नीरज गोस्वामी-
बरसों बाद किसी सिनेमा घर में जाने का मन बनाया। हाल में घुसे तो कुल जमा छै ही लोग थे। इसी से एहसास हो गया कि हम कोई ऐसी फिल्म देखने जा रहे हैं जो अलग है, लेकिन ये फिल्म इतनी अलग होगी इसका कतई अनुमान नहीं था। मैं बात कर रहा हूं फिल्म हिंदी फीचर फिल्म थ्री ऑफ अस का जिसे आदरणीय जितेंद्र भाटिया जी और दीपक महान के साथ देखने का कल मौका मिला।
फिल्म के बारे में इंटरनेट पर बहुत कुछ उपलब्ध है उसमें कुछ अलग से जोड़ना या घटाना उचित नहीं पर इतना कहना चाहूंगा कि बरसों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जो सेल्युलाइड पर कविता की प्रस्तुत की गई थी।
आज के शोर भरे रैप सुनने वाले दौर में ये फिल्म किसी शास्त्रीय संगीत के राग के आलाप सुनने जैसी थी जिससे आत्मिक शांति मिलती है।
फिल्म देख कर समझ आता है कि यदि आपको कैमरे के पीछे सलीके से खड़ा होना आता है तो आप किस तरह बिना चकाचौंध भरे मंहगे विदेशी लोकेशन दिखाए एक साधारण छोटे से कोंकण के गांव को भी असाधारण ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं, किस तरह आसपास की रोजमर्रा सुनी जानी वाली ध्वनियों से संगीत का अद्भुत संसार रच सकते हैं और किस तरह बिना हाथ पांव पटके आंख के हल्के इशारे, होंठों के कंपन और चेहरे के भावों से अभिनय के शिखर की ऊंचाइयों को छू सकते है।
इस फिल्म के बारे में लिखा नहीं जा सकता इसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है।
इस अविस्मरणीय फिल्म के लिए निर्देशक अविनाश अरुण की संपूर्ण टीम को प्रणाम।