Connect with us

Hi, what are you looking for?

मध्य प्रदेश

भारत भवन : याद रह गयी तेरी कहानी

13 फरवरी 1982 का दिन और आज तैंतीस बरस बाद 13 फरवरी 2015 का दिन। यह तारीख बार बार और हर बार आयेगी लेकिन भारत भवन का वह गौरव कभी आयेगा, इस पर सवाल अनेक हैं। यह सवाल विमर्श मांगता है किन्तु  विमर्श की तमाम संभावनायें पीछे छूट गयी हैं। इतनी पीछे कि अब भारत भवन के गौरव को पाने के लिये शायद एक और भारत भवन की रचना की पृष्ठभूमि तैयार करने की जरूरत दिखती है। यह जरूरत पूरी करने की कोशिश हुई भी तो इसके बावजूद शर्तिया यह कह पाना मुश्किल सा है कि भारत भवन की विश्व-व्यापी कला-घर की पहचान लौट पायेगी। एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले इस कला घर की यह दुर्दशा स्वयं से हुई या इसके लिये बकायदा पटकथा लिखी गयी थी, इस पर कोई प्रामाणिक टिप्पणी करना तो मुश्किल सा है लेकिन आज भारत भवन हाशिये पर है, इस बात शीशे की तरह साफ है। तैंतीस बरस का यह कला घर अब एक मामूली आयोजन स्थल में बदल गया है। बिलकुल वैसे ही जैसे भोपाल के दूसरे आयोजन स्थल हैं। भारत भवन के आयोजन की फेहरिस्त लम्बी हो सकती है लेकिन गुणवत्ता पर अब चर्चा नहीं होती है क्योंकि आयोजन अब स्थानीय स्तर के हो रहे हैं। भारत भवन के मंच से संसार भर के कलासाधकों का जो समागम होता था, उस पर पूर्ण न सही, अल्पविराम तो लग चुका है।

<p>13 फरवरी 1982 का दिन और आज तैंतीस बरस बाद 13 फरवरी 2015 का दिन। यह तारीख बार बार और हर बार आयेगी लेकिन भारत भवन का वह गौरव कभी आयेगा, इस पर सवाल अनेक हैं। यह सवाल विमर्श मांगता है किन्तु  विमर्श की तमाम संभावनायें पीछे छूट गयी हैं। इतनी पीछे कि अब भारत भवन के गौरव को पाने के लिये शायद एक और भारत भवन की रचना की पृष्ठभूमि तैयार करने की जरूरत दिखती है। यह जरूरत पूरी करने की कोशिश हुई भी तो इसके बावजूद शर्तिया यह कह पाना मुश्किल सा है कि भारत भवन की विश्व-व्यापी कला-घर की पहचान लौट पायेगी। एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले इस कला घर की यह दुर्दशा स्वयं से हुई या इसके लिये बकायदा पटकथा लिखी गयी थी, इस पर कोई प्रामाणिक टिप्पणी करना तो मुश्किल सा है लेकिन आज भारत भवन हाशिये पर है, इस बात शीशे की तरह साफ है। तैंतीस बरस का यह कला घर अब एक मामूली आयोजन स्थल में बदल गया है। बिलकुल वैसे ही जैसे भोपाल के दूसरे आयोजन स्थल हैं। भारत भवन के आयोजन की फेहरिस्त लम्बी हो सकती है लेकिन गुणवत्ता पर अब चर्चा नहीं होती है क्योंकि आयोजन अब स्थानीय स्तर के हो रहे हैं। भारत भवन के मंच से संसार भर के कलासाधकों का जो समागम होता था, उस पर पूर्ण न सही, अल्पविराम तो लग चुका है।</p>

13 फरवरी 1982 का दिन और आज तैंतीस बरस बाद 13 फरवरी 2015 का दिन। यह तारीख बार बार और हर बार आयेगी लेकिन भारत भवन का वह गौरव कभी आयेगा, इस पर सवाल अनेक हैं। यह सवाल विमर्श मांगता है किन्तु  विमर्श की तमाम संभावनायें पीछे छूट गयी हैं। इतनी पीछे कि अब भारत भवन के गौरव को पाने के लिये शायद एक और भारत भवन की रचना की पृष्ठभूमि तैयार करने की जरूरत दिखती है। यह जरूरत पूरी करने की कोशिश हुई भी तो इसके बावजूद शर्तिया यह कह पाना मुश्किल सा है कि भारत भवन की विश्व-व्यापी कला-घर की पहचान लौट पायेगी। एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले इस कला घर की यह दुर्दशा स्वयं से हुई या इसके लिये बकायदा पटकथा लिखी गयी थी, इस पर कोई प्रामाणिक टिप्पणी करना तो मुश्किल सा है लेकिन आज भारत भवन हाशिये पर है, इस बात शीशे की तरह साफ है। तैंतीस बरस का यह कला घर अब एक मामूली आयोजन स्थल में बदल गया है। बिलकुल वैसे ही जैसे भोपाल के दूसरे आयोजन स्थल हैं। भारत भवन के आयोजन की फेहरिस्त लम्बी हो सकती है लेकिन गुणवत्ता पर अब चर्चा नहीं होती है क्योंकि आयोजन अब स्थानीय स्तर के हो रहे हैं। भारत भवन के मंच से संसार भर के कलासाधकों का जो समागम होता था, उस पर पूर्ण न सही, अल्पविराम तो लग चुका है।

