हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक समय में जब हम किसी चीज़ के एक पहलू का विरोध कर रहे होते हैं ठीक उसी समय हम उसके दूसरे पहलू के समर्थन में होते हैं। एक ही देश में आज़ादी के लिए अहिंसा का रास्ता इख़्तियार करने वाले महात्मा गांधी भी पूज्य हैं तो उसी देश में अंग्रेजों को उन्हीं की भाषा में सबक सिखाने वाले भगत सिंह भी। यह महज़ एक विचारधारा है लोगों की जिसे बदलना नामुमकिन है ठीक वैसे ही जैसे गांधी कभी भगत सिंह की राह नहीं चल सकते थे तो कभी भगत सिंह गांधी की राह नहीं चल सकते। बावजूद इसके दोनों हमारे लिए महान है।
मौजूदा वक़्त में देश के जो हालात है उसे कहीं से भी एक लोकतांत्रिक देश के लिए सही नहीं कहा जा सकता नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर पूरे देश में हंगामा बरपा है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन धीरे-धीरे हिंसात्मक होते जा रहा है। जगह जगह तोड़फोड़ और आगज़नी की घटनाएं हो रही है जो किसी भी तरह से जायज़ नहीं है। विरोध करने वाले अपनी जगह सही है, विरोध का विरोध करने वाले अपनी जगह।
कोई भी आंदोलन तब होता है जब लोग किसी व्यवस्था से ऊब गए हो, जब उनका अपने रहनुमा पर से यक़ीन ख़त्म हो गया हो। इतिहास गवाह है हर आंदोलन के बाद चीजें बदली है, हालात बदले हैं।
दरअसल, नागरिकता कानून को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन को इस तरह से विभाजित कर दिया गया है कि दो समुदाय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। सोशल मीडिया से लेकर वर्किंग प्लेस तक पर चर्चाएं ऐसी हो रही है जैसे दोनों की कोई पुरानी रंजिश रही हो और वक़्त रहते इन्हें रोका नहीं जाए तो ये मरने मारने पर उतारू हो जाए। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह विरोध दो समुदायों का है, कभी ऐसा होगा भी नहीं क्योंकि हमने शुरू से ही ‘यूनिटी इन डाइवर्सिटी’ का सबक सिखा है। दरअसलये विरोध सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ है। एक ऐसा कानून जिससे एक समुदाय आतंकित महसूस करता है। उसे डर सता रहा है कि कहीं वो अपने ही घर में बेगाना न हो जाए।
लोग नागरिकता कानून का नहीं इसके पीछे छिपे एजेंडे (एनआरसी) को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। असम में एनआरसी लागू करने का सरकार का मकसद था घुसपैठियों को बाहर करना ,होना भी चाहिए लेकिन सरकार की नीति और नियति में असमंजस ने लोगों को सड़क पर उतरने को विवश कर दिया। सरकार का कहना है कि इस एक्ट का मतलब किसी की नागरिकता छीनना नहीं बल्कि देना है। लेकिन गृहमंत्री का बयान इसलिए भी विरोधाभाषी है कि एक चैनल के इंटरव्यू में जब वे ये बात बता रहे थे उसी वक़्त उन्होंने ये आंकड़ा भी दिया कि पिछले छह सालों में लगभग 2800 पाकिस्तानी, 900 अफगानी और 200 बांग्लादेशी को नागरिकता दी गई है। जिसमें कई उपरोक्त देशों के बहुसंख्यक भी है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर 1955 के एक्ट के तहत नागरिकता दी ही जा रही थी तो फिर नए एक्ट को लाकर मुख्य मुद्दा अर्थव्यवस्था, रोजगार, से ध्यान भटकाने की जरूरत क्यों पड़ी?
