हेमंत शर्मा-
तो छप कर आ ही गयी ”देखो हमरी काशी”। जिसका आपको इन्तज़ार था। यह इतवारी कथा का संकलन है जिसे आपका भरपूर स्नेह मिला. किताब ऑन लाईन प्रभात प्रकाशन, अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।
मेरी बात
देखो हमरी काशी’ सिर्फ संस्मरण नहीं है। यह एक ऐसी जीवन-यात्रा है, जिससे बनारस का शब्द-चित्र बनता है। ये किस्से मेरे नहीं हैं, बनारस के हैं।मैं तो उन्हें सुनानेवाला हूँ। ज्यादातर चरित्र उसी समाज के इर्द-गिर्द के हैं, जहाँ मैं जनमा, पला, बढ़ा और गढ़ा गया। इन कहानियों के नायक वे लोग हैं, जो हमारे चारों ओर हैं, पर उन पर सामान्यतः किसी की नजर नहीं पड़ती। ये नितांत साधारण लोग किसी शहर के चरित्र-निर्माण में कितनी असाधारणभूमिका निभाते हैं, ये किस्से उसका प्रमाण हैं। मैंने इस किताब में अपने समय के ‘समय’ को दर्ज किया है, इस कोशिश में एक समूचे शहर का जीवन दर्ज हो गया है। ‘देखो हमरी काशी’ काशी की अभिजन संस्कृति के बरक्स काशीका जनपक्ष है। काशी सार्वभौम नगर है और ‘देखो हमरी काशी’ बनारस की सार्वभौमिकता का रस-आख्यान है।
यह काशी का मूल स्वरूप है, जिसकी अनदेखी नहीं हो सकती। जिस कबीर चौरा में मुझे बुद्धत्व प्राप्त हुआ, वह संगीत और नृत्य का अखाड़ा था।कबीर ने यहीं ‘अनहद वाणी’ सुनी थी। इसे आप काशी का ‘ब्रह्मकेंद्र’ भी कहसकते हैं। इसी कबीरचौरा के जरिए आप ‘बनारसी संस्कृति’ का मस्त औरबेलौस चेहरा देख सकते हैं। इस किताब के सारे किस्से सच्चे और अनुभूत हैं, जो आज के एकरस, अबाध, रूढ़, बोझिल समाज की जड़ता को तोड़ते हैं।बनारस एक सांस्कृतिक विमर्श है। महादेव यहाँ के मूल देवता हैं। यह धर्म कीगंगोत्तरी है। इस मिट्टी में कबीर की अक्खड़ता है। तुलसी की भक्ति है। मंडनमिश्र का तर्क है। भक्ति और तर्क धर्म के दो छोर हैं, पर दोनों का संतुलन यहॉं मौजूद है। बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन भी यहीं है तो आचार्य शंकर का परकायाप्रवेश भी। यहीं रैदास की कठौती में गंगा बहती है, तो प्रसाद का सौंदर्य औरधूमिल का आक्रोश भी यहीं है। साहित्य में रामचंद्र शुक्ल की पहली परंपरा यहीं है तो हजारी प्रसाद द्विवेदी की दूसरी परंपरा भी। बनारस इन्हीं सारीपरंपराओं को ओढ़ता, बिछाता, ढोता हुआ, दुनिया को अपने अग्रभाग पर रख किसी भी समस्या का समाधान देता है। मेरे सारे पात्र अख्यात हैं। पर उनकीपैनी नजर धर्म, समाज, राजनीति पर सतत रहती है। ये पात्र कबीर परंपरा केज्ञानी हैं। सृष्टि की नश्वरता का अहसास कराते हैं। खँडहर होते अभिजात्य पर ठहाका लगाते हैं। इनसे मिलकर आपका मन भीतर तक तर होगा। संतृप्तहोगा। भावार्द्र होगा।
कोई भी शहर इमारतों, सड़कों और आधुनिकता के उपकरणों से नहींबनते। वे बनते हैं, वहाँ रहनेवाले लोगों से। वे बनते हैं इतिहास, संस्कृति, परंपरा और जीने के अंदाज से। इस किताब के हर पात्र से आपका अपनापाहोगा। पढ़ते ही आपको लगेगा—अरे! यही तो हमारे जीवन में भी था! ये बनारसी लोग ही इस शहर की संस्कृति का निर्माण करते हैं। इस किताब मेंआपको बनारसी चरित्र, तहजीब, बोली, भाषा, लहजा और अक्खड़ बनारसीआदतें मिलेंगी, जो जाति-धर्म से परे होंगी। पंडित ज्ञानी तो बनारसी परंपरामें केवल शास्त्र बूकते हैं। गायक-वादक परंपरा यहाँ संगीत की जड़ें ढूँढ़ती है।साहित्यकार यहाँ कबीर, तुलसी, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, शुक्ल के साहित्यमें बनारस तलाशते हैं। पुरातत्त्वविद् यहाँ के मंदिरों की शृंखला से सृष्टि कीप्राचीनता का पता लगाते हैं। फनकार पं. रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाहखान, गोदई महाराज में संगीत का बीज केंद्र खोजते हैं। पर मैंने इन गलियों मेंजीवन देखा है। उसी जीवन का जिंदा वृत्तांत है—‘देखो हमरी काशी’। मैंनेकाशी के जिस जीवन के पात्रों को अपनी नजरों में कैद किया है, वे शायद इस आधुनिक होते शहर की अंतिम छवि होगी। कारण कि जिस‘कॉस्मोपॉलिटन’ जीवन की ओर हम बढ़ रहे हैं, वहाँ अब ऐसे पात्र संभवभी नहीं होंगे। दरअसल यह उस कालखंड की दास्ताँ है, जहाँ हमारी जीवन-शैली इतिहास के मध्य और आधुनिक दोनों के संधिकाल का दौर है। इसदाैर ने अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड के जमाने से लेकर लाइव वीडियो कॉल तक, गगरी से फ्रिज तक, रेडियो से स्मार्टफोन तक की प्रगति देखी।
भूमंडलीकरणऔर उदारीकरण का भी यही दौर था, लेकिन इस शहर ने इस संक्रमण कालसे लोहा लेते हुए अपना चरित्र नहीं छोड़ा। परंपरा और आधुनिकता के संघर्षमें इसने अपने ताने-बाने को नहीं बदला।
