SAKSHI JOSHI-
3 idiots का चमत्कार वाला सीन साक्षात. जहां जहां इलाहाबाद था वहाँ REPLACE ALL करके प्रयागराज कर दिया गया तो नतीजा ये है कि अकबर इलाहाबादी बन गए अकबर प्रयागराज. साथ में राशिद प्रयागराज और तेग़ प्रयागराज को पढ़ना न भूलिएगा. ये हाल है UP HIGHER EDUCATION services commission का.
Prabhat Shunglu-
मशहूर शायर सैय्यद अकबर हुसैन उर्फ अकबर इलाहाबादी की वो मशहूर गज़ल है न हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है। ये पूरी गज़ल करोड़ो हिंदुस्तानियों की ज़बान पर है। यकीन के साथ कह सकता हूं कि उन लोगों की भी ये प्रिय गज़ल होगी जो योगी जी या उनकी पार्टी को वोट करते आये हैं।
अब मैं आपके सामने उस गज़ल का मक़्ता पेश करता हूं।
सूरज में लगे धब्बा कुदरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफिर अल्लाह की मर्ज़ी है।
हंगामा है क्यूं बरपा … अकबर इलाहाबादी भी अपनी कब्र में करवटें लेते सोच रहे होंगे गोया यूपी हाइअर एजूकेशन सर्विसेज़ कमीशन की वेबसाइट पर मेरा तखल्लुस बदलने से इन्हे क्या हासिल होगा। अपने चाहने वालों के लिये तो मैं हमेशा अकबर इलाहाबादी रहूंगा।
तो यूपी हाईअर एजूकेशन सर्विसेज़ कमीशन ने सैय्यद अकबर हुसैन का तखल्लुस बिगाड़ कर उन्हे अकबर प्रयागराज कर दिया है। यही नहीं बल्कि दो और मशहूर शायरों जो अपने नाम के आगे तखल्लुस के तौर पर इलाहाबादी लगाते थे, उनका नाम भी बिगाड़ कर उनके नाम के आगे प्रयागराज कर दिया है। इसलिये राशित इलाहाबादी अब राशिद प्रयागराज हो गये हैं और तेग इलाहाबादी तेग प्रयागराज।
यूपी में जिस तरह की मज़हबी सियासत को पिछले पांच सालों में नॉर्मालाइज़ करने की बेशर्म कोशिश हुई है उसको देखते हुए अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आता है।
पूछा अकबर है आदमी कैसा
हंस के बोले वो आदमी ही नहीं
नमस्कार मैं हूं आपका न्यूज़बाज़ प्रभात शुंगलू। मेरा आज का सवाल – अकबर इलाहाबादी या अकबर प्रयागराज किस नाम से आप इस मशहूर शायर को याद रखेंगे।
यूपी के शिक्षा मंत्री से एक न्यूज़ वेबसाइट ने जब इसका रिएक्शन मांगा तो कहने लगे, अरे वो तो ऑटोनॉमस बॉडी है, सरकार का उसपर कोई अख्तियार नहीं। यानि जिम्मेदारी से साफ पल्ला झाड़ लिया। अरे जब सांप्रदायिक कार्ड खुल कर खेल रहे तो फिर शर्म कैसी, झिझक कैसी। कि अब नये भारत में ऐसे ही चलेगा।
अभी तक शहरों के नाम बदले जा रहे थे जिन नामों में इस्लामिक नामों की ध्वनि तक आती हो। इसी क्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तीन साल पहले इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज कर दिया था। और अब नफरत की इंतेहा ये कि इतिहास के नामचीन लोग जो खुद को उसी ज़मी से जोड़ना पसंद करते थे, यहां तक कि अपने नाम के आगे वो शहर का नाम लगा लिया करते थे, आज उनके वो तखल्लुस भी बदले जा रहे।
