चंद्र भूषण-
क्या-क्या गुल खिलाएगी चीन की घटती आबादी
एक देश की आबादी पिछले साल से कम निकलना दुनिया की सबसे बड़ी खबर बन जाएगी, हाल तक यह कौन सोच सकता था। लेकिन मामला अगर दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के बल पर हर माल की ग्लोबल कीमत जमीन पर ला देने वाले चीन का हो तो सबका चौंकना लाजमी है। चीन के नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स ने अभी हाल में आंकड़ा जारी करके बताया कि सन 2023 की शुरुआत में वहां की जनसंख्या 2022 की उसी तारीख की तुलना में साढ़े आठ लाख कम निकली। जनगणना कहीं भी हर साल किया जाने वाला काम नहीं है। ऐसे में असल आंकड़े जरा ऊपर-नीचे भी हो सकते हैं, लेकिन रुझान बता रहे हैं कि चीन की आबादी घटने की शुरुआत हो चुकी है।
चीनी हुकूमत को इसका अंदाजा 2015 में ही हो चुका था। 2016 में उसने ‘मियां-बीबी और एक बच्चा’ वाली अपनी 35 साल पुरानी नीति पलट दी। बच्चों की तादाद पहले दो, फिर 2021 में बढ़ाकर तीन कर दी। लेकिन यह बीमारी ही कुछ ऐसी है कि कोई दवा काम नहीं करती। दक्षिण कोरिया, जापान और पूर्वी यूरोप के ज्यादातर देशों में बच्चे पैदा करने पर चीन की तरह कोई रोक नहीं थी। इन सारी जगहों पर ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए सरकारों की तरफ से आकर्षक योजनाएं भी लाई गईं। फिर भी इनकी आबादी की गिरावट रुकने का नाम नहीं ले रही। कमोबेश यही हाल सारे विकसित देशों का है, लेकिन एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका से इनकी तरफ जारी पलायन ने अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोपीय देशों में कुल मिलाकर जनसंख्या बढ़ने का रुझान कायम रखा है।
संतुलन कायम रखने का यह सूत्र चीन पर शायद ही लागू हो, क्योंकि काम के लिए बाहर से आने वाले वहां कम ही रहेंगे। चीन सरकार ने गिड़गिड़ाते हुए अपनी जनता से अपील की कि कृपया ज्यादा बच्चे पैदा करें। सर्वे से पता चला कि चीनी मिडल क्लास बच्चों की पढ़ाई पर आने वाले बेतहाशा खर्च से परेशान होकर खुद को एक ही बच्चे तक समेटे हुए है, तो अरबों डॉलर का नुकसान उठाकर ऑनलाइन ट्यूशन कंपनियों पर रोक लगा दी गई। ऐसे नियम बना दिए गए कि अभिभावक अपने बच्चों के लिए प्राइवेट ट्यूशनों की तरफ भी न दौड़ें। कुछ राज्य सरकारों ने बच्चा पैदा होने के बाद तीन साल तक पति-पत्नी को नौकरी में कुछ राहतें देने का इंतजाम किया। लेकिन बीते सात वर्षों में सारे सरकारी उपाय सिर्फ एक साल, सन 2016-17 में ही थोड़ा-बहुत काम करते दिखे, जब बच्चों की जन्म-दर में थोड़ा इजाफा दर्ज किया गया था।
दरअसल, चीन की आबादी को, उसके सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान होना था वह 1980 से 2015 तक के 35 वर्षों में हो चुका है, और उसकी भरपाई हो पाना अब बहुत मुश्किल लगता है। मानव इतिहास में बच्चों का पालन-पोषण गांव-पड़ोस-मोहल्ले और मामा-मौसी, चाचा-बुआ के पारिवारिक ढांचे के जरिये ही होता आया है। लेकिन चीन में ऐसी एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है, जिसने इन रिश्तों का नाम ही नहीं सुना है। अगर मां-बाप के कोई भाई-बहन ही नहीं होंगे तो मामा-मौसी, चाचा-बुआ कहां से आएंगे? अकेले बच्चों से जुड़ी असुरक्षाएं लोगों में पड़ोसियों को भी संभावित शत्रु की तरह देखने की प्रवृत्ति पैदा कर देती हैं।
