हैदराबाद में एक वैटरिनरी चिकित्सक की बलात्कार के बाद जीवित ही जला देने के आरोपियों को जनता के भारी दबाव के बाद पुलिस ने मार डाला। पुलिस ने कथित रूप से जांच के बहाने घटनास्थल पर ले जाकर चारों आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया। चारों को मौत की नींद सुला देने से पूरे देश में हड़कंप मच गया।
इसी क्रम में इस तरह के अनेक मामलों का जिक्र होने लगा है जिनमें बेकसूर लोगों का पुलिस द्वारा एनकाउंटर कर उनकी हत्या कर दी थी और लंबी जांच के बाद पुलिस की गलती सामने आई और दोषी पुलिसकर्मियों को न्यायालय से दंडित किया गया। ऐसे ही मामलों में से एक था दिल्ली के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सतबीर राठी का केस। आइये बताते हैं….
दिल्ली के कनॉट प्लेस शूटआउट केस में एसीपी सत्यवीर सिंह राठी व अन्य को हुई उम्रकैद…
दिल्ली के कनॉट प्लेस में 31 मार्च, 1997 को दिल्ली पुलिस के एसीपी सत्यवीर सिंह राठी की टीम ने दिनदहाड़े बदमाश यासीन के धोखे में दो व्यवसायियों प्रदीप गोयल और जगजीत सिंह की कार पर अंधाधुंध गोलियां बरसाकर हत्या कर दी थी और उनका साथी तरुण घायल हो गया था। इस शूटआउट ने आम जनमानस और सरकार को बुरी तरह हिलाकर रख दिया था। घटना के 24 घंटे के अंदर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार को हटा दिया गया था। इस घटना ने पुलिस पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि इसके कई साल बाद अशोक होटल में मारे गए सीरियाई पहलवान कांड तक दिल्ली में कोई एनकाउंटर नहीं हुआ।
कनॉट प्लेस शूटआउट के बाद जैसे ही यह भेद खुला कि पुलिस की गोलियों के शिकार यासीन और उसके गैंगस्टर नहीं, बल्कि हरियाणा के बेकसूर बिजनेसमैन थे, पुलिस में हड़कंप मच गया था। अगले दिन के अखबार इसी खबर से भरे पड़े थे। आम जनता को अब पुलिस एनकाउंटरों की असलियत का पता चल चुका था। केंद्रीय गृह मंत्रालय के सामने अब कोई चारा नहीं बचा था। तत्कालीन पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार को हटा दिया गया। उनकी जगह तिलक राज कक्कड़ नए कमिश्नर बनाए गए।
खुद पुलिस अफसरों का भी कहना था कि यह शूटआउट आउट ऑफ प्रमोशनों के लालच में किया गया था। दरअसल, तब वह दौर था, जब अपराधियों के एनकाउंटरों पर धड़ाधड़ आउट ऑफ प्रमोशन किए जा रहे थे। मेरठ के कुख्यात गैंगस्टर बृज मोहन त्यागी को पश्चिमी दिल्ली में एनकाउंटर में मार गिराने वाली एसीपी एल.एन. राव की पूरी टीम को बारी से पहले तरक्की दी गई थी। इसमें आश्चर्यजनक बात यह थी कि उस टीम में शामिल उस सब-इंस्पेक्टर को भी इंस्पेक्टर बना दिया गया था, जो ट्रेनिंग पूरी करने के बाद अभी तक प्रोबेशन पर ही था।
‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ माने जानेवाले राजबीर सिंह राठी पश्चिमी जिले के स्पेशल स्टाफ में थे। कई अपराधियों के एनकाउंटर करने के बाद उन्हें इंस्पेक्टर बनाया जा चुका था। अब उन्होंने साउथ डिस्ट्रिक्ट के अधचिनी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुख्यात अपराधी राजबीर रमाला को रेस्तरां में ढेर कर दिया था। रमाला पर तीन लाख रुपये का इनाम था। इसके बाद उन्होंने फरीदाबाद में जाकर तीन लाख रुपये के इनामी एक और अपराधी रणपाल को मार गिराया था। इसके बाद राजबीर सिंह को एसीपी प्रमोट किया गया था।