क्या हमें इस बात का इत्मीनान होना चाहिये कि सैय्यद अकबर हुसैन का नाम नहीं बदला उन्होने। केवल तखल्लुस बदला है। क्योंकि संसद में जिस मेजोरिटी के दम पर बहुसंख्यक राष्ट्रवाद या हिंदु राष्ट्रवाद के नफरती फलसफे को हवा दी जा रही उसकी दलील तो ये भी हो सकती है न कि जब युसूफ खान का नाम दिलीप कुमार हो सकता है और महजबी बानो भारतीय सिनेमा में मीना कुमारी के नाम से मशहूर हो सकती हैं तो फिर अकबर इलाहाबादी हों या प्रयागराजी क्या फर्क पड़ता है।
और हो सकता है आपको हंसी आये, मुझे भी आ रही मगर साथ ही डर लग रहा कि क्या पता एक दिन हमें बताया जाये कि रबीन्द्रनाथ टैगोर की मशहूर कहानी काबुलीवाला अब काबुलीवाला के नाम से नहीं बल्कि मेवावाला के नाम से जानी जायेगी। क्योंकि उस शीर्षक की ध्वनि बाहर वाली है। हिंदुत्व टाइप की नहीं।
क्या पता, अब तो अतिरेक यानि एक्सट्रीम पर सोचने की आदत से पड़ती जा रही। जब से ये सुन रहे कि शाहजहां का बनवाया आगरा का ताजमहल दरअसल शिव मंदिर था।
शहर के नाम, लोगों के नाम, जगहों के नाम बदल कर दरअसल इतिहास को जबरन अपने चशमे से पढ़वाने की कसम उठा ली गई है। जिसमें तथ्यों का अनादर ही नहीं, बल्कि उन तथ्यों को झूठ के प्रोपोगेंडा की ऊंची ऊंची दीवारों में चुनवा दिया जायेगा। संसद से लेकर जलियांवाला बाग शहीद स्मारक का कायाकल्प हो रहा। कुछ सालों में भारत को पहचान नहीं पायेंगे। इतनी जल्दी है इन्हे नया भारत बनाने की। सोचता हूं इन्हे नेहरू से ज्यादा चिढ़ है या इतिहास से।
मज़हब का इस्तेमाल कर के बाकायदा समाज को बाटने की कोशिश हो रही। पहले चोरी छिपे होती थी, एक हिडेन एजेंडा के तहत। प्रचंड बहुमत ने अब कुछ भी हिडेन नहीं रखा। वो रखना भी नहीं चाहते। लगातार ये जताने की कोशिश हो रही कि जो बहुसंख्यक हैं, कानून भी उन्ही के मुताबिक चलेगा।
अब तो आलम ये है कि कहीं गोडसे की आरती हो रही और गांधी के पुतले को गोली मारी जा रही तो कहीं क्रिस्मस के मौके पर सांता क्लॉज़ का पुतला जलाया जा रहा। कहीं लिंचिंग तो कहीं गोली मारो सालों को के नारे खास राजधानी दिल्ली से। इनहे सफेद दाढ़ी और लाल पोशाक वाले उस बूढ़े, सांता क्लॉज़ से भी नफरत है। जो सभी में प्यार के गिफ्ट बांटता है, बच्चों को उपहार देता है।
भगवाधारी साधु खुले आम धर्म संसद के मंच से मुसलमानों के नरसंहार की अपील कर रहे और सरकार खामोश है। क्योंकि उसे पता है सोशल मीडिया से लेकर गोदी मीडिया तक और धर्म संसद तक अब उसके मन की बात हो हो रही। उन मंचों से नफरत और हिंसा की आवाज़ बुलंद करने वालों को भी पता है वो कानून की गिरफ्त से दूर हैं क्योंकि संविधान बदलने वाला सपना सच होता दिख रहा।
शहंशाह अकबर ने अपने दौर के हिसाब से एक सेक्यूलर सोच के साथ अपना राजकाज चलाया। गैर मुस्लिम रियाया पर लगाये जाने वाले जज़िया टैक्स को माफ किया। सबको साथ लिया, सबका विश्वास जीता। लेकिन मौजूदा सियासत की मंशा और मंसबों को देखते हुए ऐसा क्यो लगता है कि अगर दौर यू ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब आज़ाद भारत में रिवर्स जज़िया की नीति अपनाई जाये। ज़ाहिर है उस टैक्स के नाम में ध्वनी हिंदुत्व टाइप की होगी।
