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सियासत

अमरीकन सड़कें और हमारा मीडिया

एक चैनल पर मोदी के अमेरिका आगमन के बाद के दृश्य देख रहा था। किसी देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि के आने का सड़कों की आवाजाही पर कोई असर नहीं था। आम लोगों की गाड़ियां मोदी साहब के क़ाफ़िले के साथ सहजता से चल रही थी। ओबामा के क़ाफ़िले के गुज़रने पर भी यही माहौल होता है।

<p>एक चैनल पर मोदी के अमेरिका आगमन के बाद के दृश्य देख रहा था। किसी देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि के आने का सड़कों की आवाजाही पर कोई असर नहीं था। आम लोगों की गाड़ियां मोदी साहब के क़ाफ़िले के साथ सहजता से चल रही थी। ओबामा के क़ाफ़िले के गुज़रने पर भी यही माहौल होता है।</p>

एक चैनल पर मोदी के अमेरिका आगमन के बाद के दृश्य देख रहा था। किसी देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि के आने का सड़कों की आवाजाही पर कोई असर नहीं था। आम लोगों की गाड़ियां मोदी साहब के क़ाफ़िले के साथ सहजता से चल रही थी। ओबामा के क़ाफ़िले के गुज़रने पर भी यही माहौल होता है।

ये देख चैनल पर बैठे चौधरी आलोचनात्मक-व्यंग्यात्मक हो उठे। भारतीय सड़कों पर किसी मंत्री के गुज़रने की वजह से जाम लगने पर तंज़ कसे जाने लगे। लेकिन इस बात पर ग़ौर क्यों करेंगे कि हमारे चैनल्स भी तो कुछ ऐसा ही करते हैं। अगर मीडिया को जानकारी की सड़कों के रूप देखा जाए, और वीवीआईपी प्रतिनिधियों के दौरों को उन सड़कों से गुज़रने वाले क़ाफ़िले के रूप में देखा जाए, तो पता चलता है कि मीडिया अंजाने में ख़ुद की खाल भी छील रहा है।
 
देखिए, जब किसी वीआईपी मंत्री की गाड़ी सड़क से गुज़रती है तो अन्य छोटी-बड़ी गाड़ियों की आवाजाही रोक दी जाती है। ट्रक, टैम्पू, कार, बाइक आदि-इत्यादि को लाल बत्ती दिखा कर ‘सड़क’ की रफ़्तार पर ज़बरदस्ती की लगाम लगा दी जाती है। कोई अन्य गाड़ी उस सड़क से नहीं गुज़र सकती। क्यों? क्योंकि मंत्री जी के गुज़रने में ख़लल न पड़े। आम आदमी का ख़ास वक़्त चाहे कितना ही बर्बाद क्यों न हो।

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बिल्कुल वैसे ही, हमारा मीडिया बड़े-बड़े राजनीतिक व कूटनीतिक दौरों के दौरान अपने चैनल्स पर कोई अन्य ख़बर नहीं चलने देते। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नेताओं के क़ाफ़िलों के आगे हत्या, बलात्कार, डकैती, चोरी आदि-इत्यादि जैसी ख़बरों की औकात ट्रक, टैम्पू, कार, बाइक आदि-इत्यादि जैसी ही हो जाती है। वे भी बस मंज़िल तक यानि हम तक पहुँचने की फ़िराक़ में इंतज़ार करती रहती है।

कुछ ‘गाड़ियां’ तो बस इंतज़ार ही करती रह जाती हैं। कभी हम तक नहीं पहुँचती। क्योंकि ‘सड़क’ पर से गुज़रने की उनकी मियाद और अहमियत दोनों ख़त्म हो जाती हैं।

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लेखक दुष्यंत कुमार युवा पत्रकार हैं।

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