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उत्तर प्रदेश

यूपी उप-चुनावः बसपाई वोटों से हुआ सपा का बेड़ा पार

उत्तर प्रदेश उप-चुनाव में 11 में से 08 विधान सभा के साथ मैनपुरी लोकसभा सीट पर जीत का परचम फहरा कर सपा ने चार महीने के भीतर ही पासा पलट दिया। इस जीत के साथ ही समाजवादी पार्टी को नई ‘उड़ान’ मिल गयी है। कहने को तो उप-चुनाव मात्र 11 विधान सभा और एक लोकसभा सीट पर हुआ था और इसके फैसलों से सत्ता के समीकरण पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जीत का स्वाद चखने के लिये सपा के कई कद्दावर नेता ही नहीं मुलायम सहित उनके पूरे कुनबे में चुनावी जंग में बुरी तरह से ‘एडि़यां’ घिसी थीं, जिसका उसको फायदा भी मिला। समाजवादी पार्टी को इस समय अपना चेहरा चमकाने और अखिलेश सरकार की लाज बचाये रखने के लिये अच्छी खबर का बेहद इंतजार था।

<p>उत्तर प्रदेश उप-चुनाव में 11 में से 08 विधान सभा के साथ मैनपुरी लोकसभा सीट पर जीत का परचम फहरा कर सपा ने चार महीने के भीतर ही पासा पलट दिया। इस जीत के साथ ही समाजवादी पार्टी को नई ‘उड़ान’ मिल गयी है। कहने को तो उप-चुनाव मात्र 11 विधान सभा और एक लोकसभा सीट पर हुआ था और इसके फैसलों से सत्ता के समीकरण पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जीत का स्वाद चखने के लिये सपा के कई कद्दावर नेता ही नहीं मुलायम सहित उनके पूरे कुनबे में चुनावी जंग में बुरी तरह से ‘एडि़यां’ घिसी थीं, जिसका उसको फायदा भी मिला। समाजवादी पार्टी को इस समय अपना चेहरा चमकाने और अखिलेश सरकार की लाज बचाये रखने के लिये अच्छी खबर का बेहद इंतजार था।</p>

उत्तर प्रदेश उप-चुनाव में 11 में से 08 विधान सभा के साथ मैनपुरी लोकसभा सीट पर जीत का परचम फहरा कर सपा ने चार महीने के भीतर ही पासा पलट दिया। इस जीत के साथ ही समाजवादी पार्टी को नई ‘उड़ान’ मिल गयी है। कहने को तो उप-चुनाव मात्र 11 विधान सभा और एक लोकसभा सीट पर हुआ था और इसके फैसलों से सत्ता के समीकरण पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था, लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जीत का स्वाद चखने के लिये सपा के कई कद्दावर नेता ही नहीं मुलायम सहित उनके पूरे कुनबे में चुनावी जंग में बुरी तरह से ‘एडि़यां’ घिसी थीं, जिसका उसको फायदा भी मिला। समाजवादी पार्टी को इस समय अपना चेहरा चमकाने और अखिलेश सरकार की लाज बचाये रखने के लिये अच्छी खबर का बेहद इंतजार था।

करीब तीस महीने पुरानी सपा सरकार प्रदेश कानून व्यवस्था के साथ-साथ प्रदेश के बिगड़े हालातों को लेकर विरोधियों के निशाने पर थी। इससे उसे तभी छुटकारा मिल सकता था, जब उसके सिर किसी भी तरह से जीत का सेहरा बंधता, जो हो गया। उम्मीद की जानी चाहिए की थोड़े समय के लिये ही सही अखिलेश सरकार के खिलाफ उठने वाली उंगलियों रूक जायेंगी। उधर, लोकसभा के नतीजे आने के बाद जो भाजपा, समाजवादी सरकार के खिलाफ काफी आक्रमक हो गई थी, उप-चुनाव में उसका पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ। भाजपा की प्रदेश इकाई पूरी तरह से नाकाम रही और योगी आदित्यनाथ के सहारे वोटों के हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण का करिश्मा दोहराया नहीं जा सका।

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निश्चित ही उप-चुनाव से बसपा की गैर-मौजूदगी का फायदा उठाने में भाजपा नेतृत्व पूरी तरह से नाकाम रहा, बसपा के वोटरों ने माया के कहने पर निर्दल प्रत्याशी के लिये मतदान करने से अच्छा साइकिल की सवारी करना बेहतर समझा। सपा की जीत के मुख्य कारणों पर चर्चा की जाये तो जो बातें खास नजर आ रही हैं उससे तो यही लगता है कि बसपा का चुनावी जंग में न होना और भारतीय जनता पार्टी के वोटरों का मतदान के दिन घर से न निकलना बीजेपी की हार का मुख्य कारण बना। भाजपा ने जिन तीन सीटों (लखनऊ पूर्व, नोयडा और सहारनपुर नगर) पर जीत हासिल की वह सभी शहरी क्षेत्र की सीटें थीं। इससे यह बात भी पुख्ता हो जाती है अभी भी भाजपा ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर पाई है।

