अगर जीवन मरण का सवाल न हो तो नरक बन चुके दिल्ली-एनसीआर में अपने जीवन के कीमती वक़्त खर्चने से बचें। किधर भी निकल लें, कहीं भी भाग लें पर दिल्ली-एनसीआर और इस जैसे महानगरों से फौरन दूर हो जाएं। जीवन यहां से बाहर है। इन उफनते-सड़ते शहरों ने जीवन की जीवंतता को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है।
नौकरी की गुलामी को इस जीवन का आखिरी सच मान चुके लोगों का कुछ नहीं हो सकता। वो एक दुष्चक्र में फंस चुके हैं। मानसिक रूप से इस गुलामी के यथास्थितिवाद को एन्ज्वाय करने लगे हैं। जो बनिया टाइप मालिक लोग हैं वो अपनी फैक्ट्री-कम्पनी के मोह और अपने मकान-दुकान के जंजाल के कारण पैरों में बेड़ी बांधे हुए हैं। उनकी चेतना पैसे के पार नहीं पहुंच पाई इसलिए उन्हें धिक्कारना भी व्यर्थ में शब्द, आवाज़ और ऊर्जा खर्च करना है। पर मुझ झोले में लैपटॉप रखकर भड़ास चलाने वाले को कौन रोक-बांध सकेगा।
वो कहा जाता है न, आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूंक… इधर वही हाल है! अब मेरी पूरी तैयारी दिल्ली से दूर किसी गांव, नदी, जंगल की त्रयी के करीब एक कुटिया में रह कर प्रकृतस्थ होने की है। असल में जीवन को समझ पाने के सूत्र को डिकोड कर पाना ही अब शुरू कर सका हूँ । सो, घूमता रहता हूँ।
मैदानी इलाकों में घुमक्कड़ी के लिए मार्च महीना मस्त होता है। न ठंढ न गर्मी। कूल कूल सा, फगुवाया-भंगियाया मौसम। कल खेत से मटर उखाड़ कर भूना और चटनी संग उदरस्थ किया। आज बारी चने की थी। कल से बैडमिंटन सुबह-शाम खेला जाएगा। नेट, रैकेट, चिड़िया सब मंगवा लिया गया। खेत के बीचोबीच बांस के खम्भे गाड़ दिए गए हैं। गांव के लौंडे उत्साहित हैं।
जब भोजन करने दोपहर में बैठता हूँ तो मेरे ठीक बगल में गौरैया, गाय, कुत्ते, कौवा चहल कदमी कर रहे होते हैं। इनके साइज़ के अनुपात में रोटियों के टुकड़े इनकी तरफ फेंकते जाने और इन्हें खाते देखते जाना सुख कर लगता है। कभी कभी महसूस होता है कि इस धरती पर हर कोई बस खा रहा है या खाने का उपक्रम कर रहा है या खा चुकने के बाद सो रहा है।
वैसे, आदर्श जीवन मेरे लिए अब वही है जिसमें मनुष्यों की ज़रूरत और उनका साथ शून्य हो जाए, अगल-बगल सिर्फ गैर-मनुष्य रहें।
सिर के बाल हर हफ्ते मुंडवा रहा हूँ, पिछले माह भर से। बड़ा सुख है। दैहिक सुंदरता के प्रति आकर्षण-सम्मोहन अगर खत्म होने लगे तो सिर मुड़ाते रहिए, ओले कतई नहीं पड़ेंगे।
जै जै
स्वयंभू स्वामी बाबा भड़ासानंद जी महाराज के सत्य वचन
🙂
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