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सियासत

आखिर चूक कहां पर हो गई?

2019 आम चुनाव का रिजल्ट आ चुका है। इसे आप विपक्ष के नजरिये से दो तरीके से देख सकते हैं। पहला तरीका यह है कि आप अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ दें और चुप बैठ जाएं। दूसरा तरीका है कि आप विश्लेषण करें, पीछे जाएं और अपनी की हुई गलतियों को चिन्हित करें और उस पर बात करें। अगर आप यह नहीं कर सकते हैं तो भला यही होगा कि आप ईवीएम पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ दे। यह बातें इतनी आसान नहीं है जितना कि आप समझते हैं। भारत का एक पढ़ा-लिखा चेतन मस्तिष्क वाला वर्ग बुद्धिजीवी वर्ग कहें या एक प्रगतिशील वर्ग या ऐसा वर्ग जो कट्टरपंथी नहीं है। वह वर्ग भारतीय जनता पार्टी के इस जीत को अपने हार के रूप में देखता है और देख भी रहा है। पुरस्कार वापसी से लेकर अब तक देखें तो एक जो समतावादी वर्ग है जो लोकतांत्रिक ढंग से देश को चलते हुए देखना चाहता है, जिसमें समता समानता और धार्मिक स्वतंत्रता की बात हो, वह कहीं ना कहीं अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता है। लेकिन बात सिर्फ उसके ठगे जाने की नहीं है, अब तो बात करने की जरूरत है कि चूक कहां पर हो गई । आइए हम इसके अलग-अलग पहलुओं पर बातचीत करेंगे।

प्रधानमंत्री मोदी की तमाम नीतियों की ओर यदि जाएं जो पिछले 5 सालों में दिखाई पड़ती है। तो चाहे मामला नोटबंदी का हो या जीएसटी का हो या फिर मॉब लिंचिंग का या फिर उन नीतियों का जिन्होंने कई लोगों को बेरोजगार कर दिया। युवाओं को रोजगार नहीं मिला। राफेल से लेकर पुलवामा की घटना, करकरे से लेकर 1 शहीद को बेइज्जत करने की घटना को यदि आप याद करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर इन सबके होने के बावजूद मोदी और उनकी सरकार या कहे उनकी पार्टी इतने बड़े बहुमत से कैसे जीत गई। क्या लोगों में चेतना की कमी है या फिर लोग गंभीरता से इन मुद्दों को नहीं ले पा रहे हैं।

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चुनाव विश्लेषक यह मानकर चल रहे हैं या जो डाटा सामने आ रहा है वह यह बताता है की 18 से 27 साल के वोटर्स बड़ी तेजी से भारतीय जनता पार्टी की ओर खिसके हैं। यानी युवा वोटर्स पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना ध्यान केंद्रित किया है और कहीं ना कहीं उन्हें अपनी ओर खींचने में कामयाब हुए हैं। लेकिन वही यदि दूसरी ओर कहें तो विपक्षी पार्टियां चाहे वह कांग्रेस हो या बहुजन समाज पार्टी हो या फिर वामपंथी पार्टियां या कहे समाजवादी पार्टीया । इन लोगों ने मुद्दों को उस ढंग से नहीं लिया जिस ढंग से उन्हें लेना चाहिए था। भारतीय जनता पार्टी की सरकार के तमाम नाकामियों को जनता तक ले जाने में नाकामयाब रहे और उन्हें यह समझाने में कहीं ना कहीं फेल साबित हुए की वे भारतीय जनता पार्टी से अच्छी सरकार और नेता दे सकते थे। अब हम बात करते हैं प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस की।

कार्बन कॉपी नहीं चलेगा

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यदि कांग्रेस की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी की तुलना में कांग्रेस में केवल एक ही व्यक्ति लड़ रहा था। वह है राहुल गांधी बाकी उनकी टीम और उनके बूथ लेवल कार्यकर्ता नदारद थे। नदारद थे मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कार्यकर्ता सिर्फ वोट को अपनी ओर खींचने में मदद नहीं करता बल्कि अपने विचार को भी मतदाताओं तक पहुंचाने का काम करता है। एक टीम भावना जो होनी चाहिए वह कहीं ना कहीं उनके कार्यकर्ताओं में नहीं दिखी और कांग्रेस का सबसे दुखद पहलू यह रहा की अभी हाल ही में जिन-जिन तीन राज्यों में कांग्रेस ने जीत हासिल की वह भी स्थानीय नेताओं की गुटबंदी का शिकार हो गया। जो वोट उनको पिछले बार मिले थे उन वोट को भी वह स्थाई नहीं रख पाई और लोकसभा में करारी हार हुई।