लोकायत को लोक ही रचता है। लोक यानी उसके लोग। उन्हीं के जरिएकिसी कालखंड के समाज, ज्ञान, आस्था, प्रतीक, भवन, व्यापार, पूजा, राजनीति के प्रसंगों व संदर्भों का संरक्षण होता है। मूल्यांकन होता है। यहआवश्यक है कि इस परिवेश को समझने, रचने के लिए इन्हीं में से किसी कीउँगली पकड़ी जाए। इतिहास, संस्कृति और लोग ही किसी शहर की पहचानहोते हैं। इतिहास रोचक होता है, लेकिन इतिहास का लेखन नहीं।शास्त्रीय इतिहास लेखन तो इन घटनाओं का रोजनामचा बनाकर इसकेकिस्सा कथा-तत्त्व की जान निकाल देता है। बीसवीं सदी में यूरोपीयशोधपूर्ण लेखन ने इतिहास को इतिहासकारों की सख्त और ऊबड़-खाबड़मेज से उठाकर किस्सागोई की बैठकी में पहुँचा दिया, ताकि प्रामाणिकता केसाथ-साथ विषय रसीले भी हों। इस विधा में हमें दुनिया की कई ऐसीचीजों का इतिहास उस तरह पढ़ने को मिला, जैसा हम जानना चाहते थे। यह‘थीमेटिक इतिहास’ लेखन था, जिसमें चाय से लेकर कोयले, सड़क सेलेकर सड़कछाप तक और भाषा से लेकर संगीत तक सबकी अपनीदिलचस्प कहानियाँ थीं। मैंने इसी तरह बनारस के लोक को रचा है। इसमेंऔपन्यासिक शिल्प तो मिलेगा, पर यह उपन्यास नहीं है।
उपन्यास व कहानियाँ रोचक, सक्षम और समर्थ होती हैं, लेकिनकल्पनाओं के मसाले के साथ। इससे वह प्रामाणिकता के स्वाद में मिलावटकर देती हैं। दुनिया में इतिहास केंद्रित उपन्यासों ने पाठकों पर बड़ी छापछोड़ी है। वे कालजयी भी हुए हैं। उपन्यास में कथातत्त्व को साधना जरूरीहोता है, इसलिए इतिहास और कल्पना के नीबू-पानी में चीनी-नमक कोअलग करना कठिन होता है।
भारतेंदु ने इसी काशी को देखते, समझते, ढूँढ़ते डेढ़ सौ साल पहले लिखाथा ‘देखी तुमरी कासी’। उनके नाटक ‘प्रेमयोगिनी’ की इस कविता में उसवक्त के बनारस का चित्र और समाज था। उसी के बरक्स यह किताब है‘देखो हमरी काशी’, जिसमें काशी का जनपक्ष है। भारतेंदु ने डेढ़ सौ सालपहले काशी के समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं, विकृतियों और मानवीयमूल्यों के पतन का यथार्थ चित्रण किया। उनके मन में तब की काशी कोलेकर कोई क्लेश या टीस दिखती है। ‘प्रेमयोगिनी’ नाटक में इस कविता के जरिए काशीवासियों की अकर्मण्यता, आलस्य, कायरता, फूट, बैर, मानसिकगुलामी आदि का चित्रण उन्होंने यथार्थ के धरातल पर किया है। भारतेंदुलिखते हैं—
देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी॥
आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी॥
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी॥
उस वक्त की काशी पर भारतेंदु ने अपनी बात बड़ी बेबाकी और अक्खड़तासे कही। यह बनारसी
मिजाज का आदमी ही लिख सकता है। ऐसी हीअक्खड़ता और बेबाकी कबीर में भी थी। असल में यह बेबाकी काशी काचरित्र है। यह बेबाकी उसी के अंदर प्रविष्ट हो सकती है, जो पूरी तरह काशीको जीने लगता है।
‘देखी तुमरी कासी’ भारतेंदु की काशी थी। उसके एक पक्ष को संदर्भितकरती हुई। ‘देखो हमरी काशी’ में उसका दूसरा पक्ष भी मिलेगा। तब से अबतक गंगा में बहुत पानी बह गया है। इस काशी में प्रेम है। सौहार्द है। सहजअपनापा है। खिलंदड़ापन है। वह जात-पाँत और मजहब से ऊपर है।अस्पृश्यता की कोई जगह नहीं है। यहाँ बनारसी जीवन के सारे पात्र अपनीविलक्षणताओं के साथ हैं। वर्ण व्यवस्था को अँगूठा दिखाता यह समाजकाशी के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा था, है औररहेगा। किताब के पात्र वही लोग हैं, जिनसे हमारा रोज का नाता है। यह इसवक्त की बनारसी चेतना है, जो भारतेंदु से मेल तो खाती है, पर भाषा औरकथ्य के लिहाज से सीधी, मारक और आसानी से कम्युनिकेट करती है। मेरेचरित्र भाषा के लिहाज से नपुंसक नहीं हैं। सारे पात्र गजब के संवादी हैं। कोईलाग-लपेट नहीं। सहज बोलते-बतियाते हैं। वे जबरन अभिजात्यता यासंपन्नता की चादर नही ओढ़े रहते। जिसकी भाषा में भाव और आवेग नहीं तोसमझिए वह बनारसी चरित्र नहीं।
किसी भी समाज के नाना विषय बोध वहाँ मौजूद दृश्यों, पात्रों, सांस्कृतिकरूढ़ियों और रूपों से होते हैं। मुख्यधारा के क्रियाकलाप पर सबकी नजरहोती है। लेकिन हाशिए पर रहनेवाले लोगों की तरफ ध्यान कम जाता है।उनका कई बार जिक्र भी नहीं होता। मैंने अपनी समकालीन जमीन से जुड़ीएक पूरी संस्कृति के नायकों को सामने लाने की कोशिश की है। इनके बिनाजीवन के कई सुनहरे पृष्ठों का निर्माण्ा संभव नहीं था।
‘देखो हमरी काशी’ अभिजात्य, प्रभु वर्ग और पांडित्य परंपरावाली काशीनहीं है। मेरी काशी यहाँ के लोक, गलियों और गालियों में बिखरी पड़ी है।इस शहर की विभूतियाँ, सांस्कृतिक केंद्र और राजनेता कथा के नेपथ्य में हैं।कथा के नायक हैं, हर किसी के जीवन के रंगमंच पर आनेवाले नाई, धोबी, दर्जी, बुनकर, बढ़ई, पानवाला, दूधवाला, मिठाईवाला, चायवाला, सफाईवाला, मल्लाह, तवायफ, बैंडमास्टर और अंत में जीवन को तारनेवालामहाश्मशान का डोम, जिनके बारे में अब तक ज्यादा लिखा नहीं गया। इसमेंबढ़ई को छाेड़कर सारे पात्र काशी के हैं। कुछ पात्र जीवन-यात्रा में साधारणहैं, पर इनका व्यक्तित्व असाधारण है। किसी भी शहर का मिजाज, आदतें, जीवन, भाषा, तहजीब वहाँ के आमजन बनाते हैं। इस लिहाज से ‘देखो हमरीकाशी’ बनारसी संस्कृति और मिजाज का आईना है। जिसने बनारस को नहींदेखा है, वे इस किताब को पढ़कर बनारसीपन महसूस कर सकते हैं औरजिन्होंने देखा है, वे पूछ सकते हैं, अरे! कहाँ गई वह काशी?
