खबरों में बने रहने की कला कोई सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू से सीखे। एक चुंबक की तरह वे हर एक-दो सप्ताह में किसी न किसी विवाद को आकर्षित कर लेते हैं। इस विवादप्रियता ने न्यायाधीश के दायित्व से सेवानिवृत्त होने के बाद भी उन्हें सार्वजनिक जीवन से ओझल नहीं होने दिया। कई बार वे खरी बात कह जाते हैं। ऐसी, जो शायद सच है और जिसे कहने का साहस किसी और ने अब तक नहीं दिखाया। उनकी छवि एक ईमानदार जज की रही है। लेकिन रिटायरमेंट से पहले और रिटायरमेंट के बाद उनके ज्यादातर सार्वजनिक बयान कभी मनोरंजक तो कभी विस्फोटक होते रहे हैं। प्रायः बहुत बड़े मुद्दों पर दिए जाने वाले ये बयान उनकी निजी मान्यताओं और पूर्वग्रहों पर आधारित होते हैं- ऐसे बातें जो हम आपसी बातचीत में अनायास ही कह जाते हैं लेकिन जिन्हें सार्वजनिक रूप से कहा जाना उचित नहीं है। कम से कम देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश रहे व्यक्ति के लिए जिसे इस बात का अच्छी तरह अंदाजा होना चाहिए कि लक्ष्मण रेखा कहाँ है।
महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर उनकी हालिया टिप्पणियाँ उस तमाम ज्ञान, बौद्धिकता और समृद्ध पृष्ठभूमि का मजाक उड़ाती हुई प्रतीत होती हैं। इस बार उन्होंने वहाँ चोट की है जहाँ दर्द ज्यादा होता है। हमारे राष्ट्रीय गौरव को आघात पहुँचाया है। उनके बयान का विरोध सिर्फ भावनात्मक कारणों से नहीं किया जा सकता। सबको अपने विचार प्रकट करने की आजादी है लेकिन जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर रहे व्यक्ति को इतनी समझबूझ तो जरूर दिखानी चाहिए कि वह किस स्थान पर कैसी बात कह रहा है। क्या मार्कंडेय काटजू इतने बड़े व्यक्ति हो गए हैं कि वे देश की आजादी के लिए अपना जीवन होम करने वाले व्यक्तित्वों पर अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर अपमानजनक टिप्पणियाँ करने के लिए स्वतंत्र हों? गाधीजी और नेताजी दोनों ने अलग किस्म की लड़ाई का नेतृत्व किया। उन्होंने हर वह कदम उठाया जो हमारी आजादी की लड़ाई को कामयाबी की तरफ ले जाने में मदद करे। दोनों के ही रास्ते अलग थे लेकिन लक्ष्य उनका एक था- स्वतंत्रता। मार्कंडेय काटजू, आप उनके तरीकों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी देशभक्ति और सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाने वाला कद आपका नहीं है।
क्या मार्कंडेय काटजू इतने बड़े व्यक्ति हो गए हैं कि वे देश की आजादी के लिए अपना जीवन होम करने वाले व्यक्तित्वों पर अपनी आरामकुर्सी पर बैठकर अपमानजनक टिप्पणियाँ करने के लिए स्वतंत्र हों? गाधीजी और नेताजी दोनों ने अलग किस्म की लड़ाई का नेतृत्व किया। उन्होंने हर वह कदम उठाया जो हमारी आजादी की लड़ाई को कामयाबी की तरफ ले जाने में मदद करे। दोनों के ही रास्ते अलग थे लेकिन लक्ष्य उनका एक था- स्वतंत्रता। मार्कंडेय काटजू, आप उनके तरीकों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी देशभक्ति और सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाने वाला कद आपका नहीं है।
