यह सुप्रीम कोर्ट पर दबाव नहीं भी हो तो न्याय के मार्ग में बाधा जरूर है। सुप्रीम कोर्ट को कानून और पीएमएल के प्रावधान मालूम है, यह भी कि पहली बार कोई मुख्यमंत्री जेल में है और वह पीएमएलए से ही संभव हुआ है। इस्तीफा दे चुके झारखंड के मुख्यमंत्री का मामला भी लगभग ऐसा ही है। केजरीवाल ने चुनाव प्रचार के लिए जमानत नहीं मांगी है बल्कि सुप्रीम कोर्ट की राय में यह उनका अधिकार है। यही नहीं पिछले चुनाव में लालू यादव जेल में थे उनके लिए किसी ने जमानत की मांग नहीं की थी। फिर भी सुप्रीम कोर्ट में ईडी के इस तरह के तर्क को अखबारों में इतना महत्व मिलने का क्या कारण हो सकता है? वह भी तब जब पीएमएल के प्रावधान को सही ठहराने वाले जज ईनाम पा चुके हैं, प्रावधानों पर समीक्षा लंबित है, केंद्र सरकार समीक्षा नहीं चाहती है – और यह सब सार्वजनिक है। आज के अखबारों की बात की जाये तो संदेशखाली की खबरों से यह पता नहीं चल रहा है कि एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा क्या-क्या कर-करवा सकती है जबकि भाजपा के प्रयासों और संरक्षण में आम आदमी पार्टी को बदनाम करने के प्रयासों का असर ज्यादा और स्पष्ट है जबकि रूप से दोनों की राजनीति की गुणवत्ता और जनहित के कामों में कोई मुकाबला नहीं है।
संजय कुमार सिंह
चार सौ पार के फेर में भाजपाई कोशिश संदेशखाली और बंगाल के राजभवन में उलझ गई है पर वह लीड नहीं है। राज्यपाल ने वीडियो सार्वजनिक करके शिकायकर्ता की पहचान उजागर कर दी है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार राज्यपाल के (प्रसारित) फुटेज में शंका की गुंजाइश है। यह सब बड़ी खबर नहीं है। यह भी नहीं कि कल जनसंख्या पर प्रधानमंत्री के पीएम पैनल का जो डाटा अखबारों में छपा था वह ‘ट्विस्टेड’ है और यह भी कि आबादी के मामले में मुसलमानों का पीछा कर रहे एक मिथक का खुलासा हो गया है। बड़ी खबर है ईडी ने केजरीवाल को जमानत का विरोध किया। इसकी मुख्य बात यह है कि चुनाव प्रचार कानूनी अधिकार नहीं है। कानूनी स्थिति मैं नहीं जानता पर राजनीति एक पेशा है, राजनीतिक दल देश और लोकतंत्र की जरूरत जो कइयों की किस्मत तय करते हैं और चुनाव इस पेशे में आगे बढ़ने की परीक्षा। इस लिहाज से चुनाव प्रचार परीक्षा की तैयारी है। किसी को चुनाव प्रचार से रोककर चुनाव लड़ने से रोका जायेगा या उसे पास नहीं होने दिया जायेगा। अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ ईडी की कार्रवाई और पीएमएलए का मामला अगर सरकारी बाबुओं ने बनाया है तो निर्वाचित जनप्रतिनिधि के खिलाफ सरकारी बाबुओं द्वारा पीएमएलए का मामला बनाकर राजनीति को प्रभावित किया जा सकता है कि नहीं और निर्वाचित जनप्रतिनिधि को जनादेश के खिलाफ जेल में रखा जा सकता है कि नहीं उसपर तो विचार होना ही चाहिये। सबको पता है कि यह मामला राजनीतिक है और केंद्र की भाजपा सरकार को आम आदमी पार्टी से दिक्कत है इसलिए बनाया गया है वरना देश के इतिहास में अभी तक कोई मुख्यमंत्री गिरफ्तार नहीं हुआ था।
