अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-
ईश्वर क्या है? वेद कहते हैं नेति नेति यानी कि यह भी नहीं है… यह भी नहीं है… अर्थात ईश्वर को जानने की कोशिश में हर धर्म की मान्यताओं, हर आध्यात्मिक विचार, हर दार्शनिक विचार, हर जवाब का खंडन करते जाइए, ईश्वर मिल जायेगा।
शुरू करिए अपने ही धर्म की मान्यताओं से। ईश्वर क्या देवी – देवताओं के रूप में है? यह भी नहीं है। क्या शून्य है? यह भी नहीं है। ईश्वर क्या अंतरात्मा है? यह भी नहीं है।
फिर आइए अन्य धर्मों पर। ईश्वर क्या स्वर्ग में रहता है? यह भी नहीं है। ईश्वर क्या स्वर्ग से भी ऊपर किसी लोक में रहता है? यह भी नहीं है। ईश्वर क्या निराकार है? यह भी नहीं है।
जब आपके पास इस जगत की गोचर – अगोचर यानी दिखने और न दिखने वाली हर वह चीज ईश्वर से तुलना करने के लिए खत्म हो जाएगी, अर्थात आपका मन भी अपनी पूरी क्षमता से सोचने के बाद ईश्वर की तुलना किसी से नहीं कर पाएगा तो भी जो बचेगा, वह ईश्वर नहीं होगा।
फिर आप पूछेंगे कि ईश्वर क्या है? फिर वेद से आपको वही जवाब मिलेगा कि नेति नेति।
वेद यह भी कहते हैं कि उस पूर्ण से इस पूर्ण को निकाल दोगे तो भी पूर्ण ही बचेगा। अर्थात यह जगत जहां तक आप कल्पना कर सकते हैं, और इसके भीतर या इसके बाहर जहां तक आप ईश्वर के होने की कल्पना कर सकते हैं, इनको मिलाकर एक पूर्ण बनता है। लेकिन इस पूर्ण को हटा दिया जाएगा तो भी ईश्वर यानी पूर्ण ही बचेगा।
फिर जब आप पूछेंगे कि क्या यही ईश्वर है तो वेद फिर यही जवाब देंगे कि नेति नेति।
वेद यह भी कहते हैं कि एक परमशांति है अर्थात जहां किसी भी तरह की ध्वनि नहीं है। उस परम शांति से योगी अपने ध्यान में एकाकार हो जाते हैं। तो क्या वह परम शांति ही ईश्वर है, वेद कहेंगे नेति नेति।
इसीलिए ईश्वर के स्वरूप या उसके होने न होने पर गौतम बुद्ध भी सदैव मौन रहे। लोग अक्सर यह भ्रम पाल लेते हैं कि बौद्ध लोग नास्तिक होते हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं। जबकि बुद्ध ने कभी यह कहा ही नहीं कि ईश्वर नहीं है। वह मौन हो जाते थे। क्या बुद्ध ईश्वर को नहीं जान पाए थे इसलिए मौन हो जाते थे?
नहीं। बुद्ध ईश्वर पर वेदों के नेति नेति को मौन होकर व्यक्त करते थे। उन्होंने जो मार्ग बताया, उसे उन्होंने ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग नहीं कहा बल्कि जीवन जीने का मार्ग बताया। वह इसलिए कि ईश्वर जब यह भी नहीं है, यह भी नहीं है तो उस तक कोई पहुंचेगा कैसे? इंसान तो जीवन जीने का तरीका सीख जाए, वही बहुत है। क्योंकि उत्तम कर्मों और विचार से इंसान उसी परमशांति को प्राप्त कर लेगा, जहां तक इंसान की सोच पहुंचने के बाद फिर ईश्वर की तुलना के लिए कोई और विचार नहीं खोज पाती।
इसलिए बुद्ध ने अपने मार्ग से परमशांति और मोक्ष यानी जन्मों के चक्र से आत्मा की मुक्ति को लक्ष्य बनाया, न कि ईश्वर को।
परंतु हिंदू धर्म में उसी परम शांति को परम ब्रह्म मानकर उसी को लक्ष्य बनाया गया। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि भले ही ईश्वर को जान पाना मानव मन के बस की बात नहीं लेकिन उसी परमशांति को निर्गुण निराकार अकाल अजन्मा अविनाशी अकल्पनीय अवर्णनीय परमब्रह्म और ईश्वर मानकर ध्यान, तप या ध्वनि रूप में ओमकार को ईश्वर मानकर उसके जप ध्यान या किसी साकार रूप को ईश्वर मानकर उसकी पूजा-जप-अनुष्ठान- भक्ति आदि विभिन्न मार्गों से इंसान उसी परमशान्ति अर्थात परमब्रह्म में विलीन हो कर जन्मों के चक्र से मुक्ति पा जाता है, जिसे बौद्ध धर्म में बुद्ध के मार्ग पर चलकर बुद्धत्व प्राप्त करना कहा गया है।