गांधीजी और नेताजी भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में करोड़ों लोगों के आदर्श हैं लेकिन उनके साथ असमहति रखने पर प्रतिबंध नहीं है। उनसे तथा उनके तौर तरीकों से असहमत व्यक्ति भी कुछ लाख तो अवश्य होंगे। खुद गांधीजी भी आज होते तो उन्होंने अपने आलोचकों को निर्बाध अपने विचार रखने की आजादी दी होती। आखिरकार उनके अपने दौर में भी तो आलोचकों की कमी नहीं थी। ऐसे ही एक आलोचक की गोली के वे शिकार भी हुए। मार्कंडेय काटजू जैसे लोग उनके योगदान पर बहस छेड़ने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन यह एक सार्थक और अर्थपूर्ण बहस होनी चाहिए, आपके निजी पूर्वग्रहों और कुंठाओं की अभिव्यक्ति का मंच नहीं। यहाँ अपमान सिर्फ दो व्यक्तियों का अपमान नहीं है। वह उस देश का और उन करोड़ों नागरिकों की आस्था का भी अपमान है जो उन्हें महापुरुष के रूप में देखते हैं। हालांकि यह बात अलग है कि श्री काटजू देश के 90 फीसदी नागरिकों को पहले ही बेवकूफ करार दे चुके हैं।
यह असामान्य नहीं है कि मार्कंडेय काटजू के बयानों की आधिकारिक निंदा संसद के दोनों सदनों में की गई। हमारे संवैधानिक तंत्र में जिम्मेदार पद पर रहे व्यक्ति के लिए इससे बड़ी जहालत की बात शायद ही कोई हो। लेकिन इसके बाद उनकी ओर से जो अहंकारपूर्ण प्रतिक्रिया आई वह इस बात की प्रतीक है कि राष्ट्रीय नायकों ही नहीं, श्री काटजू हमारे संसदीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं की अवमानना करने के स्तर पर भी जा सकते हैं। उन्होंने राज्यसभा में अपनी निंदा में पास किए गए प्रस्ताव की प्रतिक्रिया करते हुए अपने फेसबुक पेज पर टिप्पणी की- “राज्यसभा को एक विनम्र सलाह। वाह, क्या कमाल की खबर है! राज्यसभा ने मेरी निंदा करते हुए प्रस्ताव पास किया है। लेकिन यही काफी नहीं है। राष्ट्रपिता कहलाने वाले उस फर्जी व्यक्ति और जापानी फासिस्टों के उस एजेंट के बारे में मैंने जो कुछ कहा है उसके लिए मुझे सजा भी दी जानी चाहिए। राज्यसभा के सदस्यों के पास विचारों की कमी पड़ गई दिखती है इसलिए क्या मैं उन्हें सुझाव दे सकता हूँ कि भारत लौटने पर मुझे गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए और फांसी पर लटका दिया जाना चाहिेए।”
अगर दोनों महापुरुषों के बारे में टिप्पणियों के बाद श्री काटजू की बौद्धिकता के बारे में जरा भी आस्था बची रह गई हो तो उन्होंने राज्यसभा पर टिप्पणी कर उसे भी खत्म कर लिया। आश्चर्य होता है कि ऐसा व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश था? जिसके मन में हमारी व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति इतना अनादर भरा हुआ हो वह कैसे इतने वर्षों तक इतने महत्वपूर्ण पद पर काम करता रहा होगा? क्या उन्हें इस बात का अनुमान नहीं है कि देश की संसद में पास किए जाने वाले निंदा प्रस्ताव का क्या अर्थ है? मुझे आश्चर्य है कि राज्यसभा ने उनकी टिप्पणियों का संज्ञान क्यों नहीं लिया जो हमारे लोकतंत्र में सर्वोच्च है- कार्यपालिका, न्यायपालिका से पर और यहाँ तक कि संविधान को भी बदलने में सक्षम! हमारे सांसद उनके स्तर पर उतरने के लिए तैयार नहीं रहे होंगे। लेकिन कम से कम ऐसे व्यक्ति को एक कड़ा संदेश तो दिया जाना चाहिए था, खासकर यह जानते हुए कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के पूर्व सदस्य की अवमाननाकारी टिप्पणियों का देश भर में संदेश जाता है!