इसी खबर का शीर्षक नवोदय टाइम्स में इस प्रकार है, केजरीवाल को जमानत पर आज फैसला। इसका उपशीर्षक है, चुनाव प्रचार का अधिकार न तो मौलिक अधिकार है, न ही संवैधानिक: ईडी। यही नहीं, अखबार ने बताया है कि जांच एजेंसी ने हलफनामे के जरिये दर्ज कराया विरोध और इसके साथ ही एक और खबर है, केजरीवाल के वकीलों ने की रजिस्ट्री में शिकायत। इसमें, ईडी के हलफनामे को कानूनी प्रक्रियाओं की घोर अवहेलना बताया गया है। अब आप समझ सकते हैं कि ईडी का काम भ्रष्टाचार के मामले की जांच करना है तो वह जमानत मिलने या नहीं मिलने को लेकर इतना सक्रिय क्यों है। अगर वकीलों को लगता है कि अपनी नौकरी बनाये रखने के लिए ऐसा किया जाना चाहिये तो इसके भी मायने हैं। यह सवाल भी कि क्या सब कुछ वकीलों ने किया या विभाग और उसके आका (केंद्र सरकार) की सहमति से किया गया। स्वस्फूर्ति तो ठीक है लेकिन इसमें राजनीति की बू आ रही है और इसे अखबारों को समझना था। कम से कम तब जब आम आदमी पार्टी की विज्ञप्ति भी थी।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में हुई चर्चा से अगर लग रहा है कि केजरीवाल को जमानत मिल जायेगी तो उसका विरोध और यह दलील क्या सरकारी है? मुझे लगता है कि यह राजनीतिक है और इसे राजनीति के नजरिये से ही देखा जाना चाहिये और तब यह बड़ी खबर नहीं है। जो भी हो, टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड है। इंडियन एक्सप्रेस में सेकेंड लीड है। दोनों में द हिन्दू की लीड को वो महत्व नहीं मिला है और हिन्दुस्तान टाइम्स ने एक को लीड और एक को सेकेंड लीड बनाया है। द हिन्दू की लीड और हिन्दुस्तान टाइम्स की सेकेंड लीड, हरियाणा विधानसभा में बहुमत के परीक्षण की मांग है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने शीर्षक में बताया है कि भाजपा बहुमत की जांच के लिए तैयार है जबकि हिन्दू की लीड के शीर्षक में है, भाजपा सरकार बहुमत खो चुकी है। केजरीवाल को जमानत सुप्रीम कोर्ट में मिलनी है। उसपर लंबी बहस हो चुकी है सब सार्वजनिक है। सुप्रीम कोर्ट के सवाल, जवाब और वकीलों की दलील सब सार्वजनिक है। ऐसे में नई दलील या नया तर्क भी उन ढेरों दलीलों की तरह है जिनपर चर्चा हो चुकी है।
इसके बावजूद आज अमर उजाला की लीड का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट में केजरीवाल की जमानत का मामला : प्रवर्तन निदेशालय ने किया विरोध, कहा … चुनाव प्रचार का अधिकार न तो मौलिक, न ही सांविधानिक, केजरीवाल को नहीं मिले जमानत। इसके साथ छपी एक खबर का शीर्षक है, एजेंसी ने कहा, पांच साल में 123 चुनाव हुए, हर चुनाव के लिए नेता मांगेंगे जमानत और फिर कानून के शासन का उल्लंघन। आप जानते हैं कि यह मामला मुख्यमंत्री के जेल में होने का है। इस मामले में देश में शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अच्छा काम कर रहे पत्रकार से राजनेता बने मनीष सिसोदिया जेल में हैं और उनकी जमानत की मांग नहीं हो रही है और ना पिछले चुनाव के समय लालू यादव जेल में थे तो उन्हें रिहा करने की कोई मांग हुई थी ना पहले कभी हुई है। अभी का मामला अलग है तो उसे अलग ही रहने देना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील की दलील जजों के लिए है। आम जनता के लिए नहीं और ऐसी दलीलों से जब जनता की राय प्रभावित हो सकती है तो उसे इतनी प्रमुखता देना जायज है? बहुत संभावना है कि जज साब इस दलील के आधार पर जमानत न दें या इसका कोई जवाब हो और उसके आधार पर जमानत हो जाये। कल क्या वह भी इतनी प्रमुखता से छपेगा और नहीं छपा या किसी ने नहीं पढ़ा तो वह यही मानेगा कि इस जोरदार तर्क के बावजूद जमानत हो गई। मुझे लगता है कि ऐसे आरोप और दलील से समाज में व्यक्ति की छवि प्रभावित होती है, अदालतों पर भी दबाव पड़ता ही होगा तो उसे सार्वजनिक करने पर विचार होना चाहिये। नियम और संयम होना चाहिये।
