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सियासत

अरनब गोस्वामी का महान दुख और प्रधानमंत्री-पत्रकारों के रिश्ते

arnab modi

सुनने में आ रहा है कि इन दिनों टाइम्स नॉउ के अरनब गोस्वामी बेहद दुखी हैं। करीब सवा सौ ईमेल भेज चुके हैं फिर भी उन्हें नरेंद्र मोदी ने मुलाकात के लिए समय देना तो दूर रहा, जवाब तक नहीं दिया। चुनाव के पहले भी यही हुआ था। अरनब को लग रहा था कि जैसे वे राहुल गांधी का इंटरव्यू हासिल करने में कामयाब हो गए थे वैसे ही मोदी भी तैयार हो जाएंगे। मगर मोदी ने उनकी जगह ईटीवी को चुना।

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सुनने में आ रहा है कि इन दिनों टाइम्स नॉउ के अरनब गोस्वामी बेहद दुखी हैं। करीब सवा सौ ईमेल भेज चुके हैं फिर भी उन्हें नरेंद्र मोदी ने मुलाकात के लिए समय देना तो दूर रहा, जवाब तक नहीं दिया। चुनाव के पहले भी यही हुआ था। अरनब को लग रहा था कि जैसे वे राहुल गांधी का इंटरव्यू हासिल करने में कामयाब हो गए थे वैसे ही मोदी भी तैयार हो जाएंगे। मगर मोदी ने उनकी जगह ईटीवी को चुना।

अरनब के पसीने छूट गए, दर्जनों बार फोन किया पर मोदी लाइन पर ही नहीं आए। फिर भाजपा के तमाम नेताओं को पकड़ा और गांधीनगर स्थित अपने संवाददता को संदेश भिजवाया कि किसी भी तरह से उनके इंटरव्यू का जुगाड़ करवाओ।

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संवाददाता उनके पास गया और बोला कि अगर आपने समय नहीं दिया तो मेरी नौकरी चली जाएगी। मोदी ने कहा कि मैं तुम्हें इंटरव्यू दे देता हूं। वह और भी घबरा गया। बड़ी मुश्किल से वे अरनब से बात करने के लिए तैयार हुए। अब प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अरनब तो क्या कोई पत्रकार यह नहीं कह सकता है कि वह नरेंद्र मोदी के काफी करीब है। या प्रधानमंत्री उनके साथ तमाम जानकारियां साझा करते हैं।

पत्रकारिता और राजनीति का रिश्ता जितना पुराना है उतना ही करीबी रिश्ता प्रधानमंत्रियों व पत्रकारों का भी रहा है। बुजुर्ग पत्रकार मनमोहन शर्मा बताते हैं कि पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु अक्सर अपने तीन मूर्ति स्थित निवास पर पत्रकारों को अलग-अलग चाय पर आमंत्रित करते थे। उन पर सामयिक विषयों पर चर्चा करते थे। उन दिनों पत्रकारों की संख्या मुश्किल से दो दर्जन हुआ करती थी। आमतौर पर सारी मुलाकात सिर्फ विचारों के आदान-प्रदान तक ही सीमित रहती थी। वे किसी और तरह की भूमिका नहीं निभाते थे।

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लाल बहादुर शास्त्री बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री रहें। उनके बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो कुछ पत्रकारों से उनकी निकटता हो गई। इनमें महिला पत्रकार अमिता मलिक, उमा वासुदेव, मनुहरी पाठक आदि शामिल थीं। जर्नादन ठाकुर भी अक्सर उनके यहां पहले आया जाया करते थे। सबसे करीबियों में खुशवंत सिंह थे। खुशवंत सिंह की योग्यता पर किसी तरह का संदेह नहीं किया जा सकता है। पर मरने के पूर्व दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक, उस समय की केंद्र सरकार तय करती थी। मुझे भी संजय गांधी के कहने पर बिड़लाजी ने संपादक बनाया था।