श्री काटजू की विवादप्रियता की क्या कहिए! वे देश के 90 फीसदी लोगों को बेवकूफ मानते हैं। अस्सी फीसदी हिंदुओं और अस्सी फीसदी मुसलमानों को सांप्रदायिक करार देते हैं। उनका शोध कहता है कि द्रविड़ लोग भारत में विदेशी आव्रजक हैं। भ्रष्टाचार के दोषियों को वे ‘निकटतम लैंप पोस्ट’ से लटकाकर फाँसी दिए जाने की बात करते हैं (भगवान का शुक्र है कि न्यायपालिका में उनकी मौजूदगी के दौरान कोई भ्रष्ट अफसर इस किस्म के फैसले का शिकार नहीं हुआ) सलमान रशदी को ‘कमजोर लेखक’ मानना उनकी निजी पसंद-नापसंद पर निर्भर करता है लेकिन आतंकवादी संगठन उल्फा का उग्रवादी होना उनकी नजर में कोई अपराध नहीं है। वे कह चुके हैं कि नेताओं के ‘अनुचित आदेशों’ का पालन करने वाले अफसरों के खिलाफ हिटलर की शैली में सामूहिक मुकदमे चलाकर सजा दी जानी चाहिए। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ‘धनानंद’ की उपमा देते हुए कहा था कि वे मीडिया का गला घोंटने पर उतारू हैं। विडंबना देखिए कि ऐसा व्यक्ति प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का चेयरमैन था जो यह मानता था कि ज्यादातर भारतीय पत्रकार कम पढ़े लिखे हैं और बिना पेशेवर डिग्री के किसी को पत्रकार बनने की छूट नहीं होनी चाहिए। ऐसा कहते हुए उन्होंने पत्रकारिता की उन लाखों हस्तियों के प्रति अनभिज्ञता जाहिर की जिन्होंने कोई औपचारिक डिग्री नहीं ली थी लेकिन पत्रकारिता और समाज को बड़ा योगदान दिया।
श्री काटजू क्या हमेशा दूसरों पर नुक्ताचीनी करते रहेंगे, औरों की आलोचना करते रहेंगे, अन्य लोगों को छोटा दिखाते रहेंगे या कभी अपने बारे में भी सोचेंगे? आखिरकार इतना समझदार और बेहद पढ़ा-लिखा व्यक्ति जो देश के हर व्यक्ति के बौद्धिक स्तर और महापुरुषों के नैतिक-राजनैतिक स्तर का आकलन करने में सक्षम हो कभी यह क्यों नहीं सोचता कि क्यों उसके बयान बार-बार नया विवाद खड़ा करते हैं? क्या उनकी बौद्धिकता का स्तर इतना अधिक है कि इस देश के औसत बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, पत्रकार और आम लोग उसे समझने का माद्दा न रखते हों? या शायद उनके बयानों में ही कहीं कोई कसर हो? वे इस बात को लेकर प्रायः आत्ममुग्ध रहते हैं कि उनमें ‘सच’ बोलने का साहस है। लेकिन देश के कितने लोग उनके सच से सहमत होंगे और अगर वे नहीं है तो क्या श्री काटजू को अपनी सोच या अभिव्यक्ति में कहीं कोई कसर दिखाई नहीं देती? अब तक अपने दर्जनों विवादास्पद बयानों पर उन्होंने शायद ही कभी अफसोस जताया हो। हाँ, 90 फीसदी हिंदुस्तानियों को बेवकूफ करार देने के बाद मचे विवाद ने उन्हें ज़रूर अपने अहंकार से बाहर आने के लिए मजबूर किया था। तब उन्होंने कहा था कि ‘बार-बार लोग मेरा ध्यान इस बात की ओर खींचते रहे हैं कि मैं जो भाषा इस्तेमाल करता हूँ वह कठोर है। इसलिए अगर किसी की भावनाएँ आहत हुई हों तो मैं क्षमा चाहता हूँ।’ कितना अच्छा हो कि श्री काटजू आगे कोई भी विवादित बयान देने से पहले अपनी इसी टिप्पणी को याद कर लें। हालाँकि मुझे नहीं लगता कि राष्ट्रपिता और नेताजी को इस तरह की कोई खेदपूर्ण टिप्पणी नसीब होगी। शायद हम सब हिंदुस्तानी श्री काटजू के लायक आदर्श देश के नागरिक बनने योग्य नहीं हैं। यूँ दूसरे तरीके से सोचें तो शायद श्री काटजू ही हम सबके बीच मिसफिट हैं? इस सवाल का जवाब उनसे बेहतर कौन दे सकता है?
(‘प्रभासाक्षी’ से साभार)