‘संस्मरण’ और ‘रेखाचित्र’ व्यक्ति केंद्रित होते हैं। पर ‘देखो हमरी काशी’ अपने पात्रों के जरिए उस वक्त के परिवेश और समाज पर केंद्रित है। यह उसकालखंड का परिदृश्य रचती है। इतवारी कथा के इन पात्रों का स्वाभिमानऔर विपन्नता शहर के ओढ़े हुए गौरव की संपन्नता को अपने ठेंगे पर रखतीहै। यह शहर शिव का है। शिव आमजन के देवता हैं। जिसके पास कुछ नहींहै, सिर्फ एक लोटा जल और भस्म है, वह शिव का भक्त है। मनुष्य कीन्यूनतम जरूरतें उसे अक्खड़ बनाती हैं, क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछनहीं है। इसी अक्खड़ता को आप शिव और उनके भक्त काशीवासियों में देखसकते हैं।
हर इतवार मैंने इन कथाओं को लिखा, इसलिए इन्हें ‘इतवारी कथा’ कहा।आप इन्हें रेखाचित्र भी नहीं कह सकते। उपन्यास, इतिहास के बाद रेखाचित्रतीसरा बेहद महत्त्वपूर्ण आयाम है, लेकिन यहाँ मामला जरा और पेचीदा है।यहाँ संस्मरण, स्केच, कथा और इतिहास एक साथ आते हैं। रेखाचित्रों काअपना एक लोक है, वह विधा व्यक्तियों पर केंद्रित होती है। परिवेश सिर्फसंदर्भ के लिए आता है, पर इन कथाओं में परिवेश पूरी प्रामाणिकता के साथहै।
काशी की तंग गलियों का मुकाबला दिल्ली और मुंबई की चौड़ी चमकदारसड़कें नहीं कर सकतीं। इस शहर में जिस आत्मीयता की चस्प और चपक है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। पूरी दुनिया घूमने के बाद मेरी यही धारणा है।काशी छोड़ना सिर्फ शहर छोड़ना नहीं, संस्कृति छोड़ना होता है। अपनी जड़ोंसे कटना होता है। 1987 को एक सुबह लखनऊ जानेवाली रेलगाड़ी पर बैठमैंने बनारस छोड़ दिया। पर वह छूटा कभी नहीं। बुरी आदत-सा चिपका रहा।ज्ञान, खुशबू, खयाल, ख्वाब, आदत बनकर भीतर गहरे बैठा रहा। गाहे-बगाहेव्यक्त होता रहा, क्योंकि बनारस का संबंध जन्म से नहीं है। डूब जाने से है।जो यहाँ डूब गया, बनारसी हो गया। यह जन्म-जन्म साथ रहता है। इस शहरका सम्मोहन जीवन भर कचोटता रहता है और मौका मिलते ही फूटता है।कोरोना और लॉकडाउन हमारे जीवन का अवसादी युग था। इस अवसाद सेनिकलने के लिए मैंने टाइम मशीन को उल्टा घुमाया तो फिर हर हफ्ते एककथा निकली। ये कथाएँ स्वत: प्रसूत होती रहीं। फेसबुक का एक बड़ापाठक वर्ग इसमें जुड़ता रहा। पाठकों के स्नेह और आग्रह से कथाएँ एक सेइक्कीस होती गईं। पाठकों को ये पात्र अपने-से लगने लगे। हम हर हफ्तेउनके अमरत्व का उत्सव मनाने लगे। लॉकडाउन की हताशा और अवसाद कीअवस्था में इन कथाओं से जीवन में उम्मीद की किरण फूटी। मित्रों ने इनमेंजीवन देखा। पाठक इसका हिस्सा बन गए और इतवारी कथा किताब बनगई। इन कथाओं में आपको साहित्य की सारी विधाएँ एक चबूतरे पर बैठीनजर आएँगी।
यह किताब भाषा और कथ्य के लिहाज से बालिग लोगों के लिए है। कमरमें गमछा, कंधे पर लँगोट और बदन में जनेऊ डाले इसके पात्र आपकी हरसमस्या का समाधान देते नजर आएँगे। जब एथेंस के बारे में कोई सोच नहींथी, मिस्र की कल्पना नहीं थी, रोम का अस्तित्व नहीं था, तब भी काशी थी।यह रहने की जगह नहीं, सीखने का विश्वविद्यालय है। आइंस्टीन ने कभी कहाथा, “पश्चिमी साइंस भारतीय गणित के बिना चल नहीं सकती।” यही गणितकाशी का बीजतत्त्व है। ढेर सारे गणितज्ञ आपको यहाँ गलियों, नुक्कड़ों परमिलेंगे। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानक, तुलसी, रविदास, वल्लभाचार्य, कीनाराम, रामानंद, मध्वाचार्य, निंबार्काचार्य, तैलंगस्वामी, रामकृष्ण, विवेकानंद, सबकी आँखें यहीं आकर खुलीं। इसी काशी ने रामबोला कोतुलसी बनाया। तुलसीदास ने अपनी चौपाइयों में भी इसे रचा और जिया।
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसी की बड़ाई
बासी नर नारि ईस-अंबिका-सरूप है।
कालबध कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,
सभसद गनप-से अमित अनूप हैं॥
तहाऊँ कुचालि कलिकाल की कुरीति,
कैंधौं जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल
खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं।”
तुलसी लोक के कवि थे। यही लोक काशी का प्राणतत्त्व है। हमने कोशिशकी एक ऐसी लेखन विधा या फाॅर्मेट बनाने की, जिसमें इस लोक कीध्वनि, इतिहास की प्रामाणिकता, गझिन किस्सागोई और मुखर समकालिनता को एक साथ पिरोया जा सके। ‘देखो हमरी काशी’ में सबका संगम है। ये संस्मरण ठोस इतिहास हैं, रसीले किस्से हैं, अचूक शब्दचित्र हैं और समकालीन परिवेश हैं।
यह एक नई विधा की रचना है, जहाँ आप बनारस के एक पानवाले कारसीला संस्मरण पढ़ते हुए पान की अक्खी दुनिया की यात्रा कर वापसबनारस आ सकते हैं या एक नाई के रोचक संस्मरण से ‘हेयर कट’ कीदुनिया के दिलचस्प इतिहास में पहुँच जाते हैं।
लोक, लेखकीय आख्यानों में आते रहे हैं। इतिहास उन्हें सँजोता है।कथाकार भी उन्हें सजाता है। इतिहास बड़े-बड़ों की कहानी है और कथाओंमें कल्पना के तत्त्व तथ्य से क्रीड़ा करते हैं। विश्व साहित्य में लगातारयह प्रयास हुआ है कि किसी शहर, कालखंड या घटना को उसके प्रधान पात्रोंके बजाय अनाम पात्रों के जरिए देखा जाए। ऐसे लोगों के जरिए इतिहासपढ़ा जाए, जिनका जिक्र किसी इतिहास में नहीं मिलता, जैसे कि किसीशहर का हलवाई या दूधवाला या फिर मोची…। इन चरित्रों को मैंने गढ़ा नहींहै। इन पर सिर्फ रोशनी डाली है।
‘देखो हमरी काशी’ काशी का बनारसी लोक है। यह उस काशी की गायत्री यात्रा है, जिसे केवल बनारसी ही कर सकते हैं। संस्कृति, आस्था, ज्ञान के इस केंद्र को मेरे ‘सड़कछाप बनारसी’ झिंझोड़ते और झकझोरते हैं।इन्हीं के बीच मेरा भी ‘मसि कागद’ से सामना हुआ और मैंने आखर धर्म को आत्मसात किया। इस धर्म की विशेषता इसे सहेजने में नहीं, बल्कि बिखेरने और बाँटने में यकीन रखती है, सो जो लिखा, रचा, वह सब आपका। तो तेरा तुझको अर्पण।
किताब उन “बनारसियो को समर्पित है जो समूची दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं।”