यह इसलिए भी जरूरी है कि अमर उजाला में आज मुख्य खबर के साथ छपी एक और खबर का शीर्षक है, आम लोगों से ऊपर होने का दावा नहीं कर सकते नेता। एक और खबर है, समन नजर अंदाज करते रहे। इसके साथ बुलेट प्वाइंट से बताया गया है कि केजरीवाल ने आबकारी घोटाले से जुड़े मनी लांडरिंग मामले में अपनी गिरफ्तारी को अवैध बताते हुए याचिका दायर की है। अखबार ने यह नहीं लिखा है कि केजरीवाल ने जमानत मांगी ही नहीं है और पहले की अपील भी वापस ले ली थी और चूंकि चुनाव का समय है और दिल्ली में लोकसभा की सीटों के लिए मतदान होने हैं, केजरीवाल एक पार्टी के मुखिया हैं और उसके उम्मीदवार हैं और शंका है कि उन्हें चुनाव प्रचार से रोकने के लिए जेल में रखा गया है, पीएमएलए का मामला बनाया गया है (जो सही है कि नहीं बाद में तय होगा पर जमानत का प्रावधान नहीं है)। पीएमएलए के प्रावधानों से संबंधित फैसला न्यायमूर्ति एएम खानविलकर का है और वे इस सरकार से ईनाम पाये जजों में हैं। इस फैसले की समीक्षा लंबित है। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल इसकी पीठ में थे पर वे रिटायर हो गये। हालांकि वह अलग मामला है।
ऐसे में इस खबर से आज जनता में यह संदेश जायेगा कि चुनाव प्रचार कानूनी अधिकार भी नहीं है फिर भी उसे जमानत दे दी गई या इसीलिये नहीं दी गई। पीएमएलए का मामला गौण हो जायेगा। आम आदमी कानूनी पचड़े नहीं समझता ऐसी खबरों से फैसले को आम आदमी की नजर में संदिग्ध बनाया जा सकता है। व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के जरिए भी। बेशक यह खबर है और कैसे छापना है यह संपादकीय विवेक का मामला है और इसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संदिग्ध दिखाना शामिल हो सकता है और यह गैर कानूनी भी नहीं है। पर जब हेडलाइन मैनेजमेंट की बात चल रही हो रेखांकित करना जरूरी है। खासकर तब जब भाजपा के खिलाफ खबरों को ऐसी प्राथमिकता यह महत्व नहीं मिले। संदेशखाली पर जितना हंगामा मचा (प्रचारकों ने उसका जितना उपयोग किया) उसमें आरोप वापस लिया जाना बहुत महत्वपूर्ण है और राज्यपाल पर वैसा ही आरोप लगना कम महत्वपूर्ण नहीं है। अखबारों में उसकी प्रस्तुति सोशल मीडिया के ट्रोल की तरह नहीं होनी चाहिये। यहां निष्पक्षता दिखनी चाहिये। खासकर तब जब चुनाव डेढ़ महीने चलें, चुनाव आयोग कार्रवाई के नाम पर पत्र ही लिखे, जवाब देने के लिए सत्तारूढ़ दल समय मांग ले और इस तरह विरोधियों को चुनाव प्रचार में ही थका देने की योजना नजर आ रही हो। सबसे बड़े विपक्षी दल का खाता फ्रीज किया गया हो और प्रधानमंत्री के स्तर पर टेम्पो में काला धन बोरी में भरकर पहुंचाये जाने का आरोप हो और जांच की मांग पर चुप्पी। दोनों प्रमुख पक्षों ने संवैधानिक लोकतंत्र से संबंधित महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं और देश के तीन सम्मानित नागरिकों ने दोनों पक्षों के नेताओं से चुनाव पर सार्वजनिक चर्चा की अपील की हो। खबर टेलीग्राफ में है। आपको कहीं दिखी?
