परमेंद्र मोहन-
एनडीटीवी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स आख़िरकार बदल गए और बिकवाली-खरीदारी को लेकर किचकिच की कहानियां थम गईं। वैसे भी एनडीटीवी हंसुली के ब्याह में खुरपी का गीत सदृश अटपटा सा ही था। एनडीटीवी बाकी नेशनल न्यूज़ चैनलों के सुर का रिदम ही बिगाड़ देता था, सब मिलकर अच्छा-ख़ासा कोरस गाते मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा, लेकिन ये तो उल्टी धारा लेकर अपनी ढपली, अपना राग छेड़े रहता था। अनेकता में एकता हमारे देश का मूलमंत्र है, ये चैनल उस एकता में अनेकता की कोशिशों में लगा रहता था। वैसे मीडिया में अडानी की इस चर्चित एंट्री की चर्चा मीडियाकर्मियों की औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं का भी हिस्सा है।
अभी हाल ही में कुछ मीडिया मित्रों से बात हो रही थी तो उसमें एक मित्र ने कहा कि टीआरपी का क्या है, जहां-जहां अंबानी का चैनल, वहां-वहां नंबर वन, बाकी सब जो चाहें चलाते-दिखाते रहे, बार्क तो सेट है। दूसरे ने टिप्पणी की कि बस साल-छह महीने की बात है, अडानी का चैनल नंबर वन हो जाएगा।
तीसरे की टिप्पणी थी-वो तो होना ही है क्योंकि अंबानी से तो अडानी ही निपट सकता है, बाकी सब मालिकान के लिए तो ब्रेड-बटर का जुगाड़ बरकरार रहे, उतना ही काफी है। चर्चा का समापन इस टिप्पणी से हुई कि कामगारों की दाल-रोटी पर डाका न पड़े यही बहुत है। अब पता चल रहा है कि ज़ी ग्रुप के बहुत से पत्रकारों की दाल-रोटी भी छिन चुकी है, ज़ी हिंदुस्तान नेशनल चैनल समेटा जा चुका है और वहां के संपादक साहब भारी मन से टीम के साथियों को विदाई देकर और विदाई लेकर नए चैनल की संपादकी संभाल चुके हैं।
ज़ी हिंदुस्तान में मैं भी काम कर चुका हूं, कई साथी हैं वहां, अचानक नौकरी जाने से मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा होगा उन पर, तो निजी तौर पर हमारी चिंता एनडीटीवी को लेकर नहीं, बल्कि ज़ी के साथियों को लेकर ज़्यादा है। रॉय दंपति हों या रविश कुमार, ये लोग तो ब्रेड- बटर-दाल-रोटी का इंतज़ाम कर चुके, लेकिन दशक-दो दशक गंवाकर भी हज़ारों की तनख्वाह में सिमटे साथियों का क्या होगा, ये अहसास भयावह है। शुभकामनाएं।
प्रवीण-
एनडीटीवी रहे या ना रहे रवीश कुमार का जादू हमेशा बरकरार रहेगा. रवीश की सलाह मानते हुए तीन साल से न्यूज देखना बिल्कुल बंद कर दिया. प्राइम टाइम भी आखिरी बार कब देखा था वो भी याद नहीं.
लेकिन आज अगर रोजगार है तो रवीश की वजह से ही है. रवीश का प्राइम टाइम देखकर ही टॉपिक्स की काफी जानकारी मिल जाती थी. और उसी की बदौलत जहां (गलत जगह ही सही) हैं वहां पहुंच पाए.
वो भी नहीं कर पाए जो करने आए थे. पर एक वक्त था जब नौकरी का ऑफर लेटर हाथ में होने के बावजूद रवीश के साथ बिना पैसे के इंटर्नशिप करने के लिए मेल तक कर दिया था. जवाब नहीं मिला वो अलग बात है.
रवीश के साथ एक अलग ही मोहब्बत रही है. हर मोहब्बत का अपना एक वक्त होता है.