—हेमंत शर्मा
आसावरी
जी-180, सेक्टर-44
नोएडा
इतवारी कथा को आप सबका स्नेह और समर्थन मिला। सबकी इच्छा थी की इतवारी कथा को किताब की शक्ल मिले। तो मिल गयी।किताब छप गई। भूमिका लिखी है मशहूर पत्रकार राम बहादुर राय नें। किताब की सज्जा और कवर माधव जोशी ने बनाया है। छापा है प्रभात प्रकाशन ने। आप राम बहादुर राय की लिखी इस किताब की भूमिका पढ़ें-
काशी का बनारस
—रामबहादुर राय
काशी ज्ञान की शलाका है।तो बनारस, औघड़ों का ठहाका है। काशी रहस्यों की गहराई है, बनारस किस्सों की ठंडाई है। काशी दिव्य है, बनारस भव्य है। काशी प्रणम्य है, बनारस रम्य है। काशी मुक्ति है विरक्ति है, लेकिन बनारस हेमंतजी की परम आसक्ति है। यदि काशी में बनारस की तलाश है तो ‘देखो हमरी काशी’ की उँगली पकड़िए…रस ही रस है।
गद्य में पद्य का रस, राग और लय का आनंद इस पुस्तक की हर कथा की प्रत्येक पंक्ति में है। दूसरे शब्दों में, इन कथाओं में तथ्य, तर्क और भाव-प्रवाह भरपूर हैं। इन्हें कई स्तरों पर पढ़ा जा सकता है। हर कथा में अनेक तल हैं। हर तल से एक भावना व्यक्त होती है, वह आत्मीयता की है।अपने व्यस्त जीवन में हेमन्त शर्मा को थोड़ी फुरसत रविवार को मिलती है। उसका सार्थक उपयोग उन्होंने ‘इतवारी कथा’ लिखने में किया। संभवतः एक दिन एक विचार ने उनके मस्तिष्क में थोड़ी खलबली पैदा की। विचार उठते हैं, उसपर अगर ध्यान न दें तो वे मस्तिष्क से फिसल जाते हैं और मन से तिरोहित हो जाते हैं। हेमंतजी की इन कथाओं में यही विशेषता सबसे पहले नजर आती है कि जो विचार उपजा, उसे उन्होंने अक्षरों में जस का तस उतारा।
इस तरह ‘इतवारी कथा’ की शुरुआत हुई। वह फेसबुक पर पढ़ी गई। पढ़ने वालों ने गहरी रुचि ली। रुचि लेनेवालों की संख्या का संबंध हेमंतजी के बड़े संसार से है। संबंध ही संसार है। ऐसा ही संसार उन्होंने देश भर में बनाया है। वे लोग परिचित भी हैं, पाठक भी हैं और उनके लेखन से प्रभावित होकर प्रशंसक भी हैं। ऐसी बड़ी जमात को कोरोना काल में इन कथाओं से आनंद की अनुभूति उस समय हुई, जब अवसाद में हर व्यक्ति ऊब-चूब हो रहा था। उन्हें इनसे राहत मिली। हर पाठक के मनःसरोवर में आनंद की एक लहर या तरंग उठी। पाठकों को हर इतवार का इंतजार रहने लगा। उनकी संख्या बढ़ने लगी। जो उत्सुकता उपजी, वह गहरे उतरने लगी। यानी पाठकों ने कहना शुरू किया कि मनमौजीपन न अपनाएँ और इस लेखन को जारी रखें। इस प्रकार 21 रविवार बीते और 21 कथाएँ पूरी हुईं।
एक दृष्टिकोण से इन कथाओं की तुलना मैं ‘बैताल पचीसी’ से करना चाहूँगा। भारतीय साहित्य में वह अनूठा प्रयोग है। उसका अतीत है, इतिहास है। वीर विक्रमादित्य उसके माध्यम हैं। जैसा रस उन कथाओं में है कि उन्हें कोई सामान्य पाठक भी पढ़े तो उसका मनोरंजन होगा। कोई समझदार व्यक्ति पढ़े तो उसे जहाँ ज्ञान प्राप्त होगा, वहीं उसे जीवन जीने का मार्ग भी मिल सकता है, जीवन जीने की विधि प्राप्त हो सकती है। उसे अपने जीवन पर दृष्टि डालने का सुअवसर भी मिलता है। वह उसे समझे, न समझे, यह उसका कार्य है। यही बात हेमंतजी की ‘इतवारी कथा’ में भी है। यदि आपको इसका प्रमाण चाहिए तो वह मेरे पास है। एक दिन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने स्नेहवश मुझे अपने निवास पर चलने और बहुत समय तक बातचीत करने का अवसर दिया। उस बातचीत में उन्होंने ‘इतवारी कथा’ की प्रशंसा करते हुए कहा कि हेमंत शर्मा विद्वान् हैं। वे इन कथाओं को पढ़ने के बाद सहज भाव से बातचीत में बता रहे थे। इसका प्रसंग उन्होंने ही छेड़ा, जिसे सुनकर मुझे बहुत संतोष हुआ।
तत्क्षण यह याद आया कि हेमंतजी के पिता और बड़े साहित्यकार मनु शर्माजी उनके पत्रकारीय लेखन को अच्छा मानते हुए भी संतुष्ट नहीं थे। वे चाहते थे कि साहित्य की उनकी धरोहर को वे बढ़ाएँ। इस इच्छा में यह धारणा भी थी कि हेमंत शर्मा इसमें समर्थ हैं। यह भी सोचा कि मनु शर्माजी नहीं हैं, पर उनकी इच्छा पूरी हो गई है। ‘इतवारी कथा’ पुस्तक के रूप में रूपांतरित होकर ‘देखो हमरी काशी’ के रूप में आ रही है। इसमें ऐसे पात्र हैं, जो हेमंतजी के या हमारे अपने जीवन के भी ताने-बाने में गुँथे हुए हैं। वे इतने अभिन्न हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना संभव नहीं हो पाता। अकसर उनपर नजर भी नहीं जाती। ऐसे पात्रों पर लिखना कठिन है, आसान तो बिल्कुल नहीं है। जो अभिन्न हो, उसपर लिखने का विचार भी साहस का कार्य है। साहस, शैली और क्या लिखें, इसका निर्धारण जैसे बड़े प्रश्न उसी तरह रास्ता रोक लेते हैं, जैसे कोई पहाड़ खड़ा हो। सब अगस्त्य मुनि नहीं हो सकते, जिनके रास्ते में विंध्याचल पड़ा तो उन्होंने उसे राह रोकने लायक नहीं छोड़ा।
इस पुस्तक में अनेक प्रश्नों के उत्तर हैं, और वे समाधानकारक हैं। पुस्तक को एक नई दृष्टि से देख सकते हैं। भारत में इतिहास लेखन की जो मूल दृष्टि रही है, उसे इसमें खोजकर समझ सकते हैं। पश्चिम की इतिहास-दृष्टि ने साम्राज्यवाद को फैलाया, औपनिवेशिकता की काली छाया को बढ़ाया और जमाया। भारत की इतिहास-दृष्टि से महाभारत और पुराण निकले। आज जब हम 2021 में हैं और उसका अंत हो रहा है तो यह प्रश्न पुनः उठा है कि हम अपने इतिहास को कैसे जानें-समझें? केवल इतना ही नहीं, बल्कि यह भी कि क्या इतिहास ईसवी सन् से शुरू होता है? भारत ने सृष्टि-क्रम को बहुत पहले खोज लिया था। उसे पुनः स्मरण करने का एक बौद्धिक क्रम प्रारंभ हुआ है। इस दौर में भारतीय सभ्यता के विभिन्न पहलुओं पर जितनी अकादमिक पुस्तकें छपी हैं, उतनी पहले कभी नहीं छपी थीं। इस पुस्तक में भी सृष्टि-क्रम को समझाने की एक अलग विधा पाठक पढ़ सकेंगे। जिन अनाम पात्रों पर इक्कीस कथाएँ हैं, उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, पौराणिक और वैश्विक संदर्भ भी हैं। इन कथाओं को पढ़ते हुए अनुभव किया जा सकता है कि इनमें भारत की ज्ञान-परंपरा की ऐसी झलक है, जो अन्यत्र इस रोचक शैली में नहीं मिलती।
