Anil Jain : ‘शुक्रवार’ पत्रिका ने अगस्त महीने के अपने प्रथम अंक में ‘कई बार, कई अखबार’ शीर्षक से एक लेख छापा था। यह लेख कई अखबारों में रिपोर्टर से लेकर संपादक के पद पर रह चुके श्रवण गर्ग पर केंद्रित था। अतिशय चापलूसी युक्त और तथ्यों से परे इस लेख पर प्रतिक्रियास्वरुप मैंने एक तथ्यपरक लेख ‘शुक्रवार’ के संपादक को भेजा था। उम्मीद थी कि स्वस्थ पत्रकारिता के तकाजों का सम्मान करते हुए वे मेरे लेख को भी अपनी पत्रिका में जगह देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चूंकि यह पेड न्यूज या कि प्रायोजित खबरों का दौर है जिसमें सूचना और विज्ञापन का भेद खत्म सा हो गया है। ‘शुक्रवार’ भी चूंकि एक व्यावसायिक पत्रिका है, लिहाजा उसके संपादक/मालिक की व्यवसायगत मजबूरी समझी जा सकती है। बहरहाल मैं अपना लेख यहां दे रहा हूँ। मित्रों की सुविधा के लिए भी प्रस्तुत है।
उनके बहिरंग और अंतरंग का भेद
-अनिल जैन-
शुक्रवार (1-15 अगस्त) में ‘कई अखबार, कई बार’ शीर्षक से शरद गुप्ता का आलेख पढा। विभिन्न अखबारों में काम कर चुके औसत दर्जे के पत्रकार और निम्नतम स्तर के व्यक्ति श्रवण गर्ग को महिमा मंडित करता लेख छापने के पीछे शुक्रवार जैसी समृध्द सरोकारों वाली पत्रिका का क्या मकसद रहा होगा, यह तो समझ से परे है लेकिन अतिशयोक्ति से भरपूर इस लेख को पढकर मुझे और मेरे जैसे कई सचेत और पेशागत रूप से प्रतिबध्द पत्रकारों को हैरानी और निराशा हुई है।
श्रवण गर्ग और मैं एक-दूसरे को तब से जानते हैं जब वे इंदौर में फ्री प्रेस जर्नल में चीफ रिपोर्टर हुआ करते थे और मैंने उसी दौरान इंदौर में ही नवभारत में प्रशिक्षु के तौर पर अपने करिअर की शुरुआत की थी। तब से लेकर अब तक उन्होंने भी कई अखबार छोडे और पकडे हैं और मैंने भी इंदौर तथा दिल्ली में रहते हुए विभिन्न मीडिया संस्थानों में काम किया है। इस दौरान दैनिक भास्कर में आठ साल और नईदुनिया में एक साल तक हम अलग-अलग भूमिका में साथ-साथ भी रहे हैं। इतने पुराने परिचय के आधार पर मैं विनम्रतापूर्वक यह दावा करने की स्थिति में हूं कि मैं उन चंद लोगों में से हूं जो श्रवण गर्ग के बहिरंग और अंतरंग को बहुत अच्छी तरह जानते हैं।
कम से कम दैनिक भास्कर में उनकी हैसियत क्या थी यह तो मैं साधिकार बयान कर सकता हूं। भास्कर समूह में श्रवण गर्ग को समूह संपादक का पदनाम 2007 में मिला था, जो मार्च 2012 तक उनके नाम के साथ चस्पा रहा। शरद गुप्ता का यह दावा बिल्कुल निराधार है कि भास्कर अखबार में प्रबंधन का दखल श्रवण गर्ग को दिल्ली भेजे जाने के बाद शुरू हुआ। हकीकत यह है कि भास्कर में प्रबंधन के सूत्र जब से तीसरी यानी मौजूदा पीढी ने संभाले हैं तब से वहां संपादक की भूमिका एक कार्यालय प्रभारी या मैनेजर से ज्यादा की नहीं रही है। मैंने भास्कर में अपने आठ साल के कार्यकाल में सिर्फ तीन ही ऐसे संपादक (एनके सिंह, आलोक मेहता और राजकुमार केसवानी) देखे हैं, जिन्होंने अपने संपादकीय अधिकारों का संपूर्ण तो नहीं लेकिन संभव इस्तेमाल जरुर किया और अपने आत्म-सम्मान को बनाए रखा। यही वजह रही कि वे ज्यादा लंबे समय तक भास्कर में नहीं रह पाए।
