जन्मदिन 8 अगस्त पर : राजेन्द्र माथुर की गैरहाजिरी के 25 साल

किसी व्यक्ति के नहीं रहने पर आमतौर पर महसूस किया जाता है कि वो होते तो यह होता, वो होते तो यह नहीं होता और यही खालीपन राजेन्द्र माथुर के जाने के बाद लग रहा है। यूं तो 8 अगस्त को राजेन्द्र माथुर का जन्मदिवस है किन्तु उनके नहीं रहने के पच्चीस बरस की रिक्तता आज भी हिन्दी पत्रकारिता में शिद्दत से महसूस की जाती है। राजेन्द्र माथुर ने हिन्दी पत्रकारिता को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया, वह हौसला फिर देखने में नहीं आता है। ऐसा भी नहीं है कि उनके बाद हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में किसी ने कमी रखी लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में एक सम्पादक की जो भूमिका उन्होंने गढ़ी, उसका सानी दूसरा कोई नहीं मिलता है। राजेन्द्र माथुर के हिस्से में यह कामयाबी इसलिए भी आती है कि वे अंग्रेजी के विद्वान थे और जिस काल-परिस्थिति में थे, आसानी से अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे लेकिन हिन्दी के प्रति उनकी समर्पण भावना ने हिन्दी पत्रकारिता को इस सदी का श्रेष्ठ सम्पादक दिया। इस दुनिया से फना हो जाने के 25 बरस बाद भी राजेन्द्र माथुर दीपक की तरह हिन्दी पत्रकारिता की हर पीढ़ी को रोशनी देने का काम कर रहे हैं।

भारत भवन : याद रह गयी तेरी कहानी

13 फरवरी 1982 का दिन और आज तैंतीस बरस बाद 13 फरवरी 2015 का दिन। यह तारीख बार बार और हर बार आयेगी लेकिन भारत भवन का वह गौरव कभी आयेगा, इस पर सवाल अनेक हैं। यह सवाल विमर्श मांगता है किन्तु  विमर्श की तमाम संभावनायें पीछे छूट गयी हैं। इतनी पीछे कि अब भारत भवन के गौरव को पाने के लिये शायद एक और भारत भवन की रचना की पृष्ठभूमि तैयार करने की जरूरत दिखती है। यह जरूरत पूरी करने की कोशिश हुई भी तो इसके बावजूद शर्तिया यह कह पाना मुश्किल सा है कि भारत भवन की विश्व-व्यापी कला-घर की पहचान लौट पायेगी। एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले इस कला घर की यह दुर्दशा स्वयं से हुई या इसके लिये बकायदा पटकथा लिखी गयी थी, इस पर कोई प्रामाणिक टिप्पणी करना तो मुश्किल सा है लेकिन आज भारत भवन हाशिये पर है, इस बात शीशे की तरह साफ है। तैंतीस बरस का यह कला घर अब एक मामूली आयोजन स्थल में बदल गया है। बिलकुल वैसे ही जैसे भोपाल के दूसरे आयोजन स्थल हैं। भारत भवन के आयोजन की फेहरिस्त लम्बी हो सकती है लेकिन गुणवत्ता पर अब चर्चा नहीं होती है क्योंकि आयोजन अब स्थानीय स्तर के हो रहे हैं। भारत भवन के मंच से संसार भर के कलासाधकों का जो समागम होता था, उस पर पूर्ण न सही, अल्पविराम तो लग चुका है।

बाल पत्रकारिता : संभावना एवं चुनौतियां

: 14 नवम्बर बाल दिवस पर विशेष लेख : बीते 5 सितम्बर 2014, शिक्षक दिवस के दिन जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बच्चों से रूबरू हो रहे थे तब उनके समक्ष देशभर से हजारों की संख्या में जिज्ञासु बच्चे सामने थे। अपनी समझ और कुछ झिझक के साथ सवाल कर रहे थे। इन्हीं हजारों बच्चों में छत्तीसगढ़ दंतेवाड़ा से एक बच्ची ने आदिवासी बहुल इलाके में उच्चशिक्षा उपलब्ध कराने संबंधी सवाल पूछा। यह सवाल उसके अपने और अपने आसपास के बच्चों के हित के लिये हो सकता है लेकिन यह सवाल बताता है कि ऐसे ही बच्चे पत्रकारिता के नये हस्ताक्षर हैं। एक पत्रकार का दायित्व होता है कि वह समाज के बारे में सोचे और सरकार को अपनी सोच के केन्द्र में खड़ा करे। इस स्कूली छात्रा ने यह कर दिखाया जब उसके सवाल से प्रधानमंत्रीजी न केवल संजीदा हुये बल्कि इसे देश का सवाल माना।  यह सवाल एक विद्यार्थी का था लेकिन उसके सवाल पूछने का अंदाज और भीतर का आत्मविश्वास बताता है कि यह आग पत्रकारिता के लिये जरूरी है।