अशोक मिश्र-
आज मैं सुबह सोकर ही उठा था कि आनंद सिंह ने दुखद सूचना दी-काका नहीं रहे। काका मतलब रामेश्वर पांडेय जी। थोड़ी देर तक समझ में नहीं आया कि क्या कहूं। पांडेय जी को बहुत सारे लोग जानते हैं। उनके प्रशंसकों की एक लंबी चौड़ी सूची है। मैं भी थोड़ा बहुत जानने का दावा कर सकता हूं।
पांडेय जी को मैं तब से जानता था, जब मैं पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ता था। तब वे राजाजीपुरम (लखनऊ) में रहते थे। तब हम लोग आलमबाग में रहते थे। छोटे बरहा मोहल्ले में। जब भी पांडेय जी मेरे घर आते तो मैं उन्हें कॉमरेड कहता था। तब वे आरएसपीआई (एमएल) के समर्थक थे और उसके सिद्धांतों से प्रभावित भी। वे अच्छे संपादक, पत्रकार, लेखक थे। वे दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि बड़े अखबारों में सब एडिटर से लेकर संपादक तक रहे। यह बात पत्रकारिता जगत के उनसे परिचित लोग अच्छी से जानते हैं। क्या अच्छाइयां थीं, पत्रकारिता में वे अपने साथियों से कितना आगे निकल गए थे, यह सब उनके साथ रहा कोई भी व्यक्ति बता देगा।

जब लखनऊ से शान-ए-सहारा प्रकाशित होना शुरू हुआ, तब उनसे हफ्ते में एक दिन तो अवश्य मुलाकात होती थी। शाने सहारा के संपादक तड़ित दा थे और प्रमोद झा और पांडेय जी उस संपादकीय टीम का हिस्सा थे। शाने-सहारा के आखिर पन्ने पर चलते-चलाते नाम से व्यंग्य का एक कॉलम मेरे बड़े भाई आनंद प्रकाश मिश्र (Anand Prakash Mishra) लिखा करते थे। उन दिनों में बप्पा श्री नारायण इंटर कालेज (केकेसी) में नौवीं का छात्र था। भइया अपना व्यंग्य मुझे थमाकर कहते कि जब स्कूल की छुट्टी हो जाए, तो यह व्यंग्य शाने-सहारा के दफ्तर में दे आना। मैं कहता कि मैं नहीं जाऊंगा। तब भइया ने पांच रुपये दिए और कहा, अब तो जाओगे।
मैं छुट्टी होने पर चला गया। वहां पांडेय जी ने दो समोसे खिलाए और चाय पिलाई। मैंने सोचा यहां भी वसूली की जाए। मैंने कहा कि कॉमरेड, भइया ने कहा है कि मेहनताना पांडेय जी से वसूल लेना। पांच रुपये मेहनताना होता है। इस तरह मुझे दस रुपये हर हफ्ते मिल जाते थे, जो मेरे लिए दो फिल्म देखने का पक्का बंदोबस्त था। यह सिलसिला शाने-सहारा का प्रकाशन बंद होने तक चला। इसके बाद पांडेय जी की पत्रकारिता की यात्रा जारी रही। कभी लखनऊ में रहते, तो कभी दूसरे शहरों में। साल में एकाध बार भइया या बाबू जी से उनकी भेंट मुलाकात हो जाती थी।
सन 2000 में जब मैंने अमर उजाला जालंधर ज्वाइन किया तो एक दिन पांडेय जी मुझे कोने में ले गए और बोले, देखो! मुझे यहां कॉमरेड मत कहना। लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हम पूर्व परिचित हैं। मैंने कहा, अच्छा कॉमरेड। फिर क्या कहूं-भाई साहब। वे बोले-सब लोग मुझे सर कहते हैं, तुम भी कहो। मैंने कहा-ठीक है कामरेड। बहुत सारी घटनाएं हैं, यादें हैं। क्या लिखूं। श्री रामेश्वर पांडेय जी उर्फ काका को विनम्र श्रद्धांजलि।