जेसिका लाल हत्याकांड के जांच अधिकारी रहे सुरेंद्र शर्मा को भी आउट ऑफ टर्न प्रमोशन मिला था। शर्मा ने कांग्रेस सांसद ललित माकड़ और जनरल अरुण श्रीधर वैद्य के हत्यारे आतंकवादी हरजिंदर सिंह जिंदा को मजनूं का टीला के नजदीक रिंग रोड पर मार डाला था। इसके बाद शर्मा को एसीपी बनाया गया था। बटाला हाउस एनकाउंटर मामले में चर्चित और उसमें मारे गये स्पेशल सेल के नामी इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा तो महज तीन साल में ही इंस्पेक्टर बन गए थे। सेल के ही इंस्पेक्टर एस.के. गिरि को गाजियाबाद के अपराधी अशोक त्यागी को गिरफ्तार करने पर प्रमोशन मिला था।
कनॉट प्लेस शूटआउट में फंसने वाले एसीपी सतबीर राठी को भी आउट ऑफ टर्न प्रमोशन मिला था। उन्होंने तिलकनगर में सतबीर गूजर का एनकाउंटर किया था। उस एनकाउंटर पर तब उंगलियां उठी थीं। तिलकनगर में तो राठी के भाग्य ने उनका साथ दिया था, लेकिन कनॉट प्लेस में उनकी किस्मत जवाब दे गई।
क्या था पूरा मामला…
दिल्ली पुलिस के एसीपी सत्यवीर सिंह राठी की टीम द्वारा कनाट प्लेस में 31 मार्च, 1997 को दिनदहाड़े बदमाश यासीन के धोखे में दो व्यवसायियों प्रदीप गोयल और जगजीत सिंह की कार पर अंधाधुंध गोलियां मार कर हत्या कर दी गई थी और उनका साथी तरुण घायल हो गया। तब पुलिस ने इनको न केवल अपराधी बताया बल्कि उनके खिलाफ केस दर्ज कर उनसे पिस्तौल भी बरामद दिखा दी थी। जबकि ये तीनों बेकसूर थे।
पुलिस का झूठ तुरंत ही खुलने से हड़कंप मच गया। 31 मार्च, 1997 का यह दिन दिल्ली पुलिस के लिए काला दिन बन गया। नई दिल्ली जिला पुलिस उपायुक्त के कार्यालय में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस में तत्कालीन पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार ने मुस्कराते हुए कहा कि यह घटना ‘पहचानने में गलती’ के कारण हो गई। पुलिस टीम बदमाश यासीन को पकड़ने गई थी।
पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार की भूमिका…
पत्रकारों ने निखिल कुमार से पूछा कि बेकसूर लोगों की हत्या करने वाली पुलिस टीम के खिलाफ आप क्या कार्रवाई कर रहे हैं? यह भी कहा कि आप पुलिस वालों के खिलाफ एक्शन लेकर मीडिया को बता दें जिससे लोगों को बेकसूर व्यवसायियों की हत्या की इस खबर के साथ यह भी पता चल जाए कि दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी गई है।
निखिल कुमार शायद उक्त मामले की गंभीरता और संवेदनशीलता तथा उसके परिणामों को समझ नहीं पाए या अपने राजनैतिक परिवार के रुतबे के कारण निश्चिंत थे। इसलिए उन्होंने उस समय कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन अगले ही दिन निखिल कुमार को पुलिस आयुक्त के पद से हटा दिया गया।
उप-राज्यपाल ने पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कराया….
