विश्व दीपक-
अतीत के कुएं में बार-बार देखने से दर्द कम नहीं होता. बल्कि पुनरावृत्ति का असर यह होता है कि वर्तमान भयानक बोझिल हो जाता है. आप आगे नहीं बढ़ पाते. अटक जाते हैं या घिसटने लगते हैं.
कई बार गुजरात गया हूं.
मैंने महसूस किया है कि वहां का आम मुसलमान 2002 के बारे में बात नहीं करना चाहता. दिल्ली से गए पत्रकार, समाजिक कार्यकर्ता या एनजीओ वाले कुरेदकर 2002 के बारे में बात करते हैं लेकिन वहां का मुसलमान उन सवालों को या तो टाल जाता है या फिर गोल-मोल जवाब देकर निकल जाता है.
यह बिल्कुल स्वाभाविक है. दर्द को साधने का मैकेनिज्म ही ऐसा है कि जो भोक्ता है वह अपने दर्दनाक अतीत से भागता है लेकिन जो दर्शक की भूमिका में है वह बार-बार उधर झांकता है. दूसरे के दुख में भी किक तलाशना एक किस्म का सैडिज्म है.
बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में ऐसा क्या है जो हम नहीं जानते? ऐसा कौन सा सच है जिसे बीबीसी बाहर ला दिया? गुजरात दंगा, भारत के पिछले दंगों से इसी मामले में अलग है कि यहां कुछ भी छिपाया नहीं गया. सब कुछ सामने से ताल ठोंककर किया गया था. इसीलिए इसका असर बहुत दूर तक और बहुत गहराई तक हुआ.
2002 के गुजरात दंगों ने भारत को बदल दिया — क्या यह दिखाई नहीं पड़ता?
सवाल है कि फिर बीबीसी ने अतीत के घाव ताज़ा करने वाली यह डॉक्यूमेंट्री उस वक्त क्यूं दिखाई जब कई बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं?
छह महीने बाद ही अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाएंगी. जवाब आप खोजते रहिएगा.
मुझे हैरानी बीबीसी या बीजेपी सरकार के रवैये पर नहीं बल्कि उन लोगों पर है डॉक्यूमेंट्री को सच का दस्तावेज मानकर पूरे देश भर में इसकी स्क्रीनिंग कर रहे हैं. इसका बीबीसी को जबर्दस्त फायदा होगा. लेकिन बीजेपी को, मोदी जी को जो फायदा होगा उसकी कल्पना भी डरावनी है.
थोड़ा ठहरकर सोचिए कि इस पूरी सर्कस में गुजरात का आम मुसलमान कहां खड़ा है?