Abhishek Srivastava : कुछ महीने पहले इमरजेंसी में लखनऊ जाना हुआ। रास्ते में टोल पड़ा तो मैंने झट से रुपया निकाल कर दे दिया। टैक्सी ड्राइवर मुझ पर बिगड़ गया। बोला, आप प्रेस के आदमी हैं, कार्ड दिखा देते। मैंने पूछा अगर वो नहीं मानता, तो? वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है। आगे के हर टोल पर मैं पैसा देता गया और हर बार उसकी निगाह में गिरता गया। फिर एक दिन की बात है, ट्रेन में बैठा मैं खिड़की से बाहर की एक फोटो खींच रहा था।
एक सज्जन से रहा नहीं गया। बोले, आप मीडिया से हैं क्या? ऐसे सवाल पर अकसर मैं इनकार कर देता हूं, लेकिन मेरे मुंह से जाने कैसे हां निकल गया। वे चोन्हराते हुए बोले, तब तो आप कई नेताओं के साथ घूमते होंगे? मैंने इनकार किया। मिलना तो होता ही होगा? नहीं। फिर वे फिल्म सितारों पर आए। मैंने फिर से नहीं कहा। उनके भीतर उम्मीद बाकी थी। वे बोले- इसका मतलब आप बड़े-बड़े बिजनेसमैन लोगों के बारे में लिखते हैं! मैंने कहा- बिलकुल नहीं। वे दुखी हो गए। फिर मुझे अपने मोहल्ले के एक पत्रकार की कहानी सुनाने लगे कि कैसे उसने एक बार इन्हें एक मंत्री से मिलवा कर काम करवा दिया था। अंत में मुझे हिकारत से देखते हुए बोले, ”भाई साब, पत्रकार हो तो ऐसा”!
रोज़ाना ऐसे लोग मिलते हैं। उन्हें इससे मतलब नहीं होता कि आप क्या लिखते हैं। उनका सारा ज़ोर इस बात पर रहता है कि आप किसे-किसे जानते हैं और क्या-क्या करवा सकते हैं। लोगों के देखने का तरीका ही ऐसा है। पत्रकार का मतलब इस समाज में एक प्रिविलेज्ड प्राणी, ताकतवर व रसूखदार आदमी के तौर पर स्थापित होता गया है जो सामान्य से बड़े काम करवा सकता हो। पत्रकार से पत्रकारिता का रिश्ता लोगों को तभी समझ में आता है जब उसके लिखने से कुछ फंसा हुआ हल हो सके, वरना आपके लिखे का कोई मोल नहीं है।
ये जो मीडियावाले प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचवाने के लिए मार कर रहे थे, इस लालची-मतलबी समाज के असली नुमाइंदे हैं। मेरे अधिकतर परिचित मीडियाकर्मी ऐसे ही हैं। गाड़ी धुलवाने से लेकर राशन मंगवाने तक और बाहर घूमने तक किसी चीज़ का कोई पैसा नहीं चुकाते। इनका हर काम फ्री में हो जाता है क्योंकि बदले में ये भी अपने रसूख का इस्तेमाल फंसी हुई चीज़ों को हल करने में करते हैं। रसूख से जीवन आसान होता है। रसूख जितना बढ़ता है, हरामखोरी उतनी बढ़ती है। रसूख बढ़ाने के लिए रीढ़ को गिरवी रखना ज़रूरी होता है। दो साल से लगातार चल रहा दिवाली सेल्फी कांड दरअसल रीढ़ गिरवी रखने का एक सचेतन अभ्यास है। ऐसा करने में उन्हें शर्म महसूस नहीं होती क्योंकि वे अपने समाज को अच्छे से समझते हैं। यह समाज पेट देखता है, पीठ नहीं।
युवा पत्रकार और मीडिया समीक्षक अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.