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साहित्य

पत्रकार और कला समीक्षक आलोक पराडकर की पुस्तक ‘कला कलरव’ का लोकार्पण

साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार बनाती हैं : वीरेन्द्र यादव

हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा है कि साहित्य -संस्कृति की समाजोन्मुख परम्परा और प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि को अपना कर ही आज के आसन्न खतरों का प्रतिवाद किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बाजारवाद के सामने घुटना टेक देने की बजाय उससे मुकाबला करने की जरूरत है। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार  बनाती हैं। सांस्कृतिक पत्रकारिता का दायित्व है कि वह साहित्य -संस्कृति को खतरों के प्रति सचेत करती रहे।

<p><span style="font-size: 18pt;">साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार बनाती हैं : वीरेन्द्र यादव</span></p> <p>हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा है कि साहित्य -संस्कृति की समाजोन्मुख परम्परा और प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि को अपना कर ही आज के आसन्न खतरों का प्रतिवाद किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बाजारवाद के सामने घुटना टेक देने की बजाय उससे मुकाबला करने की जरूरत है। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार  बनाती हैं। सांस्कृतिक पत्रकारिता का दायित्व है कि वह साहित्य -संस्कृति को खतरों के प्रति सचेत करती रहे।</p>

साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार बनाती हैं : वीरेन्द्र यादव

हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा है कि साहित्य -संस्कृति की समाजोन्मुख परम्परा और प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि को अपना कर ही आज के आसन्न खतरों का प्रतिवाद किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बाजारवाद के सामने घुटना टेक देने की बजाय उससे मुकाबला करने की जरूरत है। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति को हथियार  बनाती हैं। सांस्कृतिक पत्रकारिता का दायित्व है कि वह साहित्य -संस्कृति को खतरों के प्रति सचेत करती रहे।

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श्री यादव रविवार को वाराणसी में विश्व रंगमंच दिवस पर पत्रकार और कला समीक्षक आलोक पराड़कर की पुस्तक “कला कलरव” के लोकार्पण के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में विचार व्यक्त कर रहे थे। पुस्तक में आलोक पराडकर द्वारा पत्र-पत्रिकाओँ में कला-संस्कृति पर लिखे गए लेखों, टिप्पणियों का संकलन है। पराडकर स्मृति भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में श्री यादव ने कहा कि इन दिनों पत्र पत्रिकाओं में साहित्य और संस्कृति के स्पेस का सिकुड़ना और विज्ञापन की लकदक की केन्द्रीयता गंभीर अभिरुचियों के समक्ष एक बड़ा संकट है। संस्कृति में मिले जुले जीवन शैली की जो चाहत है वह आज के समय में छिन्न भिन्न होते समाज को संवारने और बचाने का एक कारगर माध्यम सिद्ध हो सकती है।

उन्होंने कहा कि अफसोस की बात है कि प्रेमचंद ने संस्कृति के साम्प्रदायिक होने की जो चिंता प्रकट की थी वह आज विकराल रूप में हमारे सामने है। आलोचना पर महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके और कई पत्र पत्रिकाओं के स्तंभकार रहे वीरेन्द्र यादव ने कहा कि “कला कलरव” के माध्यम से सांस्कृतिक पत्रकारिता के पराभव को और साहित्य-संस्कृति की दुनिया में बाजार के बढ़ते दुष्परिणामों को रेखांकित किया गया है। यह पुस्तक आलोक पराड़कर के गहरे सांस्कृतिक सरोकारों और चिन्ता का परिणाम है।

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समारोह की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ रंग अध्येता कुंवरजी अग्रवाल ने कहा कि सांस्कृतिक साहित्यिक पत्रकारिता की समृद्ध परंपरा रही है। काशी की पत्रकारिता ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन आज हिन्दी की सांस्कृतिक पत्रकारिता में गंभीरता का अभाव दिखता है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता अपने तात्कालिक महत्व के बावजूद एक अत्यन्त गंभीर दायित्व निभाती है। वह अपने दौर की कलाओँ का दस्तावेजीकरण करती है।

पुस्तक के लेखक आलोक पराड़कर ने कहा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता का कार्य केवल कला गतिविधियों की सूचना देना भर नहीं है बल्कि उनकी श्रेष्ठता और सरोकार को परखना भी है। पत्र पत्रिकाओं में सांस्कृतिक पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण दायित्व है और इसे संस्थान और पत्रकार दोनों ही स्तरों पर गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है।  आरम्भ में समारोह की आयोजक संस्था सेतु सांस्कृतिक केन्द्र के सलीम राजा ने राष्ट्रीय नाट्य आन्दोलन की लम्बी यात्रा की चर्चा की। इस अवसर पर जितेन्द्र नाथ मिश्र, नरेन्द्र आचार्य, दयानन्द, कुमार विजय, अजय उपासनी सहित कई प्रमुख संस्कृतिकर्मियों  ने विचार व्यक्त किए। संचालन प्रतिमा सिन्हा ने किया।

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लोकार्पण की तस्वीर देखने के लिए नीचे क्लिक करें…

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