दरअसल केंद्र सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में जिस तरह से मुस्लिम समुदायों को एक के बाद एक तीन तलाक, अनुच्छेद 370, राम मंदिर और फिर कैब लाकर टारगेट किया उससे इस समुदाय के लोगों में एक असुरक्षा की भावना घर कर गई। जिसके बाद लोग घरों से सड़क पर निकल आए। इतना सबकुछ होने के बावजूद सरकार ने अभी तक जो स्टेप लिया है उससे नहीं लगता कि तनाव कम होने वाला है। सरकार ने उपद्रवियों से निपटने के लिए पुलिस को खुली छूट दे रखी है जिसका परिणाम जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में देखने को मिला। दोनों विश्वविद्यालयों में पुलिस ने जो आक्रमक रुख अपनाया उसका असर देश भर में देखने को मिला। छात्रों के समर्थन में आम नागरिक से लेकर बॉलीवुड हस्ती भी सड़क पर उतर आए हैं। इस विरोध प्रदर्शन को सिर्फ एक समुदाय विशेष का रोष कहना इसलिए भी ग़लत होगा क्योंकि इसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से लेकर, प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा और कई सीनियर आईएस और आईपीएस अधिकारी का समर्थन प्राप्त है।
पिछले एक सप्ताह से हो रहे विरोध प्रदर्शन को देखते हुए सरकार को चाहिए कि इस पर अपना रुख स्पष्ट करे, इससे इतर सरकार विरोध की आवाज को दबाने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपना रही है। इस बार जो नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है वह बहुत ही घातक है। जहां एक धड़ा इस कानून के विरोध में रैली निकाल रही है वहीं दूसरा धड़ा उसके समर्थन में सड़कों पर उतर रहा है। जब ये दोनों आमने सामने होंगे उससे स्वाभाविक है कि तनाव की स्थिति उत्पन्न होगी, माहौल और ज्यादा बिगड़ेगा। ऐसा देश में इससे बड़े पैमाने पर कब हुआ इसका मुझे पता तो नहीं लेकिन, इसे एक तरह से सरकार नाकामी ही कहेंगे जो विरोध के स्वर को दबाने में नाकाम होने पर इस तरह के लोगों को शह दे रही है। यहां इसे सरकार द्वारा पोषित तत्व इसलिए भी कहा जा सकता है कि क्योंकि खुद सरकार प्रदर्शन करने वालों को विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त होने की बात कह रही है।
सरकार को हिंसा और प्रदर्शन को रोकने के लिए चाहिए कि वह आगे आकर स्थिति स्पष्ट करे कि इस एक्ट के क्या मायने हैं, इसे लाने का उद्देश्य क्या? एनआरसी पर सरकार का रुख क्या है, एनआरसी का पैमाना क्या होगा? क्या पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा? अगर किया जाएगा तो क्या इसका पैमाना भी असम का मापदंड ही होगा? अगर सरकार 1971 से पहले के दस्तावेज की मांग करती है तो क्या यह मांग पहले से देश में रह रहे हिंदुओं के लिए भी होगा? अगर वे अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए तो क्या उनके साथ भी वैसा ही सलूक होगा जो मुस्लिमों के साथ होगा?
नागरिकता कानून में सिर्फ तीन देशों से आए अल्पसंख्यक समुदाय को नागरिकता देने का प्रावधान है ऐसे में भारत में आज़ादी से पहले से रह रहे बहुसंख्यकों का क्या होगा, या फिर उन्हें अपनी नागरिकता नहीं साबित करनी पड़ेगी और वे बायडिफ़ॉल्ट देश के नागरिक कहलायेंगे? सरकार हमेशा से कह रही है देश के मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं होगा ऐसे में सरकार को स्पष्ट करने की जरूरत है कि उनका देश के मुसलमानो से तात्पर्य क्या है? जो 1971 से पहले के दस्तावेज नहीं साबित कर पाए और उनके पूर्वज यहां आज़ादी के समय से रह रहे हैं उन्हें भी देश का मुसलमान माना जाएगा या वे घुसपैठिये करार दिये जाएंगे वैसे ही जैसे पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार और पूर्व सैन्य अधिकारी मोहम्मद सनाउल्लाह का परिवार। इन स्थिति को सरकार को अविलंब स्पष्ट करने की जरूरत है। ताकि विरोध प्रदर्शन और उसकी आड़ में हो रहे हिंसात्मक प्रदर्शन को रोका जा सके।
मोहम्मद तौहीद आलम
पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार
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