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सुख-दुख

दुर्भाग्यवश ज़्यादातर मीडिया वाले कुछ और करने की हालत में ही नहीं हैं!

विवेक सत्य मित्रम-

उम्र के चालीसवें पड़ाव पर पहुँच चुके हिंदी के पत्रकार हर जगह से निकाले जा रहे हैं या फिर नौकरी जाने के ख़तरे में जी रहे हैं। जिस उम्र में उनकी ज़रूरतें सबसे ज़्यादा हैं, ऊर्जा कम हो चुकी है, उनके पास विकल्प नहीं हैं।

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होम लोन/ कार लोन, बच्चों की पढ़ाई और रोग/दुख के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे हैं कि कुछ नए प्रयोग भी नहीं कर सकते। डिजिटल मीडिया मे 30 के ऊपर वालों के लिए कोई जगह नहीं बची है। ख़ालिस पत्रकारिता के दम पर यूट्यूब और वेबसाइट के ज़रिए कमाई करना आसान नहीं है। उसके लिए इस तरफ़ या उस तरफ़ का प्रोपेगेंडा करना होगा। वो भी सबके वश की बात नहीं। फ्रीलांस काम करने वालों को मेनस्ट्रीम अख़बार एक आर्टिकल के लिए 500 से 1000 रूपये देने में रोने लगते हैं।

पब्लिशिंग हाउस अनुवाद के लिए हिंदी वालों को 50 पैसे से लेकर 1 रूपये तक प्रति शब्द का पारिश्रमिक देते हुए अहसान जताते हैं। ऐसी स्थिति में काम कर रहे हिंदी पत्रकार से पत्रकारिता और नैतिकता जैसे सवाल करते हुए भी शर्म आती है। सिर्फ़ दुख होता है इनके बारे में सोचकर।

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सच कहूँ तो कोई विकल्प भी नहीं दिखता क्योंकि इनमें से ज़्यादातर लोग इस पेशे में आख़िरी विकल्प के तौर पर आए। बहुतों को अंग्रेज़ी तक नहीं आती। इनमें से एक बड़ी जमात ने कभी तकनीक सीखने की भी ज़हमत नहीं उठाई। और ज़्यादातर ने समय रहते कभी किसी विकल्प के बारे में नहीं सोचा।

कई मित्र मुझसे सलाह माँगते हैं। मैं उनसे समझने की कोशिश करता हूँ कि वो और किस काबिल हैं? दुर्भाग्यवश ज़्यादातर कुछ और करने की हालत में ही नहीं है। बहुतेरे चाहते तो हैं कुछ नया करने/ सीखने के बारे में लेकिन समय का दबाव है। हालात बहुत ख़राब हैं। लेकिन बावजूद इसके कितने लोग पब्लिकली इन मुद्दों पर बात करते हैं?

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कितने लोग मुक़दमे करते हैं अन्याय के ख़िलाफ़? कितने लोग किसी और के लिए खड़े होते हैं? दुखद है। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन सच यही है कि कुछ तो सोचना होगा। हिम्मत करनी होगी। नए स्किल सीखने होंगे। रिस्क लेने होंगे। क्योंकि एक दशक बाद। उम्र के पचासवें पड़ाव पर ये बातें भी बेमानी हो जाएँगी!

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