उप-राज्यपाल ने बेकसूरों की हत्या के मामले में अपराध शाखा के एसीपी सत्यवीर सिंह राठी, इंस्पेक्टर अनिल समेत दस पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कराया और निलंबित कर दिया। इस मामले की तफ्तीश सीबीआइ को सौंपी गई। जबकि यह कार्रवाई तो निखिल कुमार को पहले ही दिन करनी चाहिए थी। पुलिस का मुखिया होने के नाते उन्होंने मृतकों के परिजनों से माफ़ी तक नहीं मांगी।
उम्रकैद…
अदालत ने हत्या, हत्या की कोशिश, सबूत नष्ट करने और झूठे सबूत बनाने के आरोप में अपराध शाखा के पूर्व एसीपी सत्यवीर सिंह राठी, इंस्पेक्टर अनिल कुमार, सब-इंस्पेक्टर अशोक राणा, हवलदार शिव कुमार, तेज़ पाल, महावीर सिंह, सिपाही सुमेर सिंह, सुभाष चन्द्र, सुनील कुमार और कोठारी राम को उम्रकैद की सज़ा सुनाई। सत्यवीर सिंह राठी आदि इस समय तिहाड़ जेल में उम्रकैद की सज़ा काट रहे हैं।
राठी पर फर्जी एनकाउंटर का आरोप पहले भी लगा…
26 नवंबर, 1992 को कुख्यात बदमाश सतबीर गूजर दिल्ली के पश्चिम जिला के तत्कालीन डीसीपी धर्मेंद्र कुमार के मातहत इंस्पेक्टर सत्यवीर राठी की टीम के हाथों कथित एनकाउंटर में मारा गया था। सतबीर गूजर के परिजनों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उसकी हत्या करके मुठभेड़ दिखा दी है। तिलकनगर के तत्कालीन एस एच ओ सत्यवीर राठी को इस मामले में बारी से पहले तरक्की देकर एसीपी बना दिया गया था।
यासीन पकड़ा गया…
जिस यासीन को बहुत ख़तरनाक बताया गया था उसे अपराध शाखा के तत्कालीन एसीपी अजय कुमार की टीम ने 4 अप्रैल, 1997 को दरियागंज में मोती महल रेस्तरां के बाहर से बिना किसी ख़ून ख़राबे के पकड़ लिया।
पीलीभीत (उप्र.) के फर्जी मुठभेड़ में 10 सिख तीर्थ-यात्रियों को मारने वाले 47 पुलिसवालों को उम्रकैद
उप्र. के पीलीभीत जिले बिलसंडा में जून 1991 में 10 सिख तीर्थ-यात्रियों को आतंकवादी बता कर फर्जी मुठभेड़ में मारने वाले 47 पुलिसकर्मियों को लखनऊ की विशेष सीबीआइ अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई। ये लोग बिहार के पटना साहिब और महाराष्ट्र में हुजूर साहिब के दर्शन कर वापस लौट रहे थे, तभी पीलीभीत के पास उन्हें पुलिस ने बस से उतारा और तीन अलग-अलग जंगलों में ले जाकर गोली मार दी थी।
तब पुलिस ने कहा था कि उसने 10 आतंकवादियों को एनकाउंटर में मार गिराया, लेकिन जब यह पता चला कि वे सिख तीर्थयात्री थे तो हंगामा खड़ा हो गया। इस मामले में 57 पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाया गया था, लेकिन मामले की जांच के दौरान 10 पुलिस वालों की मौत हो गई। ऐसा कहा गया कि इन हत्याओं का मकसद आतंकियों को मारने पर मिलने वाला पुरस्कार था।
बुजुर्ग, महिलाएं और 3 बच्चों को छोड़ा….
29 जून, 1991 को उप्र. के सितारगंज (अब उत्तराखंड) से 25 सिख तीर्थयात्रियों का जत्था पटना साहिब, हुज़ूर साहिब और और नानकमत्ता साहिब के दर्शन के लिए निकला था। 13 जुलाइ को उसे पीलीभीत आना था, लेकिन 12 जुलाइ को ही पीलीभीत से पहले बिलसंडा में 60-70 पुलिस वालों ने उनकी बस को घेर लिया और उन्हें उतार लिया। बस में 13 पुरुष, महिलाएं और 3 बच्चे थे। पुलिस ने महिलाओं, बच्चों और दो बुजुर्ग पुरुषों को छोड़ दिया, लेकिन 11 पुरुषों को वे अपने साथ ले गए।
तलविंदर को मार कर नदी में बहाया…
इनमें से एक तलविंदर सिंह को पुलिस ने मार कर नदी में बहा दिया, जिसकी लाश भी नहीं मिली। बाकी दस सिखों को पुलिस वाले सारे दिन अपनी बस में शहर घुमाते रहे, लेकिन रात में उनके हाथ पीछे बांधकर तीन टोलियों में बांट दिया। दो टोली में चार-चार सिख और एक में दो सिख रखे गए। इन सभी को तीन अलग-अलग जंगलों में ले जाकर गोली मार दी गई।
तीर्थ-यात्रियों के परिजनों ने मचाया हंगामा….