उन्होंने वेबसाइट पर अकबर इलाहाबादी को अकबर प्रयागराज कर दिया। मगर ज़ाहिर है उस मशहूर शायर के पैगाम से वो आज तक महरूम हैं। अकबर इलाहाबादी ने क्या खूब कहा था –
मज़हबी बहस मैने की ही नहीं
फालतू अक्ल मुझ में थी ही नहीं
मेरा आज का सवाल मैं दोहराता हूं। अकबर इलाहाबादी या अकबर प्रयागराज किस नाम से आप इस मशहूर शायर को याद रखेंगे।
Nagendra Pratap-
…चला है दस्तूर बस नाम निकालो…यानी अकबर इलाहाबादी भये अकबर प्रयागराजी
प्रयागराजी अमरूद ले लो… प्रयागराजी अमरूद… मीठे-रसीले… अंदर से नारंगी (अब भगवा) वाले…। फल बेचने वाले जुम्मन चचा की बदली हुई आवाज कानों में अटक सी गई। गली के उस छोर से ही सुनाई दे जाने वाली फेरी की यह आवाज रोज से बहुत अलग जो थी। बिलकुल पूस में अचानक आए जेठ के भभके की तरह। उचककर खिड़की पर पहुंचा कि आखिर माजरा क्या है।
खिड़की भी पुरानी है सो खड़क के साथ कुंडी गिरी तो चचा की नज़रें उधर ही उठ गईं। सवालिया नजर देख जुम्मन चचा भी सवाल में ही दिखे! फिर हांका लगाया … प्रयागराजी अमरूद… आखिर पुराने लखनवी जो ठहरे। मुझे निहारते देख बोले- प्रयागराजी समोसे कब से नहीं खाए बरखुरदार!
इंसान अगर पुराना वाला लखनवी हो और उसमें इलाहाबादी मिजाज का तड़का लग जाए तो कहना ही क्या!
सवालिया लहजे में बोले, क्या मियां, कुछ समझे!
मैंने ‘न’ में गर्दन डुला दी!
जुम्मन चचा ने तंज कसा- तो किस बात के अखबारनवीस हो म्यां… सब बदल गया। वह दिन दूर नहीं जब नारंगी अमरूद मिला करेंगे…। अबूझ बना रहा तो उन्होंने बात आगे बढ़ा दी।
दार्शनिक अंदाज में बोले, जाओ मियां, अकबर इलाहाबादी की शागिर्दी छोड़ दो, जिसने कहा था, ‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो’ … लेकिन अब तो नाम निकालने का दौर है।
चचा मुतवातिर बोले जा रहे थे। मैं उन्हें निहारे रहा रहा था। उन्हें लग गया कि बंदा तंज का कच्चा खिलाड़ी है, सो लगे समझाने। मियां, तुम तो निरे बुद्धू हो, कुछ दुनियादारी भी सीखो। लगता है आज की खबर से नावाकिफ हो! मैने फिर ‘न’ में गर्दन हिलाई तो फिर समझाने लगे।मासूमियत से बोले, ‘अकबर इलाहाबादी’ नहीं रहे। मैं फिर चौंका और कहा, चचा वह तो कबके जन्नतनशीं हो गए। वो बोलते जा रहे थे… रहे तो अब दानिश इलाहाबादी भी नहीं… तेग इलाहाबादी भी नहीं! और… मेरा माथा घूमने लगा था।
सोचा, जुम्मन चचा ठहरे खब्ती आदमी। कोई उलझ गया होगा और गरम हो गए होंगे। ठंडा करने के लिहाज से बोला- चचा जरा सुस्ता लो। आखिर बात क्या हुई जो सबको रुखसत करने पर लग गए। तुम्हें देखकर तो लगता है जो नहीं रहे उन्हें उखाड़कर फिर से रुखसती पर आमादा हो। ऐसे तो जो हैं उन्हें भी ढूंढ ढाढ़ कर रुखसत ही कर डालोगे… दौर जो चल पड़ा है।
जुम्मन चचा कुछ कहते कि मैं फिर ख्यालों में डूब गया। सोचने लगा कि कल तक कफील खान और उनके पर्चे (डॉ कफील खान की किताब) की बात करने वाले जुम्मन चचा का कैसेट अचानक बदल कैसे गया।
सोच में पड़ा देख, परदा जुम्मन चचा ने ही उठाया। लाहौल विला कूवत…अमां कैसे खबरनवीस हो। तुम्हें ये भी नहीं पता…!