इंदिरा गांधी को पत्रकारिता का सबसे ज्यादा कटु अनुभव भी हुआ। उन्होंने जब देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की तो अखबारों व पत्रकारों को भी निशाना बनाया। कुलदीप नैय्यर, श्याम खोसला, वीरेंद्र कपूर, के जी गोरवाला, के. सुंदरराजन जेल भेजे गए। वही 89 पत्रकारों की पीआईबी मान्यता रद्द की गई। बाद में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरकार ने पत्रकारों को झुकने के लिए कहा था पर वे रेंगने लगे।

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इंडियन एक्सप्रेस, सर्चलाइट आदि अखबारों की बिजली काट दी गई। इसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा। पूरी पत्रकार बिरादरी उनके खिलाफ हो गई। जब जनता पार्टी सत्ता में आयी व मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनें तो, स्वभाव से रुखे गुजराती नेता ने भी पत्रकारों को ज्यादा भाव नहीं दिया। उनके समय में कोई पत्रकार यह दावा नहीं कर सकता था कि वह प्रधानमंत्री के करीब है या सरकार के बारे में तमाम अंदरुनी जानकारियां रखता है। इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका व अरुण शौरी की जनता पार्टी के नेताओं से जरुर घनिष्ठता थी। यही वजह थी कि उस दौरान जनता पार्टी के अंदरुनी झगड़ों की आए दिन सुर्खियां बनती रहती थीं।

जब दोबारा इंदिरा गांधी सत्ता में आयीं तो उन्होंने आपातकाल से सबक लेते हुए मीडिया के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाया। सूचना सेवा के अधिकारी एम वाई शारदा प्रसाद को अपना मीडिया सलाहकार नियुक्त किया जो कि उनका भाषण लिखने के साथ ही उन्हें अखबारों से संबंधित सलाह भी दिया करते थे।

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इंदिरा गांधी के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे तो शुरु में उनके बाल सखा रहे पत्रकार सुमन दुबे चर्चा में आए। उन्हें बाद में रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस का संपादक भी बनाया। राजीव गांधी के शुरु में पत्रकारों से अच्छे संबंध रहे। इनमें वीर अर्जुन के संपादक से लेकर रविवार के राजीव शुक्ल तक शामिल थे। जब राजीव गांधी और वीपी सिंह का टकराव हुआ तो राजीव शुक्ला ने उनकी खुलकर मदद की। रविवार जैसे प्रतिष्ठित पत्रिका के मुखपृष्ठ पर वीपी सिंह की तस्वीर के साथ ही यह छपा कि ‘राजा मांडा, फूटा भांडा’। इसमें वीपी सिंह द्वारा अपनी मांडा रियासत की जमीन पहले विनोबा भावे को दान में देने व उसके बाद उनकी पत्नी द्वारा उन्हें पागल करार देकर यह जमीन वापस लेने की कहानी थी।

राजीव गांधी के सत्ता से हटने के बाद जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो कुछ पत्रकारों की लाटरी खुल गई। इनमें रविवार के संवाददता रह चुके संतोष भारतीय भी शामिल थे। संतोष भारतीय को उन्होंने फर्रुखाबाद से टिकट दे कर सांसद बना दिया। मार्निंग इको के अजय सिंह भी रेल राज्य मंत्री बने। उदयन शर्मा की किस्मत खराब थी इसलिए वे आगरा से चुनाव हार गए। वीपी सिंह की एक खासियत यह थी कि वे पत्रकारों का इस्तेमाल करना बखूबी जानते थे। मतलब निकल जाने पर एक जाति विशेष के पत्रकारों को छोड़कर दूसरों से कोई लगाव नहीं रखते थे।