‘देखो हमरी काशी’ पुस्तक संस्मरण विधा में एक नवोन्मेष है। यह संस्मरण काशी की संस्कृति और बनारसी जीवन का रंगमंच लगता है। इसमें बनारसी जीवन के वे सारे पात्र अपनी संभावनाओं और विलक्षणताओं के साथ रंगमंच पर अपनी अलग पहचान के साथ प्रकट होते हैं। कारण बताने की जरूरत नहीं है। सभी जानते हैं कि लेखक बनारस के जीवन, रंगमंच और पात्रों का द्रष्टा भर नहीं है, वे स्वयं बनारसी जीवन में रचे-बसे हैं। इस नाते श्री हेमंत शर्मा ‘देखो हमरी काशी’ के अनजान नायकों की कहानी कहनेवाले कथाकार भर नहीं हैं, बल्कि वे सहयात्री और सहभागी भी हैं, इसलिए ये संस्मरण आत्मकथात्मक भी हैं।
‘देखो हमरी काशी’ में वर्णित व्यक्तियों के जरिए काशी की संस्कृति, परंपरा और जीवनधारा की खोज की गई है। पुस्तक के शीर्षक से संस्मरणों के पात्रों और विषय-वस्तु का आभास हो जाता है। ‘देखो हमरी काशी’ शास्त्रीय, शिष्ट और अभिजात्य काशी की खोज भर नहीं है, बल्कि यह उन लोगों की कहानी है, जिनके बारे में अब तक कहीं लिखा नहीं गया है। हाँ, यह जरूर हुआ है कि संकेतों में ऐसे लोगों को अनेक विशेषणों से संबोधित कर अपने कर्तव्य की इतिश्री हो गई, ऐसा मान लिया गया है। इस पुस्तक में लेखक का लेखकीय व्यक्तित्व और उसकी पक्षधरता स्पष्ट है। इसे यों भी कह सकते हैं कि इस पुस्तक में लेखक वर्ण व्यवस्था की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं। बनारस और लखनऊ की एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। ये दोनों शहर सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक विभूतियों के केंद्र रहे हैं। लेखक की इन विभूतियों से घनिष्ठता भी रही है। पर इन संस्मरणों के नायक समाज और सत्ता के केंद्र में स्थापित नहीं हैं। ‘इतवारी कथा’ का दूसरा नायक लँगड़ा मोची है। अगले सारे नायक इस क्रम से हैं—अथ पखंडी कथा, हीरू पानवाले, रिश्तों की तुरपाई करता दर्जी, ज्यों-की-त्यों धर दीनी चदरिया, चूहड़मल और पप्पू चायवाले, सालिगरामवा, बापू-अखबारवाला, पेल्हू पंडा, चंपाबाई-तवायफ, चंपाबाई-दो, सरदार अहमद-बढ़ई, शंभू मल्लाह, सलाम चचा और हीरा लाल वाल्मीकि, कल्लू पहलवान, मिष्टान्न महाराज, यानी बचानू हलवाई, मुख्तार-बैंडवाले, पाठक-ड्राइवर, धर्मराज-तेली और डोम राजा। पहली कथा का शीर्षक है—‘होम हेयर कटिंग सैलून’। इस कथा के केंद्र में हेमंतजी की पत्नी श्रीमती वीणा शर्मा हैं। उनके बहाने यह कथा बढ़ती है। इसमें नाई बिरादरी के अपने परिचितों की कहानी बताते हुए उनकी विशेषताओं को भी लेखक ने अपने ढंग से चिन्हित किया है। शुरुआत इसी से हुई थी, फिर सिलसिला चल पड़ा। शुरुआत घर से हुई, लेकिन वीणाजी सिर्फ घरवाली नहीं हैं, वे सहयात्री भी हैं।
जो सदियों से सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अपरिहार्य अंग रहे हैं, वही आधार भी थे; ऐसे लोगों को केंद्र में रखकर कथा बुनी गई है। ये लोग सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था में हाशिए पर ही रहे हैं। हम अकसर सांस्कृतिक मनीषियों और राजनीतिक हस्तियों को शहर का पर्याय समझते हैं, पर यहाँ लेखक ने मनीषियों व शिखर पुरुषों के साक्षात्कार एवं उनके यशोगान से काशी और लखनऊ को महिमामंडित नहीं किया है, बल्कि इसके ठीक विपरीत यहाँ सांस्कृतिक विभूतियाँ रंगमंच के नेपथ्य में हैं तथा केंद्र में हैं—बनारसी संस्कृति के आधार, वाहक और प्रतिनिधि वहाँ के सामान्यजन। लेखक के जीवन में असाधारण व्यक्तियों की सक्रिय उपस्थिति रही है। इन संस्मरणों में राजीव गांधी, राजमोहन गांधी, कल्याण सिंह, संजय सिंह, अब्दुल बिस्मिल्लाह, नामवर सिंह, प्रभाष जोशी, राजन मिश्र, साजन मिश्र आदि जैसे राजनीतिक व सांस्कृतिक पुरुषों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपस्थिति है, पर ये सभी इन संस्मरणों के नायक नहीं हैं। ‘देखो हमरी काशी’ के नायक अद्भुत व्यक्तित्ववाले नाई, धोबी, मेहतर, अहीर, तेली, हलवाई, बैंडवाले आदि हैं। इन नायकों का अस्तित्व काशी पर निर्भर था। पर क्या इनके बिना काशी और लखनऊ वैसे ही महसूस होते हैं, जैसे इन नायकों के होने पर होते थे? संभवतः इसी मार्मिक प्रश्न ने इन संस्मरणों को सार्थक बनाया है।
लेखक काशी का है, तो काशी की संस्कृति एवं जीवन के प्रति रागमय जिज्ञासा स्वाभाविक है। लेखक काशी की विराट् व अथाह संस्कृति एवं जीवन को समझने के लिए पुरातत्त्वविदों के समान अतीत के कंकालों की जाँच-पड़ताल नहीं करता और न वह अतीतोन्मुख होकर अजायबघरों की यात्रा करता है, बल्कि वह जीते-जागते अपने समकालीन विलक्षण नायकों के जरिए काशी की खोज ही नहीं, अपितु काशी को अनुभव भी करता है। जैसे-जैसे कथा बढ़ती है, इसका पाठक भी उसी अनुभव से गुजरता हुआ एक मोड़ पर पहुँचने के भाव से भरपूर हो जाता है। बनी-बनाई परिभाषा में लेखक को इतिहासकार उस अर्थ में नहीं कहेंगे, जिस अर्थ में चलन है। इन कथाओं के पाठक यह अनुभव किए बिना नहीं रह सकते कि कोई भी इतिहासकार यह काम नहीं कर सकता। हेमंत शर्मा ने इतिहास को संवेदना से संयुक्त कर जीवंत बना दिया है। उन्होंने जिन अति साधारण, लेकिन जीते-जागते व्यक्तियों से संस्कृति का मर्म प्राप्त किया है, उसे ही अपने शब्दों में पिरोया है।