यह वह दौर था जब पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। पुलिस ने अगले दिन ऐलान किया कि उसने खालिस्तान लिबरेशन आर्मी और खालिस्तान कमांडो फोर्स के 10 आतंकवादियों को मार गिराया है। तीर्थ-यात्रियों के परिवार वालों को जब यह पता चला तो हंगामा हो गया।
पुलिस ने ‘गुड वर्क’ दिखाने के चक्कर में की थी हत्या…
पहले केस सिविल पुलिस के पास था, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सीबीआइ जांच शुरू हुई। सीबीआइ ने 178 गवाह बनाए, 207 दस्तावेज सबूत के लिए लगाए और पुलिसकर्मियों के हथियार, कारतूस और 101 दूसरी चीजें सबूत के तौर पर पेश कीं। आखिरकार सीबीआइ ने अदालत में यह साबित कर दिया कि पुलिस ने अपना ‘गुड वर्क’ दिखाने के लिए तीर्थ-यात्रियों को आतंकवादी बता कर मार डाला था।
पुलिस एनकाउंटर की थ्योरी पूरी तरह फर्जी थी….
जांच से पता चला है पुलिस की एनकाउंटर थ्योरी पूरी तरह फर्जी थी। मरने वालों के पोस्टपार्टम में उनके जिस्म पर चोट के तमाम निशान थे। फॉरेंसिक जांच में उस बस में भी गोलियों के निशान मिले जिसमें पुलिस उन्हें ले गई थी। गोलियों के निशान मिटाने के लिए बस को डेंट-पेंट कर दिया गया था।
एनकाउंटर में पीएसी को भी शामिल बताया गया, लेकिन जांच से साबित हुआ कि पीएसी उस वक्त अपने कैंप में थी। पुलिस के एक थाना इंचार्ज को एनकाउंटर में शामिल दिखाया था, लेकिन वह उस वक्त एक अस्पताल में भर्ती था। कोर्ट ने पुलिस से पूछा कि यह कैसे संभव है कि किसी एक जिले में तीन अलग-अलग जंगलों में जो एक-दूसरे से काफी दूर हैं ,एक साथ आतंकवादियों से मुठभेड़ हो जाए? अदालत ने यह भी पूछा कि किसी मरने वाले की लाश उनके घरवालों को क्यों नहीं दी गई? पुलिस ने उनका अंतिम संस्कार क्यों किया? इनमें से किसी भी सवाल का जवाब पुलिस के पास नहीं था।
उत्तराखंड के 17 पुलिसवालों को एमबीए के छात्र रणबीर फर्जी एनकाउंटर केस में उम्रकैद…
दिल्ली की तीस हजारी अदालत की स्पेशल सीबीआइ कोर्ट ने देहरादून के फर्जी रणबीर एनकाउंटर मामले में पांच साल बाद अहम फैसला सुनाते हुए मामले में 17 आरोपी पुलिसकर्मियों को आइपीसी की धारा 302 (हत्या), 364 (हत्या करने के इरादे से अपहरण) और 120 बी (साजिश रचने) के प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया, जबकि 18वें आरोपी पुलिसकर्मी को अदालत ने आइपीसी की धारा 218 (सरकारी कर्मचारी द्वारा गलत अभिलेख तैयार करने) का दोषी पाया और उम्रकैद की सजा सुनाई।
स्पेशल सीबीआइ जज जेपीएस मलिक की अदालत ने 2 जून, 2011 को उम्रकैद की सजा का यह अहम फैसला सुनाया। अदालत ने आरोपी 18 पुलिसकर्मियों में से सात को आइपीसी की धारा 302 के तहत हत्या, धारा 120बी के तहत आपराधिक साजिश तथा आइपीसी की धारा 364 के तहत हत्या करने के इरादे से अपहरण सहित विभिन्न अपराधों में दोषी ठहराया। जबकि एक आरोपी को पब्लिक सर्वेंट द्वारा गलत रिकॉर्ड बनाने के तहत दोषी करार दिया।
एमबीए के छात्र गाजियाबाद निवासी रणबीर नौकरी की तलाश में देहरादून गया था। जहां 2 जुलाइ, 2009 को देहरादून में डालनवाला थाने की पुलिस ने उसे एक कथित एनकाउंटर में मार दिया था। उस पर पुलिस ने नजदीक से 29 गोलियां चलाई थीं। चूंकि आरोपी पुलिस वाले थे, इस वजह से मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 17 मार्च, 2011 को मृतक रणवीर के माता-पिता के अनुरोध पर इस मामले को सुनवाई के लिए देहरादून की विशेष अदालत से दिल्ली के विशेष न्यायालय में स्थानांतरित करने के आदेश दिए। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने सात अन्य आरोपी पुलिसवालों की जमानत भी खारिज कर दी थी। मामले में कुल 17 पुलिसवाले आरोपी थे।
लेखक श्याम सिंह रावत उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
CHOUDHARY IQRAR Qureshi
December 11, 2019 at 11:09 am
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