के तुष्टीकरण के लिये पीछे हट जाते हैं। इस तरीक़े से हम चीन से शान्ति ख़रीदते हैं। द्विपक्षीय बातचीत में भारत तिब्बत का प्रश्न तो कभी उठाता ही नहीं, सीमा विवाद पर भी उसके शब्द नपे तुले ही होते हैं ताकि रिकार्ड भी बना रहे और चीन भी संतुष्ट रहे। यह भारत सरकार की अब तक की चीन को लेकर विदेश नीति व रणनीति का सारा संक्षेप रहा है।
लेकिन दिल्ली में पहली बार पूर्ण बहुमत से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है और उसका नेतृत्व नरेन्द्र मोदी ने संभाला है। नई सरकार के आने से लगता है चीन के मामले में पहली बार भारत एजेंडा सेटर की भूमिका में आया है। नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में निर्वाचित तिब्बती सरकार के लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गये प्रधानमंत्री डॉ. लोबजंग सांग्ये को बुलाया ही नहीं गया बल्कि वहाँ उन्हें सम्मानजनक स्थान भी दिया गया। भारत का मीडिया इस नीति परिवर्तन को कितना समझ पाया और कितना नहीं, इस पर बहस करने की जरुरत नहीं है लेकिन चीन नीति में बदलाव के इस सूक्ष्म संकेत को तुरन्त समझ गया और उसने इस पर अपना विरोध भी दर्ज करवाया।
इसी प्रकार चीन के राष्ट्रपति के भारत आगमन से पूर्व भारत के प्रधानमंत्री को किन किन देशों की यात्रा कर लेनी चाहिये, नरेन्द्र मोदी ने इसका चयन भी अत्यन्त सावधानी व दक्षता से किया। कूटनीति में बहुत सी बातचीत संकेतों के माध्यम से ही की जाती है। नरेन्द्र मोदी ने उन संकेतों का प्रयोग बहुत ही कुशलता से किया। चीन के राष्ट्रपति हिन्दोस्तान में आयें उससे पहले मोदी भूटान, नेपाल और जापान गये। भूटान व नेपाल को चीन लम्बे अरसे से विभिन्न मुद्राएँ बना बना कर अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रहा है। उसमें उसे किसी सीमा तक सफलता भी मिली। लेकिन मोदी की काठमांडू और थिम्पू में हाज़िरी ने चीन को स्पष्ट कर दिया कि इन क्षेत्रों को आधार बना कर भारत की घेराबन्दी की अनुमति नहीं दी जा सकती।
मोदी के माध्यम से शायद पहली बार भारत ने इन देशों में अपने सांस्कृतिक आधारों को प्राथमिकता दी। इससे पहले भारत सरकार सांस्कृतिक सम्बंधों को साम्प्रदायिकता ही मान कर चलती थी। लेकिन चीन को साफ़ और स्पष्ट संकेत मोदी की जापान यात्रा से ही मिले। चीन का जापान के साथ भी क्षेत्रीय सीमा को लेकर विवाद चलता रहता है। चीन को सबसे ज़्यादा चिन्ता जापान से ही रहती है, ख़ास कर तब जब जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध में तबाह हो जाने के बाद भी दुनिया की अर्थ शक्तियों में अपना एक मुक़ाम हासिल कर लिया। जापान में जाकर बोला गया एक एक शब्द, चीन के लिये अपने ख़ास मायने रखता है।