भोपाल का यह वही भारत भवन है जिस पर दिल्ली भी रश्क करता था। दिल्ली के दिल में भी हूक सी उठती थी कि हाय, यह भारत भवन हमारा क्यों न हुआ। भारत भवन की दुर्दशा को देखकर दिल्ली अब रोता भी होगा कि एक कला घर की कैसे असमय मौत हो सकती है किन्तु सच तो यही है। भारत भवन की साख दिन-ब-दिन गिरती गयी है। साख इतनी गिर गयी कि भारत भवन हाशिये पर चला गया। बीते वर्षों में भारत भवन को हाशिये पर ले जाने के लिये एक सुनियोजित एजेंडा तय किया गया। बिना किसी ध्वनि के भारत भवन के बरक्स नयी संस्थाओं की नींव रखी जाने लगी। इसे मध्यप्रदेश में संस्कृति के विस्तार का हिस्सा बताया गया किन्तु वास्तविकता यह थी कि इस तरह भारत भारत भवन को हाशिये पर ढकेलने की कोशिश को परिणाम तक पहुंचाया गया। भारत भवन के विभिन्न प्रकल्पों में एक रंगमंडल है जहां न केवल नाटकों का मंचन होता है बल्कि यह पूर्णरूपेण तथा पूर्णकालिक नाट्यशाला है। रंगमंडल को सक्रिय तथा समूद्ध बनाने के स्थान पर मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय की स्थापना कर दी गई। रंगमंडल और मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के कार्यों में बुनियादी रूप से कोई बड़ा अंतर नहीं दिखता है। सिवाय इसके कि मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय युवा रंगकर्मियों को डिग्री बांटने लगा। क्या इसका जिम्मा रंगमंडल को देकर उसे समृद्ध और जवाबदार बनाने की पहल नहीं हो सकती थी? हो सकती थी लेकिन सवाल यह है कि वह दृष्टि कहां से लायें जो दृष्टि भारत भवन की रचना करने वालों के पास थी। भारत भवन के दूसरे प्रकल्प भी इसी तरह दरकिनार कर दिये गये। अनेेक आयोजनों का दोहराव साफ देखा जा सकता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

भारत भवन कभी राज्य सरकार की प्राथमिकता में था लेकिन दो दशक से ज्यादा समय हो गया है जब सरकारों के लिये भारत भवन कोई बहुत मायने नहीं रखता है। राज्य का संस्कृति विभाग इसका जिम्मा सम्हाले हुये है। वह जो एजेंडा तय करता है, सरकार की मुहर लग जाती है। आयोजनों की औपचारिकता पूरी कर दी जाती है और फिर एक नये आयोजन की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं। अब जब भारत भवन के हालात पर चर्चा कर रहे हैं तो यह जान लेना भी जरूरी हो जाता है कि अनदेखा किये जाने वाले इस कला-घर में आयोजन की जरूरत क्यों है तो इसका जवाब साफ है कि विभाग के पास एक बड़ा बजट होता है और बजट को खर्च करने के लिये आयोजन की जरूरत होती है। यदि यह न हो तो आयोजन की औपचारिकता पूरी करने की भी जरूरत नहीं रहेगी। जिस भारत भवन के मंच के लिये शौकिया रंगकर्मी लड़ते थे, अब उन्हें यह आसानी से मिलने लगा है। लडक़र मंच पाने के बाद जो नाट्य मंचन होता था या दूसरे आयोजन होते थे तो एक सुखद तपन का अहसास होता था। अब वह तपन, वह सुख नहीं मिलता है। सब कुछ एक प्रशासनिक ढंाचे में बंधा और सहेजा हुआ। कई बार तो अहसास होता है कि कलाकार भी बंधे-बंधाये से हैं। अखबारों में आयोजन को इसलिये भी स्थान मिल जाता है कि उनके पन्नों में कला संस्कृति के कव्हरेज के लिये स्पेस होता है। स्मरण रहे कि खबर और सूचना तक भारत भवन के आयोजनों का उल्लेख होता है, आयोजनों पर विमर्श नहीं। कला समीक्षकों और इसमें रूचि रखने वालों के मध्य जो चर्चा का एक दौर चला करता था, अब वह भी थमने सा लगा है।