काशी की अपनी बहुआयामी सांस्कृतिक पहचान है, जिसका आधार इतिहास से भी परे है, जो गहरा है और आसमान को छूता है। जिस काशी के शिखर से लोग सुपरिचित हैं, उसी के आकर्षण में वे वहाँ खिंचे चले जाते हैं। इन कहानियों में उन सांस्कृतिक प्रतिनिधियों की स्तुति नहीं है, बल्कि संस्कृति के आधार के स्तंभ रूप में उन व्यक्तियों का वर्णन है, जिन्हें हमने भारत के राष्ट्रगान में जन-गण के रूप में स्थापित किया है। शहर का जीवन हो या व्यक्ति का, वह केवल महानायकों से नहीं चलता। यह बात अलग है कि महानायक और नायक ही इतिहास बनाते हैं, इतिहास में उनका ही उल्लेख होता है। लेकिन शहर की जीवनधारा में भले ही राजनीतिक नेता, प्रशासक, उद्यमी, साहित्यकार, रंगकर्मी, कलाकार और ऐसे ही विशिष्टजन छाए रहते हैं, परंतु नगर का जनजीवन और उसकी अस्मिता, विशिष्ट जीवन-शैली, अंदाज और मिजाज आदि का निर्धारण अधिकांशतः साधारणजन करते हैं, जिन्हें हम ड्राइवर, दर्जी, धोबी, नाई, हलवाई, पनवाड़ी, मोची आदि के रूप में पाते हैं। इनके बिना शहर और जीवन की कल्पना संभव नहीं हो सकती। इस पुस्तक के सभी पात्र जीवित व जाग्रत् हैं, वैसे प्रकट होते हैं। अपने यहाँ आत्माओं को तंत्र के जरिए बुलाने की भी एक साधना-पद्धति रही है, जिसे संस्मरण-कथा का विषय शायद ही बनाया गया हो। यह पुस्तक उस दिशा में नई पहल है।
इस पुस्तक के पात्र चाहे जो हों, वे सामाजिक जीवन में साधारण भले माने जाते हों, पर कथा में वे असाधारण हैं। उनमें विलक्षणताएँ हैं। उनमें से एक यह है कि जिन व्यक्तियों को केंद्र में रखकर कथा बुनी गई है, वे इतने असाधारण व्यक्ति दिखते हैं कि हम उन्हें समाज की सांस्कृतिक धरोहर मान सकते हैं। कथा में वे ऐसे ही प्रतीत होते हैं। हेमंतजी के संस्मरणों के व्यक्ति-चरित्र अत्यधिक जाने-पहचाने हैं। जीवन की स्थितियाँ भी रोज की-सी हैं, लेकिन लेखक के हाथों वही हाशिए का साधारण व्यक्ति एक दुर्लभ सांस्कृतिक प्रतीक में बदलता जाता है। यह बदलाव ही रूपांतरण है।
‘हम अब कहाँ आ गए हैं’ और ‘वे लोग अब नहीं हैं’ का भाव सारे संस्मरणों पर गहरे विषाद की तरह छाया हुआ है। अंत में पाठक एक प्रश्न पूछने को मजबूर हो जाता है कि ‘वे लोग और वे शहर कहाँ खोते जा रहे हैं?’ यही इस पुस्तक का यक्षप्रश्न भी है। अभी तक संस्मरण प्रमुखतः एक व्यक्ति विशेष पर केंद्रित रहे हैं। यह पुस्तक संस्मरण से आगे जाती है। हेमंतजी के जरिए यह पुस्तक एक सांस्कृतिक यात्रा-सी लगने लगती है, क्योंकि लेखक ने सीधे जीवन का वह अध्याय खोला है, जो उसकी अपनी जिंदगी के बीच इन व्यक्तियों एवं शहरों में एक यादगार के रूप में था, अब वह शब्दचित्र बन गया है।
महादेवी वर्मा के संस्मरणों और रेखाचित्रों में भाँति-भाँति के पात्र हैं। उनके भी अनेक तल हैं। उन संस्मरणों में त्रासद घटनाओं पर आधारित करुणा का भाव भी है। महादेवीजी के संस्मरण चरित्र और घटना-प्रधान प्रतीत होते हैं, जिसमें अधिकांशतः पात्रों के त्रासद जीवन और मृत्यु का चित्रण है, जबकि श्री हेमंत शर्मा के संस्मरण केवल व्यक्ति विशेष पर आधारित नहीं हैं, बल्कि परिवेश पर भी समान रूप से केंद्रित हैं। बनारस और लखनऊ से संबंधित इनके पात्र अपने शहर से अन्यान्य भाव से जुड़े हुए हैं। ऐसा अनुभव होता है कि वे अगर शहर हैं तो व्यक्ति के रूप में शहर के शरीर की धमनी हैं। इसकी तुलना किसी दूसरी पुस्तक से नहीं हो सकती। अगर कोई चाहे भी तो इस पुस्तक को ‘काशी का अस्सी’ के धरातल पर नहीं पहुँचा सकेगा। उसमें भाषा का और शब्दों का बेढंगापन है।
इस पुस्तक में वह खोजने पर भी नहीं मिलता। इस आधार पर मेरा कहना है कि कोई तुलना है ही नहीं। खींचतान कर भी नहीं हो सकती। ‘हमरी काशी’ को काशी का देशज ‘जन रंगमंच’ कह सकते हैं। इसमें वह काशी नहीं है, जिसे लोग जानते हैं। इसमें वह काशी है, जिसमें लोग रहते हैं। जानने और जीने में फर्क होता है। वह इस पुस्तक के संस्मरणों में है। इन मोतीरूपी बूँदों से ही काशी की सागरनुमा संस्कृति को हम इसमें पाते हैं।इन मोतियों के बिना काशी का अनुभव असंभव भी है और अपूर्ण भी।
हेमंत शर्मा की स्मृति में वे नाम भी हैं, जो राजनीति, साहित्य, संस्कृति और पत्रकारिता के शिखर-पुरुष रहे हैं। उनसे इनका गहरा संबंध भी रहा है, जो इनके स्वभाव की विशेषता है। लेकिन इस पुस्तक में उन्होंने उन बड़े नामों को नहीं चुना है, बल्कि ऐसे व्यक्तियों का चयन किया है, जिन्हें नींव का पत्थर कह सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों के संस्मरणों को जीवंत और व्यापक परिधि में प्रस्तुत करने के लिए जिस विधा को उन्होंने अपनाया है, वह नई है तथा पथ-प्रदर्शक भी है। ‘नींव के पत्थर’ का वर्णन बिना शिखर की शोभा को बताए पूरा नहीं होता। हालाँकि यह कार्य कहने में सरल लगता होगा, लिखने में कठिन और लगभग असंभव-सा है। पठनीयता बनी रहे और रोचक भी हो, यह बड़ी चुनौतीपूर्ण होती है। इस कसौटी पर इन कथाओं की अपनी पहचान है। इनमें सांस्कृतिक परंपरा, लोक, वेद, मिथक, धर्म, पुराण, इतिहास आदि से संबंधित प्रसंगों और तथ्यों का आश्चर्यजनक समावेश है। हेमंतजी स्वयं खाँटी बनारसी हैं, जिनका वर्तुल भारतीय है और जो वैश्विक मूल्यों की एक परिधि बनाता है। यह सचमुच एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व के उस आयाम का प्रकटीकरण है, जिसमें मानवता भी भरी-पूरी है। इस लिहाज से यह भारत-कथा भी है।
ये संस्मरण कोई अलग टापू नहीं बनाते, बल्कि समाज में सेतु का सृजन करते हैं। इन संस्मरणों में हेमंत शर्मा को खोजना नहीं पड़ता। वे साथ-साथ चलते हैं। कहीं-कहीं कहानी कहते हुए वे नेतृत्व भी करते हैं। इस अर्थ में ही वे सामान्य जन और लोक के सेतु का सृजन कर रहे हैं। रचना-संसार इसी अर्थ में इस पुस्तक से समृद्ध हो रहा है। इसमें बहुरंगी धाराएँ हैं। इसमें तुलसी भी हैं और कबीर भी। विश्लेषण और काट-छाट को संश्लेषण में रूपांतरित करना संभव है, यह स्वीकार भाव भी बना रहता है। संस्कृति, परंपरा और नैतिकता के अपने उदात्त भाव के बावजूद लेखक सांस्कृतिक वर्जनाओं और नैतिकता के चाबुक से अपने नायकों को प्रताड़ित नहीं करता है। अपने नैतिक आग्रहों के बावजूद वह एड्स से मरे अपने मोची मित्र को तटस्थ भाव से सम्मान दे सकता है। उसकी मानवीय दृष्टि लांछित नर्तकी के भीतर प्रवाहित मातृत्व को श्रद्धा से देख सकती है। यहाँ बताना जरूरी है कि जहाँ अविश्वास तिरोहित हो जाता है, वहीं श्रद्धा पैदा होती है, जिसका उपदेश श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं। हेमंतजी दिल्लीवासी हैं। नोएडा भी दिल्ली ही है। लेकिन जरूरत पड़ने पर निस्स्वार्थ भाव से वापस बनारस या लखनऊ अपने बिछुड़े साथियों के पास जाते रहते हैं।