भास्कर में 19 वर्षीय कार्यकाल के दौरान श्रवण गर्ग की एक दिन के लिए भी वह हैसियत नहीं रही जो आमतौर पर किसी अखबार में किसी संपादक की होती है या जैसी शरद गुप्ता ने अपने लेख में बताई है। अखबार के प्रथम पृष्ठ की हेडलाइन से लेकर संपादकीय पृष्ठ पर लिखने वाले लेखकों की सूची भी प्रबंधन के कार्यालय से तय होती थी और आज भी वहां ऐसा ही होता है। दरअसल, श्रवण गर्ग को उनके पूरे कार्यकाल के दौरान प्रबंधन ने अखबार के अलग-अलग संस्करणों में अपने लठैत के तौर पर इस्तेमाल किया, यानी संपादकीय सहकर्मियों को हडकाना, उनके तबादले करना, नौकरी से निकालना जैसे कामों के लिए। न्यूनतम मानवीय गुणों से रहित श्रवण गर्ग ने अपनी बदजुबानी और बदमिजाजी से इस भूमिका को बडी शिद्दत से निभाया और अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते कई काबिल और ईमानदार लोगों के करिअर से खिलवाड किया और प्रकारांतर से उनके परिवारजनों के लिए भी मुश्किलें खडी कीं।
श्रवण गर्ग ने काबिल और स्वाभिमानी सहयोगियों को तरह-तरह से परेशान करने तथा नाकारा, भ्रष्ट और चुगलखोरों को प्रमोट करने का काम सिर्फ भास्कर में ही नहीं, बल्कि जहां-जहां भी वे रहे वहां-वहां किया। दैनिक भास्कर (इंदौर) में नचिकेता देसाई, सुभाष रानडे, शाहिद मिर्जा, (दिल्ली में) हरिमोहन मिश्रा, अनिल सिन्हा, अजित व्दिवेदी, (भोपाल में) रतनमणि लाल, देवप्रिय अवस्थी, राकेश दीवान, (रायपुर में) दिवाकर मुक्तिबोध, (जयपुर में) राजेंद्र बोडा, दिव्य भास्कर (दिल्ली) में प्रमोद कुमार, दैनिक जागरण (रांची) में मुकेश भूषण, नईदुनिया (ग्वालियर) में डॉ. राकेश पाठक, (इंदौर) में विभूति शर्मा, ओम व्दिवेदी आदि कई असंख्य नामों की एक लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है जो श्रवण गर्ग के परपीडक व्यवहार के शिकार हुए हैं। इन लोगों का ‘गुनाह’ महज यही था कि इन्होंने श्रवण गर्ग को संपादक तो माना लेकिन अपना माई-बाप या अन्नदाता नहीं माना। इन लोगों का एक ‘संगीन गुनाह’ यह भी था कि ये सभी लिखने-पढने के मामले में श्रवण गर्ग से ज्यादा काबिल थे और काबिल हैं।
चूंकि श्रवण गर्ग जितने चापलूसी पसंद हैं, अपने खुद्दार सहकर्मियों से वे उतनी ही नफरत करते हैं। अपनी इसी नफरत के चलते ऐसे सहकर्मियों को बेवजह जलील करना, उनके खिलाफ साजिशें रचना, महिला सहकर्मियों को बेहूदा टिप्पणियों से अपमानित करना और अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी को भी नुकसान पहुंचाने में किसी भी हद तक गिरने को तत्पर रहना श्रवण गर्ग की कार्यशैली में शुमार है। उनके साथ फ्री प्रेस जर्नल में काम कर चुके निर्मल पाठक और अशोक वानखेडे के मुताबिक फ्री प्रेस के न्यूज रूम में श्रवण गर्ग अक्सर बडे ‘गर्व’ से कहा करते थे- ‘मैं तो मालिकों का कुत्ता हूं, मालिक जिस पर भौंकने को कहेगा, मैं भौंकूंगा।’ अपनी परपीडक मानसिकता और अहंकारी व्यवहार के चलते यह व्यक्ति अपने कुछ सहकर्मियों की असमय मौत का जिम्मेदार भी रहा है और कई लोग इनके द्वारा बेवजह दिए गए तनाव से गंभीर बीमारियों के शिकार भी हुए हैं। इसलिए शरद गुप्ता का यह कहना सरासर हास्यास्पद और क्षोभजनक है कि श्रवण गर्ग ने भास्कर में रहते हुए पत्रकारों की दो पीढियां तैयार की। हकीकत तो यह है कि उन्होंने भास्कर में रहते हुए दलालों की एक बडी फौज तैयार की जिसमें से किसी को किसी संस्करण का संपादक तो किसी को स्थानीय संपादक और किसी को कार्यकारी संपादक और किसी को चीफ रिपोर्टर बनवाया और उनकी मदद से अपनी आर्थिक स्थिति को समृध्द किया।
कुल मिलाकर श्रवण गर्ग ने संपादक नाम की प्रजाति को बचाने का नहीं बल्कि नाकारा, चापलूस और बेईमान लोगों को, संपादक, स्थानीय संपादक और कार्यकारी संपादक जैसे पदों पर बैठाकर संपादक नाम की संस्था को भ्रष्ट से भ्रष्टतम बनाने का पाप किया है। श्रवण गर्ग के भास्कर में समूह संपादक रहते संपादक नाम की संस्था का किस कदर अवमूल्यन हुआ, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अखबार का अग्रलेख न तो वे खुद लिखते थे और न ही कोई अन्य वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी, बल्कि वह बाहरी व्यक्ति से रोजनदारी पर लिखवाया जाता था। अग्रलेख किस मुद्दे पर लिखा जाएगा इसका निर्धारण भी संपादक के नहीं बल्कि प्रबंधन के स्तर पर होता था।
शरद गुप्ता के लेख में श्रवण गर्ग को गांधीवादी और सर्वोदयकर्मी बताया गया है। इस बारे मं मेरा निवेदन है कि वे अपनी किसी वैचारिक प्रतिबध्दता की वजह से नहीं बल्कि अपने करिअर की संभावना तलाशने और बडे लोगों से संपर्क बनाने के मकसद से सर्वोदय के काफिले में शरीक हुए थे लेकिन आपातकाल लगते ही वहां से भाग खडे हुए थे। इस हकीकत को स्मृति शेष प्रभाष जोशी भी जानते थे। वे होते तो निश्चित ही इस बात की तसदीक करते। अगर इस व्यक्ति में सर्वोदय या जेपी आंदोलन के थोडे भी संस्कार होते तो यह अपने सहयोगियों के साथ वह सब न करता जो इसने जीवन भर किया है। शरद गुप्ता ने अपने लेख में ‘प्रजानीति’ से श्रवण गर्ग को निकाले जाने का जो जिक्र किया है वह बिल्कुल सही है। अपने साथियों के खिलाफ साजिशें रचने और चुगलखोरी की प्रवृत्ति के चलते ही उनको प्रभाष जी ने सेवा समाप्ति का पत्र थमाया था। यह बात खुद प्रभाष जी ने एक बार मुझे भी बताई थी और कहा था कि यह व्यक्ति अव्वल दर्जे का झूठा, नुगरा (एहसान फरामोश) और ओछी (टुच्ची) मानसिकता का है, इससे बचकर रहना।
