Ajit Sahi : सालों से अमेरिका आ रहा हूँ. पिछले कुछ दिनों से अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी में हूँ. हमारे भारत में हम सब एक जैसे दिखते है. फिर भी पता नहीं कहाँ से हम रास्ता खोज लेते हैं भेदभाव करने का, कि वो तो मुसलमान है, वो चमार है, वो यादव है, वो बिहारी है, इत्यादि. और यहाँ डीसी में सब अलग दिखते हैं — गोरे, काले, चीनी, कोरियाई, भारतीय/पाकिस्तानी, हिसपैनिक, अरबी, और न जाने कौन कौन. लेकिन कहीं कोई भेदभाव करता नहीं दिखता.
मेट्रो में गोरी महिला काले बूढ़े के लिए सीट छोड़ देती है. महिला के कपड़े और मेकअप में ट्रांस्जेंडर मर्द उतनी ही स्वच्छंदता से रहता है जितने बाक़ी सब. कौन क्या ज़बान बोल रहा है, क्या खाना खा रहा है, क्या कपड़े पहन रहा है, किसकी लड़की और किसका लड़का साथ घूम रहे हैं इस सबसे किसी को कोई लेना देना नहीं है. सड़क से लेकर मेट्रो तक, मेट्रो से लेकर बसों में, दुकानों में, अमेरिका किसी एक आइडेंटिटी का मुल्क लगता ही नहीं है. जो कभी दास थे और अत्याचार के शिकार थे वो, और जो कभी आततायी थे वो, सब मिल कर आज अमेरिका की नियति तय कर रहे हैं. सब एक दूसरे के हक़ को मान चुके हैं.
कम से कम भारतीय समाज से तो कहीं अधिक समरसता यहाँ अमेरिका में दिखती है. कितना ज़बरदस्त इख्तेलाफ़ है अमेरिका और इस्लामिक उग्रवाद के बीच. फिर भी डीसी में मुसलमानों के प्रति हेय दृष्टि तक नहीं दिखती. हिंदुस्तानियों को कितने प्यार से अपनाया है अमेरिका ने. मैं सोचता हूँ कि आख़िर क्या वजह है कि अमेरिका में रहने वाले ये भारतीय हिंदू यहाँ के सेकुलरिज़्म का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं लेकिन भारत में हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं. दरअसल अमेरिका की आर्थिक तरक़्क़ी की वजह सेकुलरिज़्म ही है. अमेरिका ही क्यों, धर्म पर से अंधविश्वास ख़त्म होने के बाद ही पश्चिमी यूरोप में विज्ञान का विकास हुआ. आप सेकुलरिज़्म का विरोध करते हैं? अच्छी बात है. सड़ते रहिए ख़ुद नफ़रत के दलदल में. आपके बेटा और बेटी ही अमेरिका भागने की फ़िराक़ में है.
वरिष्ठ पत्रकार अजीत साही की एफबी वॉल से.