दिलीप मंडल-
ये मेरे गुरु हैं। सुरेंद्र प्रताप सिंह। भारतीय पत्रकारिता के महानायक। हिंदी का टीवी समाचार एक तरह से इनका ही शुरू किया हुआ है।
मैं तो झारखंड का महाउत्पाती, अक्सर मारपीट में लगा रहने वाला हिंसक युवा था। दुनिया ही अलग थी हमारी। एकदम रिबेल। बिना काम का विद्रोही। धूम धड़ाम। उफ्फ। बेहद शानदार परिवार का एकदम बदमाश बच्चा।
इन्होंने मुझे पहचाना। टेस्ट लिया तो मैं पास कर गया। लाइब्रेरी में फ़ालतू बैठे रहने की आदत काम आ गई।
तो भाई साहब, फिर इन्होंने मुझे झारखंड से उठाकर सीधे दिल्ली की टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग में बैठा दिया। मैंने भी फिर जान लगा दी। टाइम्स स्कूल में संपादन में मैं और अमिताभ अपने बैच के टॉपर बने। हिंदी नहीं आती थी। रात रात जगकर अभ्यास किया।
मुझे इंडिया टुडे भी सुरेंद्र प्रताप सिंह ने ही पहुँचाया। आगे चलकर मैं वहाँ हेड बना।
झारखंड में मैं अपनी गति में रहता तो अब तक मैं मर खप चुका होता। साथ के कई लोग खप चुके हैं।
मेरा जीवन इनकी वजह से भी है। मैं तो अपने जीवन को बोनस मानता हूँ।
जी गया। यही क्या कम है। मैं किस तूफ़ान से निकला, ये तो अब मैं सोचना भी नहीं चाहता।
सुरेंद्र प्रताप सिंह कहते थे कि “मेरे बारे में कहा जाता है कि मैं शिवजी की बारात रखता हूँ। उत्पाती भी चाहिए मुझे।” तो मैं वहाँ अपने “गुणों” की वजह फ़िट हो गया।
जीवन में हर किसी को एक सुरेंद्र प्रताप सिंह मिलना चाहिए।
क्या आपको अपना सुरेंद्र प्रताप सिंह मिला?
दिलीप मंडल की उपरोक्त एफबी पोस्ट पर सत्येंद्र पीएस की ये टिप्पणी पढ़ें-
सुरेंद्र प्रताप सिंह से न तो मैं कभी मिला, न कभी जाना। आज तक मे एक महीने की इंटर्नशिप करने आजतक में गया तब उनकी मौत की डाक्यूमेंट्री वहां के कम्प्यूटर में पड़ी थी और उसे देखा।
कुछ ही महीने पहले एसपी की मौत हो चुकी थी। खैर… एसपी से मैंने भी बहुत कुछ सीखा। कई बार उनकी लाइफ से प्रेरणा लेकर लिखता हूँ। जैसे कि जब मैं यह कहता हूँ कि अगर किसी को खुद महान बनना है तो जात पात छोड़कर महान चेले/साथी चुनने चाहिए। वही चेले उस पर्सन को महान बनाते हैं।
चेला कहना भी सही नहीं होगा क्योंकि चेला में अब यह भाव या गया है कि ऐसे निकृष्ट को चुना जाए जिसे हर पल अपना कुत्ता बताया जा सके। खुद का गदहपन छिपाया जा सके। हमेशा निम्न श्रेणी के मस्तिष्क चुने जाएं जो कभी सर उठाने लायक न रहें। और जब ऐसे लोग थोड़ी फ्रीडम पाते हैं तो अपने गुरु की बहिनिया महतरिया एक कर देते हैं। ऐसे में चेले के बजाय मित्र सहकर्मी चुनना ज्यादा अहम है, जो मरने के बाद आपको महान बनाते हैं।
गांधी ने यही किया था। ऐसे ऐसे मित्र सहकर्मी चुने, जिन्होंने मौका पाते ही गांधी को भगवान बना दिया, उनकी तारीफ में उनके जीते जी हजारों टन किताब लिख डाली, देसाई, मावलंकर, सीतारमैया जैसे लोगों ने। गांधी इतने विशाल बन गए कि अब कोई उनके ऊपर जितना थूंके, वह सदियों सदियों बने रहेंगे।
एसपी में भी थोड़ा सा गांधी था। आप, आर अनुराधा, आशुतोष, निर्मलेन्दु साहा, प्रबल प्रताप सिंह सहित सारे नाम खुद सोच डालें। आपको एसपी के गुलदस्ते में जाति नहीं मिलेगी। उन्होंने ऐसा ग्रुप तैयार किया जिन्होंने अलग अलग अनेक ग्रुप खड़े कर दिए और आज भी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के मार्ग पर खड़े हैं। निस्संदेह एसपी अप्रतिम थे। उनके जैसा कोई न हुआ।
एक बात और। गुरु तो कोई नहीं है। मित्र बहुत हैं जिन्होंने मुझे लाइफ लाइन दी है। मेरे मित्रों में बहुत डायवर्सिटी है, जैसे सुरेंद्र जी के शिष्यों में थी।