कुछ लोगों के मन में यह सवाल उभर सकता है कि यह व्यक्ति इतना भ्रष्ट और दुष्ट है तो फिर इसे नौकरी कैसे हासिल होती रही? दरअसल, पिछले दो दशक के दौरान लगभग सभी बडे अखबारी संस्थानों का कारपोरेटीकरण हो चुका है और कारपोरेट संस्कृति में मानवीय संवेदना की कोई जगह नहीं होती। वहां होती है सिर्फ क्रूरता, निर्ममता और बेतहाशा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति। वहां खुद्दार और ईमानदार लोगों को प्रबंधन हिकारत भरी नजरों से देखता है। ऐसे संस्थानों में संपादक का ज्यादा पढा-लिखा, समझदार और संवेदनशील होना कोई मायने नहीं रखता। प्रबंधन के लोग चूंकि आमतौर पर बेहद डरपोक होते हैं लिहाजा वे अपने यहां कार्यरत किसी पत्रकार से सीधे उलझने से बचते हैं। उन्हें संपादक के रूप में ऐसे व्यक्ति की दरकार होती है जो उनके इशारे पर या उनके इशारे के बगैर ही किसी भी उसूल पसंद और खुद्दारी के साथ काम करने वाले व्यक्ति की बिना झिझक गर्दन नाप सके, प्रबंधन के झुकने का कहने पर लेट जाए और प्रबंधन के कहने पर घटिया से घटिया काम करने को तत्पर रहे। इन सारी कसौटियों पर श्रवण गर्ग पूरी तरह खरे उतरते रहे हैं।
लेकिन उनके साथ समस्या यह है कि यह सब करते हुए वे कभी-कभी खुद को उस अखबार का मालिक मानने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनकी औकात अखबार मालिक द्वारा भाडे पर रखे गए लठैत से ज्यादा नहीं है। उनकी यही समस्या उनकी नौकरी जाने का कारण बनती रही है। इंदौर के साप्ताहिक शनिवार दर्पण को छोड दें तो प्रजानीति, फ्री प्रेस जर्नल, चौथा संसार, एमपी क्रानिकल, दैनिक भास्कर, नईदुनिया आदि सभी संस्थानों में बाकायदा उनसे इस्तीफा मांगा गया है या प्रबंधन की ओर से ऐसी स्थितियां निर्मित की गई कि वे खुद ही इस्तीफा देकर बाहर हो जाएं। यानी हर कूचे से बेआबरू होकर निकले।
दरअसल, यह महाशय अपने पूरे जीवन में किसी के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। जो भी इनके संपर्क में आया, उसका इस व्यक्ति ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया, ठीक उसी तरह जैसे कि विभिन्न अखबारी संस्थान के संचालकों ने इनका इस्तेमाल किया। हालांकि दस साल पहले रिटायरमेंट की आयु पार कर चुके इन महाशय की जो आर्थिक-पारिवारिक स्थिति है, उसके चलते इन्हें नौकरी की कतई जरुरत नहीं है लेकिन समाज में अपना नकली रुतबा बनाए रखने की ललक, रसूखदार लोगों से संपर्क बनाने का चस्का, पैसे की भूख और लोगों के साथ बदतमीजी और गाली-गलौच करने तथा उन्हें नौकरी से निकालने के शौक के चलते नौकरी इनकी आवश्यकता है। इनकी चारित्रिक ‘विशेषताएं’ तो और भी कई हैं लेकिन उनका जिक्र यहां करना मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि मेरे संस्कार मुझे किसी की कमर के नीचे वार करने की इजाजत नहीं देते।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन की एफबी वॉल से.
ANIL JAIN
October 6, 2016 at 11:50 am
श्रवण गर्ग पर ‘शुक्रवार’ में छपे लेख की लिंक
http://www.janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_ID=7077