उम्मीद नहीं थी कि इतिहासकार राम चन्द्र गुहा आरएसएस की खिलाफत के लिए इतना कमजोर दांव खेलेंगे। उन्हें दूरदर्शन पर मोहन भागवत के भाषण दिखाने पर आपत्ति है। वे कहते कि आरएसएस कम्यूनल है। लगे हाथ मोहन भागवत की तुलना इमामों और पादरियों से कर बैठे। तो क्या वे कहना चाहते कि इस देश के इमाम और पादरी कम्यूनल होते हैं?
साल 1987 डीडी पर रामानंद सागर का रामायण सीरियल प्रसारित हुआ था। प्रबुद्ध लोगों को हैरानी तो हुई पर उसे देखने की होड़ सी मच गई। उधर वामपंथियों ने देश भर में इस प्रसारण की खिलाफत की थी। इन्होने चाणक्य सीरियल के प्रसारण का भी तल्ख विरोध किया था। साल भर पहले ही शाहबानो प्रकरण हुआ था तब वे सहम कर विरोध जता पाए थे। रामायण सीरियल ने मौका दिया और पिल पड़े डीडी पर। उस दौर में टीवी चैनलों के नाम पर डीडी ही सब कुछ था लिहाजा विरोध के लिए वजहें थीं।
अब जबकि निजी चैनलों की बाढ़ है और गला-काट प्रतिस्पर्धा है, डीडी के लिए प्रतिस्पर्धा में बने रहना मुश्किल हुआ जा रहा है। ऐसे में डीडी का इस पैमाने पर विरोध उसे बांध कर नहीं रख देगा? दूरदर्शन के लिए दोहरी आफत है। सरकारें नहीं चाहती कि ये संस्था प्रोफेशनल तरीके से काम करे और अब विरोधी दलों के अलावा इतिहासकार, मीडिया पंडित और बुद्धिजीवी यही मंशा दिखा रहे हैं।
चलिए इन विरोधियों की बात मान ली जाए और फिर याद किया जाए मोहन भागवत का हिन्दू थ्योरी वाला भाषण। निजी चैनलों ने इसकी आलोचना को प्रमुखता से दिखाया, क्या डीडी के दर्शकों को इस तरह के डिस्कशन को देखने का हक नहीं देना चाहते ये विरोधी। क्या डीडी के दर्शकों को इसके लिए निजी चैनलों की ओर रूख करने के लिए मजबूर करना चाहते वे।
फर्ज करिए भागवत का वो भाषण डीडी का एक्सेक्लूसिव होता तो क्या विरोध करने वाले मोहन भागवत के उस भाषण पर कोई बवाल नहीं करते, क्या तब वो खबर नहीं होती? क्या मान लिया जाए कि विरोध करने वाले आगे से डीडी की स्वायतता की चर्चा नहीं करेंगे और न ही प्रोफेशनल होने के लिए कहेंगे?
रामचन्द्र गुहा को याद रखना चाहिए कि उन जैसों की वजह से ही मोहन भागवत पहले भी खबर थे और आगे भी बने रहेंगे।
संजय मिश्र