वहाँ जाकर मोदी ने चीन का नाम लिये बिना स्पष्ट कहा कि कुछ देश तो विकासवादी हैं और कुछ विस्तारवादी हैं। विस्तारवादी भी ऐसे जो सागर में भी अपनी धौंस ज़माना चाहते हैं। चीन की सरकारी अख़बार ने भी संकेत किया कि मोदी का संकेत चीन की ओर ही था। चीन वियतनाम और चीन के बीच के दक्षिण चीन सागर के अन्तर्राष्ट्रीय जल को भी अपना मान कर दादागिरी दिखा रहा है। वियतनाम ने इसका विरोध किया। उसने उस क्षेत्र में तेल तलाशने का कांन्ट्र्क्ट भारत के साथ किया। चीन इस का विरोध कर रहा है। नरेन्द्र मोदी ने इसका दो तरह से उत्तर दिया। जापान में विस्तारवादी का संकेत करने वाला बयान देकर और इधर जब चीन के राष्ट्रपति भारत आये तो उधर भारत के राष्ट्रपति को वियतनाम भेज कर। चीन इन संकेतों के अर्थ नहीं लगायेगा, ऐसी कल्पना करना बेमानी होगा।
इतना सारा होम वर्क कर लेने के बाद नरेन्द्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति को भारत बुलाया है। पहली बार विश्व देख रहा है कि भारत की इस पहल पर चीन की क्या प्रतिक्रिया है? नहीं तो आज तक साँस रोक कर इसी बात का इंतज़ार होता था कि चीन क्या एक्शन करता है। कुछ लोग कह सकते हैं कि चीन ने तो लद्दाख में घुसपैठ कर अपनी प्रतिक्रिया जता दी है। वास्तव में यह चीन की प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि काँठ कि हांडी को एक बार फिर चूल्हे पर चढ़ाने का प्रयास है। वह भी इस लिये कि भारत ने पहली बार साफ़ स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा कि है कि उत्तरी सीमा पर वह अपना संरचनात्क व सुरक्षात्मक ढाँचा मज़बूत करेगा।
इस बार भारत का रवैया सुरक्षात्मक नहीं बल्कि अपनी सीमाओं को लेकर स्पष्ट व प्रतिबद्धात्मक दिखाई देता है। चीन भारत की इस नई विदेश नीति की भाषा को कितना समझ पाता है, यह तो बाद की बात है लेकिन इतना तो वह समझ ही गया लगता है कि भारत के नये निज़ाम की भाषा नई है, भारत के हितों की भाषा है, के. एम पणिक्कर के युग की वह भाषा नहीं है जो दिल्ली में बैठ कर भी चीन के हितों और उसकी नाराज़गी को लेकर अपना व्याकरण तय करती थी।
भारत की इस पहल से पहली बार परिदृष्य बदला है। ऐसा भी दिखाई देने लगा है कि जापान और चीन में भारत में निवेश करने को लेकर होड़ लग गई हो। जापान ने जितनी धनराशि के निवेश की घोषणा की है, चीन ने उससे लगभग तीन गुना ज़्यादा धनराशि निवेश करने का इरादा जताया है। चीन और भारत के बीच जो व्यापार होता है, उसके बीच एक संतुलन अवश्य बनना चाहिये। चीन का घटिया और सस्ता माल भारत के लघु उद्योंगों को तबाह कर रहा है, उसको लेकर भी पहल होनी ही चाहिये।
सब समस्याओं का हल संभव है, लेकिन तभी यदि भारत चीन के साथ बराबरी के स्तर पर बैठ कर बातचीत करता है। नरेन्द्र मोदी के युग में यही हुआ है। पहली बार सीमा को लेकर कोई ठोस पहल होने की संभावना बनी है। इसका स्वागत किया जाना चाहिये। भारत सरकार को यह भी ध्यान में रखना हेगा कि 14 नबम्वर 1964 में संसद ने सर्वसम्मति से संकल्प पारित किया था कि चीन से क़ब्ज़ाये गये भारतीय भू भाग की एक एक ईंच भूमि छुड़ाई जायेगी। मोदी ने शायद इसी लिये कहा है कि चीन के राष्ट्रपति की यह यात्रा ईंच से शुरु करके मीलों तक जा सकती है। लेकिन क्या यह वही 1964 के संकल्प वाला ईंच है?
डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री