भोपाल। लगता है नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर भोपाल से प्रकाशित होने वाले दैनिक राज एक्सप्रेस पर पड़ा है। यही कारण है कि नोटबंदी के बाद से यहां के स्टाफ को सेलरी के लाले पड़े हैं। दो महीनों से सेलरी नहीं आने के कारण काफी लोग संस्थान को अलविदा कह गए हैं। लेकिन गद्दी संभाले हुए संपादक के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही। असल में संस्थान में एक समाचार संपादक हैं जो खुद को अखबार का स्थानीय संपादक बताकर स्टाफ के लोगों पर रौब झाड़ते हैं। लेकिन सैलेरी दिलवाने के नाम पर उनकी सांसें बंद हो जाती हैं। इनके चुप रहने से कर्मचारियों की पीड़ा मालिक के सामने नहीं आ पाती और लोग संस्थान छोड़ देते हैं।
हाल ही में कुछ कर्मचारियों को जीविका चलाने के लिए आधी तन्खा दी गई थी। फिलहाल प्रबंधन किसी से बात करने के लिए तैयार नहीं है। मालिक से कर्मचारियों को मिलने नहीं दिया जाता है। मोटी पगार लेने वाले संपादक को तो साल भर भी तन्खा न मिले तो उनका काम चल जाएगा। लेकिन कम सेलरी वालों का क्या। मोटी पगार लेने वाले लोग अपनी सीट बचाने के लिए और मालिक की आंखों का तारा बने रहने के लिए जूनियरों को निकाल देते हैं। इससे संस्थान का बजट भी बच जाता है और संस्थान छोड़ गए लोगों को सेलरी भी नहीं देना पड़ता।
संस्थान का अधिकतर स्टाफ इस संपादक को पसंद नहीं करता। सालों से जमे होने के कारण अपनी सेलरी में भी मालिक की चमचागिरी करके इन्होंने खूब इनक्रीमेंट लगवाए हैं। जो एक बाइलाइन खबर भी न दे पाएं उनको अपना सबसे करीबी बना रखा है और सबसे ज्यादा मेहरबानी भी उन पर ही बनी रहती है। इसका विरोध करने पर कई लोगों को ये तथाकथित संपादक नौकरी से निकाल देने की धमकी देता है। कुछ दिनों से जब ये शिकायत एक साथ मालिक तक गई तो इनकी क्लास अच्छी तरह से लगाई गई। लेकिन जनाब का खुद को संपादक अभी भी कहे जाने का मोह नहीं जाता।