विजय शंकर सिंह-
अमिताभ ठाकुर की जबरन सेवनृवित्ति…. यूपी सरकार ने अमिताभ ठाकुर को जबरन सेवा निवृत्त कर दिया। 50 साल की उम्र या 30 साल की सेवा पूरी करने के बाद, आमालनामे ( चरित्र पंजिका ) में हुयी प्रविष्टियों के आधार पर सरकार किसी को जबरन सेवानिवृत्त कर सकती है। अमिताभ ठाकुर के आमालनामे में क्या प्रविष्टियां रही, यह तो सरकार बेहतर जानती है, पर वे सरकार की आंख के किरिकरी ज़रूर बन गए थे, जिसका दंड उन्हें भुगतना पड़ा। सरकार को वफादार, और जी जहाँपनाह अफसर रास आते हैं और ऐसे मोड में पड़े अफसर भी जब जवाब देने के लिये खड़े हो जाते हैं तो सरकार का अहंकार खड़ा हो जाता है।
अमिताभ और उनकी पत्नी नूतन ( Nutan Thakur ) जो हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं, सरकार के कामो की खुल कर आलोचना करती रही है। अमिताभ की सपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी से हुयी नोकझोक के सार्वजनिक हो जाने के बाद भी, अमिताभ, सपा के राज में सुरक्षित बने रहे। पर भाजपा उनको झेल नहीं पायी। सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले वैभव कृष्ण को भी निलंबन झेलना पड़ा और जसवीर सिंह को भी अपने सख्ती की सज़ा महत्वहीन पदों पर नियुक्ति के रूप में भुगतनी पड़ी। पर यह सब प्रोफेशनल हेजर्ड है। नौकरी के पेशागत खतरे हैं।
जबरन सेवा निवृति का यह आदेश निश्चय ही अदालत में चैलेंज होगा। एक सिपाही भी अपनी इस प्रकार की बर्खास्तगी या सेवानृवित्ति को आसानी से जो हुक्म मेरे आका कह कर के स्वीकार नहीं करता है, वह अदालत जाने के अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग करता है। अक्सर वह अदालत से जीतता भी है और सरकार से अपनी तनख्वाह पूरी लेता है, और फिर जब वह नौकरी में आता है तो, विभाग को ठेंगे पर रखता है। यह मैं एक सामान्य बात और उदाहरण दे रहा हूँ। कैट CAT, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक के संवैधानिक उपचार ऐसे पीड़ितों के लिये खुले हैं। अब अमिताभ कितने उपचार आजमाते हैं यह तो उन्हीं के ऊपर है।
रिटायर पुलिस अफ़सर विजय शंकर सिंह की fb वॉल से.
PP Singh : ये क़दम वैधानिक तकनीक के पहलू से भले ही गलत न हो या चुनौती के योग्य न हो..मगर सामाजिक-तार्किक और नैतिक नज़रिए से शायद ही औचित्य परक साबित हो पाये..इस बिंदु पर सरकार के कार्यशैली पर सवाल न खड़ा करते हुए भी मुझे मरहूम राहत इंदौरी की भाजपा बसपा के छः: छः महीने की सरकार वाले कार्यकाल पर कहे गये कुछ मिसरे याद आ गये….
बुलंदी तक जो जाते थे,वो जीने ख़त्म होते हैं…!
उतर आओ तुम्हारे छः महीने ख़त्म होते हैं..!
मगर राहत मियां! कल ये नहीं तो दूसरे होंगे..?
कहीं कुर्सी बदलने से,कमीने ख़त्म होते हैं…?
