प्रिय यशवंत सिंह जी, आपकी वेब-साइट पर एक अगस्त को मेरे बारे में लिखी कानाफूसी की तरफ़ कई लोगों ने मेरा ध्यान दिलाया। ‘भड़ास 4 मीडिया’ में आने वाली बातों की चर्चा बहुत तेज़ी से होने लगती है, इसलिए मैं कुछ बातें साफ़ करना चाहता हूं। सबसे पहले तो मुझे अपने बारे में कही गई इस बात पर आपत्ति है कि मैं मीडिया में इसलिए लौट रहा हूं कि कांग्रेस के बुरे दिन आ गए हैं। पत्रकारिता के अपने जीवन में मैंने सिर्फ़ एक नौकरी की और 27 साल से ज़्यादा वक़्त नवभारत टाइम्स में रहा। उन दिनों भी कई प्रस्ताव आए-गए, लेकिन मैं कहीं नहीं गया। आज भी मैं मूलतः तो पत्रकार ही हूं और इधर-उधर जहां-कहीं कोई मौक़ा देता है, लिखता रहता हूं। इसलिए मीडिया में लौटना क्या, न लौटना क्या?
कांग्रेस में अच्छे-बुरे दिन सोच कर नहीं आया था। राजनीति में आने का लंबा किस्सा है। फिर कभी। लेकिन आज के दौर में आसानी से यह बात गले नहीं उतरेगी, लेकिन ये सात-साढ़े सात साल मैंने नवभारत टाइम्स की नौकरी के बाद मिले प्रॉविडेंट फंड और ग्रेच्युटी की रकम के भरोसे ही बिताए हैं। सही है कि मैंने इंदौर को अपना राजनीतिक कार्य-क्षेत्रा बनाने के लिए मेहनत की और यह तो मैं आगे भी करता रहूंगा। मैं इंदौर का रहने वाला हूं। मैं ने वहां के क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा हासिल की है। वहां से मेरा संपर्क 35 साल से ज़्यादा से है। कांग्रेस ने कब किसे इंदौर से लोकसभा का टिकट दिया और क्यों दिया और मैं लड़ता तो कितने से हारता-जीतता, यह अलग बात है।
मुद्दा यह है कि कांग्रेस की हालत आज कुछ भी हो, मैं इंदौर में अपना काम जारी रखूंगा। मैं तो कभी सांसद-मंत्राी नहीं रहा, लेकिन आज हमारे कई बहुत महत्वपूर्ण साथी फिर काला कोट पहन कर अदालत जाने लगे हैं, कई अपने-अपने कामों में फिर लग गए हैं और कइयों ने अपनी खेती-बाड़ी फिर संभाल ली है। इसका यह मतलब कहां से हो गया कि वे सब कांग्रेस छोड़ गए हैं? अगर मैं मीडिया की किसी नौकरी में लौट भी जाऊं तो इसका अर्थ यह तो नहीं होगा कि राजनीति में मेरा समय पूरा हो गया है? कई हैं, जिनके अख़बार हैं, चैनल हैं और वे कांग्रेस के सांसद हैं, मंत्री रहे हैं तो मेरी मीडिया-वापसी और कांग्रेसी-राजनीति साथ-साथ क्यों नहीं चल सकते? मैं कांग्रेस में हूं और रहूंगा।
लेकिन इसके साथ ही यह भी बताना चाहता हूं कि न तो दक्षिण भारत के किसी समाचार चैनल ने अपने उत्तर-भारतीय हिंदी अवतार की कमान संभालने के लिए मुझ से संपर्क किया है और न ही राजधानी के किसी अंग्रेज़ी दैनिक ने मुझे काम देने की पेशकश की है। किसी गुटखा-किंग से भी उनके अख़बार के दिल्ली संस्करण को संभालने के लिए मेरी कोई बात नहीं हुई है और इतना पैसा भी मेरे पास नहीं है कि मैं ख़ुद का प्रकाशन शुरू कर सकूं। आपकी लिखी इन बातों में से एक भी सही होती तो मुझे ख़ुशी ही होती। जब भी ऐसा कुछ होगा, मैं सबसे पहले आप को बताऊंगा।
आपका,
पंकज शर्मा
दिल्ली
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