मीडिया की सत्ता, अपनी शक्ति, अर्थ और ज्ञान-संपन्न इस ब्राह्मण का ‘अहं’ वर्गांतरण के लिए मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस’ या ‘अँधेरे में’ के नायक समान स्वयं-संघर्षरत नहीं है। वह ‘क्रांति’ का दिवास्वप्न नहीं देखता है, पर जिन्हें साधारणजन कहते हैं और जो कभी वर्णाश्रम व्यवस्था में निचले पायदान पर थे, जो बिगड़ती परिस्थितियों में जाति की कुप्रथा में पड़ गए, उनसे भी लेखक का आत्मीय संबंध बना रहना सिर्फ संस्मरण में नहीं है, वास्तव में भी है। वह अकृत्रिम है। नाई, धोबी, मेहतर, मोची, दर्जी—सभी उसके हमसफर प्रतीत होते हैं—उत्साह और उमंग से भरे सहयात्री। इन संस्मरणों में हास्य-व्यंग्य से लबालब भरी हुई जिंदगी हमें मिलती है। ऐसे समय में, जब पड़ोस और संयुक्त परिवार का दायरा सिकुड़ रहा है, तब मेहतर, धोबी आदि का एक प्रभुत्व-संपन्न कुलीन ब्राह्मण की रसोई तक में नियमित पारिवारिक प्रवेश सुखद और आश्चर्यजनक लग सकता है, लेकिन यह वास्तविकता है।
आज के तेजाबी सांप्रदायिक-जातिवादी उन्माद तथा असहिष्णुता के दौर में जब हमारे सारे निर्णय और व्यवहार इनसे नियंत्रित और निर्देशित प्रतीत होते हैं, तब यह आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि काशी का एक सामर्थ्यवान ब्राह्मण एक बेबस मुसलिम जुलाहे की हजयात्रा की मुराद को पूरी करता है। उसके लिए जुगाड़ करता है। एक मेहतर उसके घर पर उसके साथ मित्रवत् रोजाना चाय पी सकता है। दिल्ली की व्यस्तता के बावजूद वह बनारस के अपने धोबी और वाल्मीकि मित्र की शादी में पारिवारिक सदस्य के रूप में उत्साहपूर्वक जा सकता है। पारिवारिक मर्यादाओं और अनुशासनों से बँधकर भी वह पनवाड़ी और धोबी को अंग्रेजी पिला सकता है। वह केवल शादी-विवाह और रसोई में उनके साथ नहीं है, अस्पताल और श्मशान में भी उनके साथ है। ये संस्मरण कोरी शाब्दिक भावुकता से रहित कर्मप्रधान हैं। इन संस्मरणों के पात्रों के जीवन में लेखक की सक्रियता और सकारात्मक हस्तक्षेप के उदाहरण उन्हें नहीं चौंकाते, जो हेमंत शर्मा को जानते हैं। जो नहीं जानते, वे पढ़कर अनुभव कर सकते हैं। शाब्दिक सहानुभूति और नारेबाजी के साहित्यिक-राजनीतिक दौर में लेखक की व्यावहारिक सक्रियता साहित्य और मनुष्यता का उज्ज्वल संदर्भ और अनुकरणीय जीवन-मूल्य है।
संभवतः हिंदी संस्मरण विधा में पहली बार इतने असाधारण दलित और श्रमजीवी पात्र एक साथ उपस्थित हैं। थोड़ा गौर करें तो यह बात जान पाते हैं कि इन सामान्य सी नियतिवाले इन नायकों की असाधारणता को पहचानने की इन संस्मरणों में एक दृष्टि है, जो दृश्य के समान मूल्यवान और प्रासंगिक है। सीमित और संकीर्ण दृष्टि लघुता में निहित विराटता का भला कैसे साक्षात्कार कर सकती है! विलक्षणता का दर्शन विलक्षण दृष्टि से ही संभव है। जब तक मानवीय दृष्टि न हो, तब तक ऐसे संस्मरण लिखे नहीं जा सकते।
साहित्य में हेमंत शर्मा के ये संस्मरण नए प्रयोग हैं। विषय के चयन में और लेखन की शैली से अभिव्यक्ति तक में इन नए प्रयोगों को देखना और पहचानना संभव है। संस्मरण मुख्यतः व्यक्ति केंद्रित होते हैं, और हेमंतजी के ये संस्मरण भी अनिवार्यतः व्यक्ति सापेक्ष हैं, पर ये केवल व्यक्ति विशेष की स्मृति भर नहीं हैं। यहाँ व्यक्ति के साथ उसके शहर और परिवेश का भी जीवंत चित्रण है। इन संस्मरणों के नायक व्यक्ति हैं या शहर, इसका एकपक्षीय निर्धारण कठिन है। यहाँ नायकों की असाधारणता को शहरी जीवन की जीवंत पृष्ठभूमि में चित्रवत् प्रस्तुत किया गया है। साधारण व्यक्ति को केंद्र में रखकर असाधारण तरीके से उनका परिचय और शहर की संस्कृति की एक झलक हर संस्मरण में है। उसमें अतीत, संस्कृति, परंपराएँ आ गई हैं, लेकिन यह नहीं कह सकते कि उनका वर्णन शास्त्रीय है। हाँ, शास्त्र से प्रमाण अवश्य है, पर उसे जीवन के व्यवहार से इस तरह संस्मरण में जोड़ दिया गया है कि वह रफू किया हुआ नहीं लगता, बल्कि ऐसा लगता है कि वह रंगीन बुनावट में एक नए रंग का मिश्रण है।
इन संस्मरणों से जिज्ञासा का भाव जगता है, जिसमें लेखक के विस्तृत अध्ययन का परिचय तो मिलता ही है, यह भी अनुभव किया जा सकता है कि ये बातें एक जीवन-मूल्य से निकलती हैं। उसके स्रोत ऐतिहासिक हैं, पौराणिक हैं। जो वर्तमान है, वह उसी से समृद्ध होता है। ऐसे वर्णन अकसर विद्वत्तापूर्ण होते हैं। उनका अपना महत्त्व है, जो सुबोध और सहज ढंग से लिखे जाने पर अधिक पठनीय बन जाते हैं। यही इस पुस्तक में भी हुआ है। ऐसे संस्मरणों में जहाँ अतीत की स्मृति होती है, वहाँ भावुकता आ जाती है। करुणा और शोक की मार्मिकता के बीच हास्य-व्यंग्य की व्यंजना भावुकता के बाँध को बनाए रखती है, क्षतिग्रस्त नहीं करती। कल्लू पहलवान अद्भुत काशी के विलक्षण अहीर हैं। ‘कल्लू जब रात में दारू पी लेते हैं तो अपनी पत्नी को अपने ससुर की माँ कहकर पुकारते हैं।’ वे ‘गाय की तरह सीधे, बैल की तरह मेहनती और भैंस की तरह मूढ़ थे।’ ‘पर कल्लू नाना विधि से गोरक्षा का गोरखधंधा करते थे।’ फिर लेखक की दृष्टि कल्लू से उठकर काशी के सामान्य अहीरों पर चली जाती है। ‘इन अहीरों का राष्ट्र वाद्य नगाड़ा है। गमछा उनकी राष्ट्रीय पोशाक है। गमछे के नीचे लटकटी लाल लँगोट की लाँग उनकी पहचान है।’ ‘जब इनकी भैंस निकल जाएगी, तभी कोई वाहन आगे बढ़ेगा।’
यह वह एक अंश है, जिससे समझना आसान है कि हेमंत शर्मा में पात्र और परिवेश की न केवल सूक्ष्म समझ है, बल्कि उनके पास इन व्यक्तियों, भावों, चित्रों और ध्वनियों को संप्रेषित करने के विशिष्ट भाषायी उपकरण और अभिव्यक्ति की क्षमता भी है। शंभू मल्लाह का यह चित्रण चलचित्र-सा गतिशील और दृश्यमान प्रतीत होता है। ‘गोता’ शब्द के प्रयोग से ही मेरी स्मृति की मंजूषा फड़फड़ाने लगी। शिव की नगरी में शंभू। शंभू मल्लाह, यानी अव्वल किस्म के गोताखोर। धारा के खिलाफ नाव खेने के उस्ताद। सुबह से ही देसी लगाकर गंगा की चिंता करनेवाला गंगापुत्र। अपनी धुन का उतना ही पक्का, जितना भगवान् राम को नदी पार कराने वाला निषादराज। निषादों के आत्मगौरव से लबालब शंभू अकसर यह ऐलान करते कि ‘कोलंबस और वास्को डि गामा भी मल्लाह थे, क्योंकि वे भी नाविक थे।’… ‘शंभू सुबह से ही देसी में तर-ब-तर रहते। उसी देसी तरन्नुम में वे शहर को अपने अँगूठे पर रखते। अपना काम निकलवाने के लिए पुलिसवाले भी काम के वक्त उन्हें ‘देसी’ उपलब्ध करवाते थे। फिर शंभू फौरन डुबकी लगाते और पानी के भीतर से लाश या सामान बड़ी आसानी से ढूँढ़कर बाहर निकाल लाते।’…‘दुबले-पतले, चीमड़ शरीरवाले शंभू का रंग चमकता हुआ काला था, लगभग बैंगनी। धूप में तो उनके शरीर पर आँख नहीं टिकती थी। ऊपर से वे अपने पूरे शरीर पर तेल मले रहते।’
जब मृत्यु से पूर्व जीवन हास्य-व्यंग्य से भरपूर है, तब कला में त्रासदी और हास्य-व्यंग्य का कृत्रिम अलगाव क्यों हो! जीवन को उसकी वास्तविकता में स्वीकार करने और उसे अकुंठ भाव से प्रस्तुत करने की क्षमता के कारण त्रासदी और हास्य का यह सहज संयोजन संभव हो सका है। वैसे भी काशी में जीवन और मृत्यु का अलगाव नहीं है। वे प्रारंभ और अंत भी नहीं माने जाते। जीवन और मृत्यु—दोनों में उत्सव ही काशी है। तभी तो मृत्यु का वरण करने के लिए काशीवास की परंपरा है। है कोई ऐसा दूसरा स्थान दुनिया में?
अगर ये सारे संस्मरण थोड़े फुरसत में लिखे जाते तो संभवतः हमें लेखकीय शैली की कुछ और विविधता, उसके नए रंग-रूप पढ़ने को मिलते। एक क्रम से और पाठकों की चिंता कर लगातार लिखे जाने की वजह से शैली में एकरूपता सी आ गई है। पर जीवन से गहरे जुड़ाव, सहृदयता, विलक्षणता, जिंदादिली और व्यंजनापूर्ण होने के कारण कहीं भी यह शैलीगत एकरूपता मार्मिकता को बाधित नहीं करती है।
दैनिक जीवन में परिचित व्यक्तियों के अलावा इन कथाओं में यहाँ कुछ अति विशिष्ट व्यक्तित्व भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में उपस्थित हैं। ड्राइवर से संबंधित संस्मरण में राजीव गांधी की अप्रत्यक्ष, पर आश्चर्यजनक उपस्थिति है। भारतीय राजनीति में गांधी परिवार और अमेठी पर्याय और अन्योन्याश्रित प्रतीत होते रहे हैं। पर संसदीय लोकतंत्र का यह वह अँधेरा तहखाना है, जो इस कथा की रोशनी से सामने आया है कि भारत का प्रधानमंत्री अमेठी में अपनी लोकप्रियता से नहीं बल्कि सुनियोजित हिंसा, हत्या और बूथ कैप्चरिंग से जीतता रहा है, जिसे दुनिया जनादेश कहती है। यह कथा बताती है कि वह जनादेश फर्जी होता था। इस कथा में एक पत्रकार की खोजपरक नजर, निर्भीकता और स्पष्टवादिता भी मुखर है। हेमंतजी में पत्रकारिता और साहित्य की संश्लिष्टता की गौरवशाली परंपरा का पुनः उन्मेष दिखाई देता है, जब इसी कथा में हम वह प्रसंग पढ़ते हैं, जिसका संबंध महाभारत के युद्ध समाप्त हो जाने पर अर्जुन और श्रीकृष्ण की रथ संबंधी वार्त्ता से है। यहाँ इसका भी उल्लेख है कि ‘मेरे पिताजी (श्री मनु शर्मा) कृष्ण के अध्येता थे। उन्होंने ही यह कथा बताई थी। इसलिए मैं भी पाठक ड्राइवर के संकल्प की इज्जत करता था।’ सारथी को यहाँ हेमंतजी ने ड्राइवर बना दिया है।
इन कथाओं में इनके नायकों की मृत्यु की केवल सूचना भर है। करुणा, मृत्यु और त्रासदी का भावविह्वल चित्रण नहीं है। अवश्य उनके असाधारण व्यक्तित्व को उभारा गया है। इनमें नायकों की जिजीविषा, जिंदादिली, विलक्षणता और विशिष्टता को मूर्तिमान किया गया है। क्या यही वह मूल कारण नहीं है, जिससे हाशिए के ये नायक दया और सहानुभूति के पात्र न रहकर श्रद्धेय प्रतीत होने लगते हैं।
लेखक ने मानवीय रिश्तों के गहरे सागर में गोता लगाकर जिन मोतियों को पाया था, वे सभी समय के क्रूर प्रवाह में हमेशा के लिए गुम हो गए हैं। लेखक की संस्मरण-यात्रा के साक्षी होने के पश्चात् ये सारे मोती लेखक की निजी धरोहर नहीं रह जाते, बल्कि ये परंपरा की उज्ज्वल धरोहर प्रतीत होने लगते हैं। इनका गुम होना सांस्कृतिक रिक्तता का एहसास कराने लगता है। कभी इन मोतियों के झिलमिलाने से ही शहर अपना वह शहर हुआ करता था। व्यक्ति-विशेष के गुम होते जाने की कथा शहरों के निष्प्राण होते जाने की कथा में रूपांतरित हो जाती है। यह व्यक्ति, समय और परिवेश की नियति की मार्मिक कहानी बन जाती है।
विविध दबावों के कारण हमारी संस्कृति, परंपराएँ एवं जीवन-शैली बदल रही है। हमारे जीवन के साथ रहीं सदियों पुरानी बहुत सारी चीजें न केवल समाप्त हो रही हैं, बल्कि विस्मृत भी हो रही हैं, मानो जीवनरूपी किताब के कुछ मूल्यवान पन्ने हमेशा के लिए गायब हो गए हों। मन में आवेगमय प्रश्न उठने लगता है कि ‘हम कहाँ से कहाँ आ गए?’ और ‘अब कहाँ जाएँ?’ फिर यह प्रश्न लेखक का न होकर संपूर्ण मानवता का हो जाता है कि आखिर वे अद्भुत नायक हमेशा के लिए शहर को अलविदा कहने के लिए क्यों अभिशप्त हैं?ये पंक्तियाँ ऐसे ही समय के लिए हैं—‘वे सूरते-इलाही किस मुल्क की बस्तियाँ हैं, अब देखने को जिनको आँखें तरसती हैं।’
पद्मश्री से सम्मानित रामबहादुर राय इन्दिरा गॉधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अध्यक्ष है।