यह अपील इसलिए महत्वपूर्ण है कि इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, अमित शाह ने चुनाव को विकास बनाम जेहाद कर दिया जबकि राहुल गांधी कह रहे हैं कि यह प्रधानमंत्री के हाथों से फिसल रहा है। इसमें अमित शाह ने जो कहा है वह निश्चित रूप से खबर है लेकिन राहुल गांधी ने जो कहा वह इतना ही भर नहीं है कि चुनाव प्रधानमंत्री के हाथ से फिसल रहा है। यह तो लोग प्रधानमंत्री के भाषणों, उनकी परेशानी, हताशा और झल्लाहट से समझ ही रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर टॉप के दो कॉलम में छपी इस खबर में राहुल गांधी वाला हिस्सा पहले पन्ने पर नहीं है और खबर दूसरे पन्ने पर जारी है। द टेलीग्राफ का आज का कोट राहुल गांधी का है, नरेन्द्र मोदी जी ने अदानी जैसे लोगों के लिए काम किया है। 10 वर्षों तक नरेन्द्र मोदी जी ने देश के हवाई अड्डे, बंदरगाह, संरचना, रक्षा उद्योग और सब कुछ अदानी को दिया है।
राहुल गांधी ने जो कहा है वह द हिन्दू में पहले पन्ने पर चार कॉलम में राहुल गांधी की फोटो के साथ है। चार कॉलम में छपी इस खबर का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पर धन-संपदा की बर्बादी और क्रोनी कैपिटलिज्म को लेकर जवाबी हमला तेज किया। दोनों, खबरें पेश करने का तरीका है और दोनों चलता है लेकिन सरकार की तरफ से हेडलाइन मैनेजमेंट की चर्चा हो तो इस तरह का अंतर रेखांकित करने लायक हैं। अखबारों में जब भाजपा की ही खबरें होती हैं और विपक्ष की हो तो संदेशखाली या घोषणा पत्र पर मुस्लिम लीग की छाप जैसी तब तृणमूल ने सुवेन्दु अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की जैसी खबर कम दिखती है। हालांकि इससे महत्वपूर्ण राजभवन का मामला है जो दिल्ली में पहले पन्ने से तो गायब ही है। तृणमूल की यह शिकायत द हिन्दू में है।
हिन्दू-मुस्लिम आबादी
मेरे दोनों हिन्दी अखबारों में कल एक ही खबर बॉटम थी। कल मैंने लिखा था कि घटती हिन्दू आबादी की यह खबर हिन्दी वालों के घटे हुए विवेक का नतीजा है। अंग्रेजी में कल यह खबर पहले पन्ने पर नहीं थी। और बाद में मुझे पता चला कि हिन्दी के एक बड़े अखबार में यह खबर और प्रमुखता से छपी थी जिसका स्क्रीन शॉट व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी का पाठ बन गया है। आज द टेलीग्राफ की लीड इसी पर है। खबर का फ्लैग शीर्शक बताता है कि जनसंख्या पर प्रधानमंत्री के पीएम पैनल का डाटा ‘ट्विस्टेड’ है। मुख्य शीर्षक है, मुसलमानों का पीछा कर रहे एक मिथक का खुलासा हुआ। अखबार ने लिखा है कि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद की जिस रिपोर्ट के आधार पर कल की खबर अखबारों में छपी थी वह गुरुवार की शाम वेबसाइट पर नहीं देखी जा सकी। इसे आज नवोदय टाइम्स की लीड के शीर्षक, सत्ता में आये तो तेलंगाना में मुस्लिम आरक्षण समाप्त कर देंगे : अमित शाह। बोले, विकास के लिए वोट व जिहाद के लिए वोट के बीच है इस चुनाव में मुकाबला – से जोड़कर देखिये।