बहरहाल, समाजवादी पार्टी इस लिये भी उत्साहित है कि उसने चुनाव में सब कुछ झोंक दिया था, उप-चुनाव को लेकर  भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस भी काफी संजीदा थे, लेकिन इन दलों ने उप-चुनावों को अपनी प्रतिष्ठा से नहीं जोड़ा था, जिसके जरिये यह नेता हार के बाद चेहरा बचाने में लगे भी हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश पार्टी इकाई के सहारे ही पूरा चुनाव अभियान चलाया। दिल्ली से कोई भी बड़ा भाजपा नेता अपने प्रत्याशियों का समर्थन करने नहीं आया। मोदी की तो बात छोड़ ही दीजिये, केन्द्रीय मंत्री और यूपी का बड़ा राजनैतिक चेहरा समझे जाने वाले राजनाथ सिंह, उभा भारती, कलराज मिश्र, मेनका गांधी, संतोष गंगवार के साथ-साथ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक चुनाव से दूर ही दूर रहे।

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अपवाद को छोड़कर कोई खास रूप से सक्रिय नहीं नजर आया। भाजपा आलाकमान को तो संभवता पहले ही इस बात का अहसास हो गया था कि चाहें भाजपाई जिनती भी ताकत लगा लें, इस चुनाव से उसकी साख को बट्टा लगना तय है और हुआ भी ऐसा ही, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि जिन सीटों पर उप-चुनाव हुआ था, वहां की सभी 11 विधान सभा सीटों पर 2012 में भाजपा प्रत्याशियों ने विपरीत परिस्थति में भी जीत हासिल की थी। उस समय न तो मोदी फैक्टर काम कर रहा था, न बीजेपी के प्रति कोई लहर जैसी चीज थी। इस हार के बाद भाजपा आलाकमान यूपी को लेकर नये सिरे से रणनीति बना सकता है। जिसके चलते कई चेहरे संगठन से अंदर बाहर हो सकते हैं।

बात कांग्रेस की कि जाये तो उसने भी किसी नामचनी हस्ती को चुनाव प्रचार में नहीं उतारा, न राहुल और न ही सोनिया गांधी अपने प्रत्याशियों के समर्थन में प्रचार करने आईं। इसी तरह कांग्रेस नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, सलमान खुर्शीद, आरपीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, पूर्व सांसद और कांग्रेस का दलित चेहरा समझे जाने वाले पीएल पुनिया भी करीब-करीब चुनाव से दूर ही रहे। यूपी के साथ गुजरात, राजस्थान में भी उप-चुनाव हुए थे। यहां कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक रहा। खासकर राजस्थान में तो उसने चार में से तीन सीटों पर कब्जा कर लियो। इन नतीजों से कांग्रेस आलाकमान जरूर यह सोचने को मजबूर हो गया होगा कि उसने यूपी के चुनावों को इतनी सहजता से क्यों लिया।

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बसपा ने तो अपने आप को उप-चुनाव से पहले ही किनारे कर लिया था। जब नतीजे आये उस समय बसपा का कानपुर में अधिवेशन चल रहा था। वहां जब यह खबर पहुंची तो बसपाई अपने आप को असहज महसूस करने लगे। यहां तक की उनकी मीडिया से चुनाव नतीजों को लेकर झड़प भी हो गई। वैसे, कहा तो यहां तक जाता है कि तमाम दलों के बड़े नेताओं की उप-चुनाव को लेकर बेरूखी के चलते इसका प्रभाव मतदान प्रतिशत पर भी देखा गया जो अचानक बुरी तरह से गिर गया। शहरी इलाके के वोटर तो तमाम कोशिशों के बाद भी घरों से नहीं निकले।

उप-चुनाव में प्रयोगों की बात की जाये तो सपा-भाजपा की तरफ से कुछ राजनैतिक प्रयोग भी किये गये। अबकी बार समाजवादी पार्टी ने तुष्टिकरण की राजनीति को ज्यादा हवा नहीं दी। प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार अभियान तक में इस बात का अहसास साफ दिखाई दिया। आजम खां जैसे नेताओं से थोड़ी दूरी बनाकर ही प्रचार अभियान चलाया गया ताकि सपा के खिलाफ वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो सके। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दुत्व को लेकर बड़ा प्रयोग किया। भाजपा ने पूरा चुनाव  हिन्दुत्व के सहारे लड़ा, जिसके नायक थे योगी आदित्यनाथ और अन्य कुछ साधू-संत।

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यह प्रयोग सफल रहा होता तो योगी आदित्यनाथ जो अब महंत बन गये हैं, का कद पार्टी के भीतर अपने आप बढ़ जाता लेकिन जो नतीजे आये उससे तो यही लगता है कि योगी अब फिर गोरखपुर तक सिमट सकते हैं। नतीजों के साथ ही सपा के बयान बहादुर मीडिया के समाने चैड़ी छाती करके घूमने लगे हैं। सीएम अखिलेश से लेकर शिवपाल, रामगोपाल, नरेश अग्रवाल, राजेन्द्र चैधरी सभी भाजपा को कोस रहे हैं। वहीं भाजपा नेता बचाव की मुद्रा में है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने तो हार के बाद उप-चुनावों को सत्ता का सेमीफाइनल मानने से ही इंकार कर दिया है।

 

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लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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