मीडिया संस्थानों की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार की अंगुली उठाना उचित नहीं होता। पर कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है जिससे प्रेस को मिली स्वतंत्रा पर सवालिया निशान उठ जाता है। बिना किसी तथ्य , आधार के खबर प्रकाशित हो जाए तो मर्यादा, लिहाज में कोई कुछ भले न बोल पाए पर भावना को ठेस तो पहुंचती ही है। आजादी के आंदोलन में अपनी भूमिका स्थापित करने वाले समाचार पत्र को आज भी लोग श्रद्धा भाव से देखते हैं। तब की हिंदी पत्रकारिता के लिए यह स्थान पवित्र मंदिर की तरह की मान्यता से परिपूर्ण रहा है। नगर निगम चुनाव में किन्हीं भ्रांतियो के कारण कुछ प्रकाशित हो गया। पत्रकार मित्र ने संगठन और उसके एक साधारण से कार्यकर्ता को लक्ष्य कर कलम चला दिया। चला दिया तो चला दिया। यह उनकी समझ और उनका बडप्पन। उन्हें और उनकी समझ पर आखिर आप क्या कर सकते हैं। जिसने स्वयं तीन दशक इसी पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर संघर्ष किया हो ,जिसके जीवन के आदर्श पूज्य बाबू राव विष्णु पराडकर रहे हों, जिसने कभी मूल्यो से समझौता न किया हो, जिसने पूरे जीवन पग पग पर मर्यादा की रक्षा करने का प्रयास किया हो, आज कोई अचानक से पत्थर उछाल दे , वह तो अचभित हो केवल चिंतन कर सकता है। गंभीर मजाक के इस प्रयास में कुछ विघ्नसंतोषी मित्र खिलखिला उठे हों, यह उनकी अपनी प्रकृति हो सकती है, पर यहॉ कहॉ कोई असर पडने वाला। सॉच को ऑच कहॉ। किसी गहरे संकट में धैर्य रख समय का इंतजार कर लेना ही बुद्धिमत्ता है। कारण कि समय सब बता देता है। किसी प्रतिष्ठित परिवार के प्रतिनिधि , चाहे कुछ हो, अब भी उन्होंने बहुत कुछ सहेज कर रखा है। जिस शख्स ने अपनी जिंदगी में न किसी से समझौता करना सीखा हो , न झुकना , पर भावनाओं का आदर करना उन्हें बखूबी आता है। जो कुछ हुआ, शायद उनका हृदय भी द्रवित हुआ कि आखिर यह कब और कैसे हो गया। उन्होंने अहसास किया और पूरा बडप्पन दिखाते हुए खेद प्रकाश के लिए आदेशित किया। उनके बडप्पन से हम जैसे लोग कुछ न कुछ सीखने का ही प्रयास करेंगे। -धर्मेंद्र सिंह (पूर्व पत्रकार, वर्तमान में नेता, वाराणसी)