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सुख-दुख

थोक के भाव से बंटे हैं अवार्ड…

ख़ुशदीप सहगल-

अवार्ड ख़ुदा तो नहीं पर ख़ुदा की कसम ख़ुदा से कम भी नहीं…

अवार्ड का नशा सिर चढ़ कर बोलता है…

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जिसे अवार्ड मिलता है वो स्टेज पर जाता है, अवार्ड लेता है, तालियां बजती हैं, फिर अवार्डी बड़े गर्व से सोशल मीडिया पर फोटो, वीडियो अपलोड करता है…

लेकिन फिर पोस्ट करने वाला देखता है कि हर दूसरी पोस्ट में कोई न कोई दूसरा अवार्डी वही काम कर रहा है…

यानि थोक के भाव से बंटे हैं अवार्ड…

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अवार्ड एक दो हाथों में, चलो दस हाथों में भी नज़र आए तो समझ आता है लेकिन हर हाथ में नज़र आए तो…बिना भेदभाव हर संस्थान से जुड़े लोगों के हाथ…जितना बड़ा संस्थान, उतने ही ज़्यादा उसे अवार्ड…अनुपात के सिद्धांत का यहां पूरी ईमानदारी से पालन होता है…

अवार्ड दे कौन रहा है, हर साल दे रहा है, थोक के भाव दे रहा है तो इसके पीछे का इतिहास-भूगोल भी थोड़ा खंगाला जाना चाहिए…कोई मार्केट का सिद्धांत है जो अवार्ड देने वाले से बिना नागा हर साल ये काम करवा रहा है…ये पीएचडी के किसी छात्र के लिए शोध का अच्छा विषय हो सकता है…

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पत्रकारिता में भी हर साल अवार्ड बंटते हैं…टीवी न्यूज़ पत्रकारिता में भी…

लेकिन देश में पत्रकारिता खास तौर पर टीवी न्यूज़ पत्रकारिता को लेकर जनमानस क्या सोचता है, ये बिलियन डॉलर सवाल है…

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होलसेल अवार्ड्स पर लहालोट होने से कहीं बेहतर ये सोचना होगा साख को बचाने के संकट से कैसे पार पाया जाए…ये पत्रकारों के लिए भी बेहतर रहेगा और उनके संस्थानों के लिए भी…

आमजन को तो छोड़ दो अब सरकार के थिंकटैंक भी समझ गए हैं कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की बात को लोग पारम्परिक मीडिया से ज़्यादा गंभीरता से ले रहे हैं…इसलिए सरकार के मंत्री-संतरी भी अब इन्फ्लुएंसर्स पर डोरे डालने के लिए ज़्यादा आतुर नज़र आते हैं…वैसे ही जैसे पहले वो पारम्परिक मीडिया को साधने के लिए लालायित रहते थे…

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हाल फिलहाल में सबने देखा कि एक मंत्री ने पत्रकारिता के दो कथित बड़े चेहरों से एक के बाद एक कैसे धकियाने वाले अंदाज़ में बात की जिसकी उन पत्रकारों ने सपने में भी उम्मीद नहीं की होगी…क्योंकि इन पत्रकारों के पिछले 9 साल दिन-रात सरकार की ही चालीसा गाने में बीते…लेकिन मंत्री ने एक झटके में आइना दिखा दिया…

आख़िर में मेरे पसंदीदा गाने की कुछ लाइन…

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सुनो सजना पपीहे ने
कहा सबसे पुकार के
संभल जाओ चमन वालो
के आये दिन बहार के…

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