यूं तो भारत भवन को आप विश्वस्तरीय कला घर का दर्जा देते हैं किन्तु भारत भवन मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग का एक हिस्सा है। एक ऐसा हिस्सा जिसने अपने निर्माण और स्थापना के साथ ही उपलब्धियों का शीर्ष पाया और समय के साथ फर्श पर भी आ गया है। भारत भवन का वह स्वर्णिमकाल भी था जब उसके आयोजनों को लेकर, आमंत्रित रचनाधर्मियों को लेकर बकायदा विरोध दर्ज होता था। इस तरह के विरोध से भारत भवन और निखर निखर जाता था। स्मरण करेंं संस्कृति सचिव के तौर पर अशोक वाजपेयी के उस बयान का जिसमें उन्होंने कहा था कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है और इस बयान के साथ जहरीली गैस से बरबाद होते भोपाल में उन्होंने एशिया कविता सम्मेलन का आयोजन करा लिया था। वाजपेयी कितने सही थे या गलत, यह चर्चा का दूसरा विषय होगा लेकिन क्या इसके बाद किसी में हिम्मत थी कि वह इस बेबाकी के साथ आयोजन को अंजाम दे सकें। भारत भवन के उस स्वर्णिम काल का स्मरण करना सुखद लगता था जब भारत भवन को खड़ा करने में स्वामीनाथन और ब.व. कारंत जैसे लोगों का योगदान रहा। भारत के शीर्ष के रचनाधर्मियों का समागम निरंतर होता रहा। अपनी प्रतिबद्धताओं के लिये मशहूर लोग आते और बहस-मुबाहिसे का लम्बा दौर चलता। तब की सांस्कृतिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के लिये भारत भवन का विवाद कव्हरस्टोरी बनता। भारत भवन बीते वर्षों में अपनी यह छाप खो चुका है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आयोजनों का लम्बा दौर चला है और इस नये दौर में अंतर प्रादेशिक आयोजनों की नयी श्रृंखला भी आरंभ हुई है। पहले बिहार, अब राजस्थान और आने वाले दिनों में अन्य प्रदेशों की कला-संस्कृति का प्रदर्शन भारत भवन में हुआ और होगा। इस नये किस्म के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिये। किन्तु एक सवाल यह भी है कि क्या जिन प्रदेशों को हम मंच दे रहे हैं, उन प्रदेशों में भारत के ह्दयप्रदेश ‘मध्यप्रदेश’ को कहीं स्थान दिया गया। संस्कृति के पहरूओं ने इस दिशा में कोई कोशिश की या हम दूसरों के ही ढोल बजाते रहेंगे? संस्कृति विभाग के आला अफसर तो समय समय पर बदलते रहे किन्तु दूसरी और तीसरी पंक्ति में वर्षों से जमे लोगों के कारण भी भारत भवन का नुकसान हुआ। यह आरोप मिथ्या नहीं है बल्कि सच है कि एक बड़े आदिवासी भूभाग वाले मध्यप्रदेश में विविध कलाओं के कलाकारों को स्थाना भारत भवन के निर्माण से स्थापना के समय तक मिला था, अब वह भी गुम हैं।

एक ईंट गारा ढोने वाली भूरीबाई भारत भवन में ईंट जोडऩे आयी थी और उसकी कलारूचि ने ही उसे मध्यप्रदेश शासन का शीर्ष सम्मान दिलाया। इसके बाद इन कलाकारों के लिये भारत भवन में कितना स्थान बचा है, यह कहने की जरूरत नहीं। इसके पक्ष में यह तर्क दिया जा सकता है कि मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय इन्हीं वर्गो के लिये स्थापित किया गया है। सवाल यह है कि इन कलाकारों को मुख्यधारा से अलग करने की कोशिश कोशिश ने आकार ले लिया है? यंू भी मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय राज्य के जनजातीय विभाग का है न कि संस्कृति विभाग का। हम इस विवाद में भी नहीं पडऩा चाहते अपितु हमारी चर्चा के केन्द्र में भारत भवन है और हम चाहते हैं कि इन कलाकारों को भारत भवन का मंच मिले। संस्कृति की मुख्यधारा में इनका हस्तक्षेप हो ताकि भारत भवन का गौरव वापस आ सके। लोग चमत्कृत हो सकें और कह सकें कि यह मेरा मध्यप्रदेश है, यह मेरा भोपाल है और यह मेरा कलाघर भारत भवन है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक मनोज कुमार मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09300469918 के जरिए किया जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement