Sanjeev Chandan : साहित्य अकादमी में यौन शोषण, शिकायत कर्ता की प्रताड़ना और यौन-शोषण व बलात्कार पर बेहतर स्त्रीवादी लेखन करने वाली लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का अधिकारियों का बचाव… साहित्य अकादमी कल से 6 दिवसीय साहित्य सम्मेलन का आयोजन करने जा रहा है। इस बीच उसने जघन्य सेक्सिस्ट डिसीजन लेते हुए अपने सचिव पर यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली आरोपकर्ता को ही नौकरी से बर्खास्त कर दिया है।
इस जघन्य सेक्सिस्ट कार्रवाई पर साहित्यकारों का रवैया भी आमतौर पर साहित्यिक जमात की अपनी परम्परा के अनुरूप है-लाभ-हानि के जोड़ घटाव से। लेकिन सबसे चौकाने वाला बयान मैत्रेयी पुष्पा का है, उन मैत्रेयी पुष्पा का जिन्होंने अपनी नायिकाओं अल्मा और सारंग आदि के यौन-उत्पीडन, बलात्कार पर राजनीतिक रूप से बेहतरीन स्टैंड की कथाएं लिखी हैं।
मैत्रेयी ने वेब पोर्टल जनचौक से बात करते हुए घटना का बर्डेन आरोपकर्ता महिला कर्मचारी पर ही डाल दिया है। उनका कहना है कि कर्मचारी ने शुरू में ही क्यों नहीं शिकायत की। उनके अनुसार जबतक लाभ मिलता रहता है तबतक महिलाएं मुंह नहीं खोलती हैं।
मैत्रेयी जी यह सच है कि कई बार महिलाएं कई कारणों से मुंह नहीं खोलतीं लेकिन अल्मा और सारंग के समाज को तो आप बखूबी समझती हैं-जहां जब भी मुंह खुले उसका स्वागत होना चाहिए। आपको एक कहानी बताता हूँ। यथार्थ की। अभी हाल में मीटू के दौरान कुछ लड़कियों ने मीटू की घटनाएं लिखीं लेकिन उन्हीं लिखने वालियों ने एक साहित्यकार व पत्रकार के बारे में नहीं लिखा जिसके बारे में उन्होंने अपनी किसी साथी को बताया था-जांघ पर हाथ रखने की बात। आजतक उन्होंने नहीं बोला है। कई बार नहीं बोलती हैं महिलाएं। कारण कुछ भी होता है।
होता यह भी है कि बोल देने से आरोपी पर कार्रवाई होती है या शर्मसार होता है वह लेकिन ऐसा नहीं होता है कि इससे दूसरी घटनाएं रुकती हैं, क्योंकि यौन-आपराधी दूसरों की सजाओं से सबक नहीं लेते। न बोलने से जरूर उन्हें किसी दूसरी शिकार पर तरीका आजमाने का मौका मिलता है। लेकिन न बोलने के कई कारण होते हैं मैत्रेयी जी-आप भी समझती होंगी। और वे कारण हमेशा अवसरवाद ही नहीं होते।
खैर, मैं यह भी नहीं कह रहा कि किसी पर आरोप लगे और उसे तुरत ईंट-पत्थरों से ठोक-पीट देना चाहिए, गिरफ्तार करके प्रताड़ित करना चाहिए। लेकिन जैसी की वायर जैसे प्रतिष्ठित वेब पोर्टल की खबर कहती है कि इस मामले मे प्रारम्भिक जांच में सचिव दोषी पाए गये हैं। ऐसे में उल्टा महिला कर्मचारी को नौकरी से बर्खास्त कर और सचिव को निर्भीक रखकर अकादमी क्या मिसाल दे रही है? क्या संकेत है? यह तो कानूनन अपराध है। और इस अपराध के पक्ष में साहित्यकार किसी भी लाभ-लोभ के कारण आरोपकर्ता के खिलाफ ईफ़-नो-बट कर रहे हैं तो वह भी एक अपराध है।
शेष तो गैंग की तरह व्यवहार कर किसी भी स्टैंड के पक्ष-विपक्ष में प्रबुद्ध जन राय दे सकते हैं, देते ही रहे हैं। उनका महत कर्तव्य भी है कि 24-29 तक साहित्य अकादमी की साहित्य-गंगा में डुबकी लें।
Vimal Kumar : यौन उत्पीड़न के मामले में साहित्य अकेडमी के सचिव को कम से कम साहित्योत्सव में भाग नही लेना चाहिए और पुरस्कार समारोह में उन्हें मंच पर नही होना चाहिए। उस महिला की नौकरी भी बहाल हो जिसे सचिंव ने बरखस्त कर दिया।जब तक अदालत का फैसल इस मामले में नही आता तब तक उन्हें सार्वजनिक समारोहों में भाग नही लेना चाहिए।लेखकों को चुप नही रहना चाहिए ।लेखिकाओं को भी बोलना चाहिए।संगठन भी आगे आएं।
Shashi Bhooshan : साहित्य अकादमी में घटी घटना जिसमें यौन शोषण की शिक़ायत करने वाली महिला कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया गया अपवाद नहीं है। अफसरों द्वारा महिला कर्मचारियों के यौन शोषण पर अधिकारी ही जीतते आये हैं। यह जीत तब और सुनिश्चित हो जाती है यदि सबऑर्डिनेशन में उच्च अधिकारी महिला हो।
इस प्रकार के मामलों में जांच में सबसे अधिक चौंकाने वाला रवैया प्रकट होता है महिला सहकर्मियों का। जो महिलाएं दिन रात शिक़ायत करती हैं, पीड़िता के संग संग रोती हैं, अन्यायी अफ़सर पर लानत भेजती हैं, उसे पानी पी पीकर गालियां देती हैं दुखड़ा सुन लेने भी रुक जाने वाले की हफ़्तों की नींद में दुःख भर देने वाली व्यथा कथा कह लेती हैं वे ही ख़िलाफ़ सच लिखने के नाम पर मुकर जाती हैं।
मैंने लड़ने के मामले में गंवई औरतों को वीर साहसी पाया है। देखा है उन्हें लाठी हंसिया लेकर भीड़ चीरकर आगे आ जाते। लेकिन कार्यस्थलों में महिलाएं भीरू और पराजित निकलती हैं ख़ासतौर पर पीड़ित साथिनों के लिए।
मैत्रेयी पुष्पा जी ने जो कहा है उसमें निजी क्षोभ अधिक हो जाने के कारण संतुलन नहीं रह गया है। असग़र वज़ाहत के बाद उनकी शिक़ायत को क्रूरता समझ लिए जाने की पर्याप्त गुंजाइश है। अगर हिंदी समाज इस बार उन्हें ट्रोल करने से बाज आ जाये तो चमत्कार ही समझिए। देखिये आगे आगे होता है क्या !
सौजन्य- फेसबुक