चीन के समाजशास्त्री इस तरह की सारी समस्याएं लंबे अर्से से गिनाते आ रहे हैं। इसके बावजूद चीन की सरकार ‘एक बच्चा’ की नीति पर 35 साल अड़ी रही तो इसका मूल कारण उसका यह खौफ था कि बढ़ती आबादी को रोजगार और बुनियादी सुविधाएं न करा पाने से असंतुष्ट लोग कहीं उसके एकदलीय शासन के लिए मुश्किलें न खड़ी कर दें। कम्युनिस्ट चीन के जनसंख्या रुझानों पर एक नजर डालें तो इसमें आश्चर्यजनक उतार-चढ़ाव दिखाई देते हैं। भारत में 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय एक गाना लोकप्रिय हुआ था- ‘चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।’ हमारी जनसंख्या उस समय चालीस करोड़ से जरा ज्यादा ही थी लेकिन चीन की आबादी तब पैंसठ करोड़ का कांटा छू रही थी। सत्तर का दशक शुरू होने तक यह 80 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी थी और चीनी नेतृत्व इस नतीजे पर पहुंच गया था कि वह सिर के बल खड़ा हो जाए तो भी इतनी बड़ी आबादी के लिए नौकरी, घर, खाना-कपड़ा, शिक्षा और स्वास्थ्य का इंतजाम नहीं कर सकता।
ध्यान रहे, माओ त्सेतुंग और चाओ एनलाई की मृत्यु से जुड़ा यह दशक कम्युनिस्ट चीन में व्यवस्था के संकट के लिए जाना गया। काफी उथल-पुथल के बाद तंग श्याओफिंग ने वहां सत्ता की बागडोर संभाली, बाजार-व्यवस्था और बाहरी दुनिया के प्रति खुलेपन का रास्ता अपनाया तो घरेलू स्तर पर पहला काम यह किया कि ‘एक बच्चा नीति’ के जरिये आबादी में तेज वृद्धि के रुझान पर ढक्कन लगा दिया। इस नीति ने बीसवीं सदी बीतने तक चीन को एक मामले में बड़ी मदद पहुंचाई कि जरूरी खर्चे कम होने से थोड़ी आमदनी में भी लोगों का गुजारा होता रहा और अपनी बचत के बल पर वे बहुत जल्द किसी मध्यवर्गीय उपभोक्ता समाज जैसा बरताव करने लगे। इससे देखते-देखते चीन न केवल बहुत बड़े बाजार में बदल गया, बल्कि विश्व व्यापार संगठन के जरिये दुनिया में आए खुलेपन का फायदा उठाते हुए अपने सस्ते सामानों के बल पर यूरोप, अमेरिका और जापान के जमे-जमाए मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को अप्रासंगिक बना दिया।
इन विकसित देशों को 2008-09 की मंदी के बाद अपने पांवों के नीचे से खिसक चुकी जमीन का अंदाजा होना शुरू हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दुनिया की नंबर दो इकॉनमी बन गया चीन उन्हें बैठे-ठाले किराया खाने वाली ताकतों में बदल चुका था। सवाल यह है कि अभी चीन का नीतिगत चक्का जब जनसंख्या वाली अपनी धुरी से पीछे पलटने की ओर है, तब क्या उसके विकास का किस्सा पहले जैसा ही आगे बढ़ता रहेगा? सन 2027 तक, या इस दशक में ही किसी दिन अमेरिका को पीछे छोड़कर उसके संसार की नंबर एक अर्थव्यवस्था बन जाने की जो संभावना जताई जा रही थी, क्या वह अब भी ज्यों की त्यों बनी रहेगी? यह भी कि चीन कभी ‘उच्च आय’ अर्थव्यवस्था बन पाएगा, या आबादी बढ़ाने की कोशिश उसे निम्नमध्यवर्गीय अर्थव्यवस्था वाली चक्की में ही पिसने के लिए छोड़ देगी?
बताना जरूरी है कि कुछ और चीजें भी ठीक इसी समय उसके खिलाफ जा रही हैं। विकसित देश यह सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि खुले विश्व बाजार का फायदा आगे चीन को पहले जैसा ही न मिलता रहे। इसके लिए कई सारे उपाय वे कर रहे हैं, लेकिन सबसे सघन कोशिश उनकी तरफ से यह है कि उनकी आधुनिकतम तकनीकी चीन के हाथ न लगने पाए। इन सवालों का जवाब कुछ साल बीतने के बाद ही मिल सकेगा, जब अपनी जनसंख्या को स्थिर करने की चीनी कोशिशों पर कोई अंतिम राय बनेगी और 2025 तक तकनीकी आत्मनिर्भरता हासिल कर लेने के उसके दावों की असलियत परखी जाएगी। मोटे तौर पर कहें तो अगर बीच में ही कोई बड़ी जंग न छिड़ जाए तो 2026-27 तक हम चीन के भविष्य को लेकर कुछ नतीजे निकालने की हालत में होंगे। अभी तो सिर्फ इतना कि अगले पांच वर्षों में विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी घेरी हुई कुछ जगहें निश्चित रूप से खाली होंगी, जिनका हकदार बनने की कोशिश भारत को करनी चाहिए।
Amit Kumar
January 27, 2023 at 7:11 am
All the countries are facing the same situation after Corona. There is population downward trends as millions of people have died. We will know the actual position in India when Indian government will be able to count the population (delay of 3 year).