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उन्हें पता था कि राजीव गांधी के खिलाफ इतना जबरदस्त माहौल है कि उनका समर्थन करना पत्रकारों व अखबारों की मजबूरी है। वैसे भी एक्सप्रेस ग्रुप पूरी तरह से खुलकर उनके समर्थन में उतर आया था। हालांकि उनका भी वही हश्र हुआ जो कि बाद में आप पार्टी का हुआ। जिस मीडिया ने उनकी हवा बनाई थी उसी मीडिया ने मंडल को लेकर उनकी ऐसी हवा खराब की कि फिर वे कभी सुर्खियों में नहीं रह पाए। जब उनका निधन हुआ तो अखबारों में सिंगल कालम खबर छपीं।

राजीव गांधी के निधन से सबसे ज्यादा नुकसान राजीव शुक्ल का हुआ। वे दोनों इतने करीब आ चुके थे कि अगर वे दोबारा प्रधानमंत्री बनते तो मणि शंकर अय्यर का विदेश मंत्री व राजीव शुक्ल का सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनना तय था। राजीव शुक्ला ने उनके बुरे दिनों में भी किसी की कोई परवाह न करते हुए उनका पूरी तरह से साथ दिया था। इन तीनों का चोली दामन का साथ था। इस बीच पी वी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बनें। वे बेहद चंद लोगों तक खुद को सीमित रखते थे। उनके करीब सिर्फ एक ही पत्रकार, कल्याणी शंकर थीं जो कि खुद भी संयोग से आंध्रप्रदेश की ही थीं। जब कल्याणी शंकर ने महिला पत्रकार क्लब बनाया तो 24 घंटे के अंदर क्लब को ली मिरीडियन के ठीक सामने बंगला अलाट कर दिया गया व तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम ने एमटीएनएल के जीएम को बुलाकर कहा कि शाम तक वहां फोन लग जाना चाहिए।

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ये वही सुखराम थे जिनके मंत्री रहते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का फोन भुगतान न होने के कारण कट गया था। तब उन्होंने जीएम को बुलाकार कहा था कि भाई थोड़ा ध्यान रखा करो। बाद में एचडी देवगौडा आए उन्होंने एच के दुआ को अपना मीडिया सलाहकार बनाया।

अटल बिहारी वाजपेयी के समय में पत्रकारों खासतौर से संघ की पृष्ठभूमि वालों की काफी मौज रही। जहां उन्होंने योग्यता की कसौटी पर अशोक टंडन सरीखे वरिष्ठ पत्रकार को अपना मीडिया सलाहकार बनाया वहीं, बलबीर पुंज, दीनानाथ मिश्र, चंदन मित्रा राज्यसभा पहुंचे। अरुण शौरी केंद्र में मंत्री बनाए गए। वैसे खासतौर से हिंदुस्तान टाइम्स समूह की कुछ महिला पत्रकारों से उनका पहले से ही जुड़ाव रहा था। जितना अधिकार उनका हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं पर था उससे कहीं ज्यादा दोनों ही भाषाओं की पत्रकार उन पर अपना अधिकार मानती थीं।

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वाजपेयी ने भी कभी इन बातों का खंडन नहीं किया। एक पत्रकार ने तो अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख करते हुए लिखा कि जब मैंने उनसे महिलाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मुझे तो आप भी बहुत अच्छी लग रही हैं। दूसरी तो बिना कुछ लिखे ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ती चली गईं। मनमोहन सिंह बेहद रुखे स्वभाव के थे। फिर भी उन्होंने पत्रकारों को अपना मीडिया सलाहकार बनाया और उन्होंने ही उनका बंटाधार किया।

हो सकता है कि उनसे सबक लेते हुए ही नरेंद्र मोदी किसी पत्रकार को अपने पास फटकने देना नहीं चाहते हैं। मीडिया सलाहकार बनाना तो बहुत दूर की बात है। वे अपने गुजरात के जनसंपर्क अधिकारियों से ही अपना मीड़िया शो चलाएं हुए हैं।

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लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार है। विनम्र उनका लेखन नाम है। प्रस्तुत लेख नई दुनिया से साभार लिया गया है।

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