बोले- तुम भी… अरे, अकबर इलाहाबादी अब अकबर प्रयागराजी हो गए मियां। और ये कहते हुए उन्होंने एक अख़बार का पन्ना मेरे सामने कर दिया। अख़बार जिसमें खबर छपी थी- ‘यूपी में अकबर इलाहाबादी अब अकबर प्रयागराजी हो गए, कई और इलाहाबादियों के नाम बदले…’ मामला वैसे भी अब तक समझ में आ चुका था। अपनी करनी से चर्चा में रहने वाले प्रयागराजी शिक्षा आयोग ने अपनी वेबसाइट पर वो सारे नाम बदल डाले थे जिनमें इलाहाबाद या इलाहाबादी जुमला इस्तेमाल हुआ था। इसमें कई ज़िंदा-मुर्दा नाम शामिल थे। गोया उसने इलाहाबाद नाम को जड़ से खोदकर अपने योगी हुक्मरां को खुश करने की ठान ली थी। वो तो इलाहाबाद हाईकोर्ट का नाम भी बदल डालता, लेकिन शायद उसके इख़्तियार में नहीं था।
जुम्मन चचा सिर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे। सोच तो हम भी रहे थे कि अब नजीर अकबराबादी पर कब नज़रे इनायत होने जा रही है… आख़िर तो वो भी अपने नाम के तख़ल्लुस का कोई न तोड़ अभी से ही तलाशने लगे होंगे (अकबरपुर का नाम बदलने की बात तो चल ही पड़ी है)। तोड़ तो नजीर बनारसी साहब भी सोच ही रहे होंगे कि जाने कौन, कब उनको उनके बनारस से बेदख़ल करने का फ़रमान सुना डाले। सोच में तो बड़े ग़ुलाम अली खां साहब भी जरूर पड़ गए होंगे की ‘हरिओम् तत्सत…’ से उनका नाम कब हटेगा और सोच तो पंडित जसराज भी रहे होंगे कि फिर तो उनके नाम से जुड़े ‘मेरो अल्लाह मेहरबान…’ को भी मिटाने की जरूरत पड़ेगी। आख़िर इबारतें मिटाने-बदलने का दौर जो चल पड़ा है।
जुम्मन चचा अब भी सिर झुकाए खामोश बैठे हैं। उन्हें उनकी खामोशी में छोड़ हम निकल आए हैं संगम किनारे कि देखें गंगा की इन लहरों में और कितने इलाहाबादी अपना-अपना इलाहाबाद पकड़ कर बैठे हैं। आख़िर इनकी सूची भी तो उस आयोग के हवाले करनी होगी न जो उसकी नजर से ओझल हैं। बगल में खड़ा यूनिवर्सिटी का शोधछात्र रामअचल पूछ रहा है- ‘सर, क्या ममता कलिया जी की किताब जीते जी इलाहाबाद का नाम भी बदलेगा!’
Prashant
January 1, 2022 at 12:00 pm
Akbar eelahabadi .. eelahabadi hi rahenge, Amrud eelahabadi hi rahenge…
Ye tab na bdala jab eelahabad ka allahabad ho gaya to ab kya badlega Prayagraj hoke.
Ye “eelahabadi” shabd hi pahchan hai .. hamari bhi meri bhi.. EElahabdi shabd waha ke vashindo ke khoon me rahta hai..
Prayagraj karna bhale galat na ho magar shahar ki pahchan “eelahabad” se hi hai or ise badlane ki himakat kar ke sirf Fazihat hi hogi..
Jaruart se jyada unmad ya josh nuksan ka hi karak hota hia,