माज़रत के साथ
गुस्ताख़ी माफ़
Nitin : सर, 2005 था शायद तब श्री अमिताभ ठाकुर फिरोजाबाद जिले में पदस्थ थे। मैं हालाकि तब फिरोजाबाद में नही रहता था,पढ़ने के लिए बहार था पर मेने देखा सुना था इनके काम करने का तरीका। पुलिस से जो उम्मीद की जाती है की गुंडे अपराधियो में उनका भय व्याप्त हो, उस पर ठाकुर साब की पुलिसिंग बिल्कुल खरी उतरती थी। शहर के हर नामी और खानदानी बदमाश को अपने ऊपर खतरा महसूस होने लगा था और कई कथित बड़े बदमाशो को शहर की जनता में भय के कारण रोते और भागते देखा। सो, उनकी कर्मठता पर संदेह नहीं किया जा सकता, ऐसा मेरा मानना है।
दूसरा विषय है उनकी एक्टिविस्ट की भूमिका का। श्री और श्रीमती ठाकुर को न्यायालय से डाट भी लगी है कई बार बेमतलब की पीआईएल दाखिल करने के कारण। श्रीमती ठाकुर सरकारी सेवा में नही है सो उनका अधिकार है किसी भी किरदार में रहने का लेकिन श्री ठाकुर उसी व्यवस्था का हिस्सा है जिस व्यवस्था को वो हमेशा नाकारा सिद्ध हो चुकी बताते है। मैं इसमें नही जाऊंगा की बीजेपी सरकार ने क्या किया, सपा सरकार ने क्या? सपा विधायक और नेता जी के करीबी रिश्तेदार रामवीर यादव ने ठाकुर साब के साथ बदतमीजी भी की थी।
सर, मुझे लगता है ये बड़ी बहस का विषय है की एक सरकारी मुलाजिम के, बतौर नागरिक जो अधिकार है (आंदोलनजीवी होना उनमें से एक है) सरकार उनका किस तरह संरक्षण कर सकती है या उत्पीड़न कर सकती है। श्री ठाकुर की आंदोलनजीविता को सही बताना फोर्स के अनुशासन को भी खतरे में डाल सकता है, ओर श्री ठाकुर की आंदोलनजीविता को गलत बताना बतौर नागरिक उनके मौलिक अधिकारों का हनन करना होगा। संविधान विशेषज्ञ कोई जरूर बता पाएंगे कि संविधान में ऐसे मामलो के लिए क्या व्यवस्था दी गई है।
Arun srivastava : बहुत दिनों से अमिताभ ठाकुर खटक रहे थे।इन्हों कई थानों की वसूली लिस्ट भी जारी कर दी थी।
नूतन ठाकुर लगातार RTI से नाक में दम की हुई थी रीढ़विहीन लोगो के बीच रीढ़ वाले लोग कैसे बर्दास्त होते। यह कृत्य सरसर अनैतिक और तानशाही.
Shyodaun singh Lodhi : यह सभी अधिकारी/कर्मचारी जानते हैं कि सर्विस में रहते हुए कंडक्ट रूल्स के अनुसार सरकार के निर्णयों के खिलाफ आप पब्लिक में नहीं बोल सकते है/न सोशल मीडिया में और न ही अखबारों में।क्योंकि सरकारी अधिकारी/कर्मचारी ही सरकारीतंत्र का अभिन्न अंग होने के कारण खुद सरकार है।अपने विचारों को फैसला लेते समय अपने विभाग की मीटिंग में रख सकते हैं।लेकिन एक बार निर्णय हो जाय ,बेशक आपकी असहमति हो, उसी को पब्लिक में जस्टिफाई करना होता है।यदि किसी को पब्लिक में खिलाफ बोलने की आदत है तो उसे यह काम सरकारीतंत्र तंत्र से मुक्ति के बाद करने की छूट है।या खुद मुक्ति ले ले।
श्री अभिताभ ठाकुर की बातें मैंने सोशल मीडिया पर बहुत पढ़ी है।मैंने अपनी टिप्पणियों में यही लिखा कि आप जो कर रहे हो ,आपकी पद की गरिमा के बिल्कुल अनुकूल नहीं है/टोटली गलत है।
सरकार का निर्णय एकदम सही है।बहुत पहले ही कर देना चाहिए था।ऐसे अधिकारी/कर्मचारी सरकार में होने ही नहीं चाहिए।सरकार में व्यक्तिगत एजेंडा नहीं चल सकता।
Rajiv goswami : सर क्या आपको नहीं लगता कि ये जबरन सेवानिवृत्ति का फार्मूला अधिकारी/कर्मचारी का शोषण करने का नया हथियार है ?? हमारी हां में हां मिलाते रहो तो ठीक वरना रिटायर कर देंगे.. क्या इस नियम को ही न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती ??
Ambuj gupta : इस मामले में अमिताभ साहब को अवश्य कोर्ट्स और कैट से न्याय मिलेगा। पचास वर्ष में जबरन सेवानिवृत्ति शारीरिक या मानसिक अक्षमता, लगातार सेवा से गैरहाजिर होने जैसी आदतों और भ्रष्टाचार की वजह से पाए दंड की वजह से की जा सकती है। ठाकुर सर के विषय में ऐसा कुछ भी सच प्रतीत नहीं होता। हां कोर्ट जाने का लाभ उनको भी मिल सकता है कि उनकी प्रोन्नति के आदेश भी उनको प्राप्त हो जाएं।