राहुल गांधी की बात करें तो राहुल गांधी एक अपरिपक्व नेता के रूप में वह सामने दिखाई पड़ते हैं । विदेश जाकर कभी वह गंभीरता से आर एस एस की बुराइयों को गिनाते हैं और मॉब लिंचिंग की बात करते हैं जीएसटी की बात करते हैं तो लगता है कि वह बेहद बुद्धिमान है। लेकिन जब वही राहुल गांधी देश में आते हैं तो नरेंद्र मोदी की ही तरह अपने हिंदुत्व की छवि को सामने लाने की कोशिश करते हैं और मंदिर मंदिर माथा टेकते हैं। कभी अपने जनेऊ को दिखाते हैं। तो लगता है कि वे अपरिपक्‍व और भाजपा की कार्बन कापी बन रहे है। कांग्रेस को उसके यही सॉफ्ट हिंदुत्व ने ठिकाने लगा दिया है। मैं इसके पहले के अपने आर्टिकल्स मे इन बातों को ला चुका हूं की जनता को सॉफ्ट हिंदुत्व नहीं चाहिए । जिसे हिंदुत्व चाहिए वह कट्टर हिंदुत्व ही चाहेगा लेकिन यह बात कांग्रेस के नेताओं तक शायद नहीं पहुंच पाई। राहुल गांधी तक नहीं पहुंच पाई। वे लगातार सॉफ्ट हिंदुओं को लेकर काम कर रहे थे और वह उनके खिलाफ जाता हुआ दिख रहा था। याने देश ने मोदी की कार्बन कापी बनने की कोशिश करते हुए राहुल को सिरे से नकार दिया है।
तो फिर देश को क्या चाहिए। दरअसल भारत एक विविधता वाला देश है इस देश को तमाम विविधताओं के बीच आजादी के साथ रहने की एक आदत है, एक स्वाभाव है। उस स्वभाव को जगाना पड़ेगा कट्टर हिंदुत्व के बजाय स्वयं हिंदू समाज ही सबको लेकर चलने वाले विचारधारा को मानता है। लेकिन उसके पास ऑप्शन नहीं है। प्रगतिशील विचारधारा को लेकर के चलने वाले नेता को व खोजता है। राहुल में वह नेता नहीं मिलता है। तो मजबूरन उसे कट्टर हिंदुत्व को जाना पड़ता है। और सॉफ्ट हिंदुत्व वोट भारतीय जनता पार्टी की ओर बढ़ जाता है।

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आइए इस बीच हम वामपंथी और अंबेडकरवादी विचारधाराओं के मानने वालों पर भी बातचीत करें। हिंदू विचारधारा के बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मोदी की जीत पर यदि किसी को सबसे ज्यादा झटका पहुंचा है तो वह यही दो विचारधाराएं हैं। लेकिन यह सोचना पड़ेगा और यह समझने की भी कोशिश करनी पड़ेगी कि आखिर इन दोनों समतावादी विचारधाराओं और उनके व्यक्तियों से आखिर क्या चूक हो गई? की वह सत्ता परिवर्तन करने के अपने प्रयास में नाकामयाब हो गए। मैं इस नकामयाबी को अपने पुराने प्रश्न की ओर जाने की कोशिश करूंगा। जिसमें ऊपर के पैराग्राफ में लिखा गया है कि यंग वोटर्स पर मोदी ने ध्यान केंद्रित किया। चाहे उन्होंने इन वोटरों को सैनिकों की शहादत पर ध्रुवी कृत किया हो या फिर कट्टर राष्ट्रवाद पर। मोदी अपने आर एस एस के बनाए एजेंडे पर अडिग हैं और वह उसी एजेंडे पर युवाओं को अपनी ओर खींचने की कोशिश करते रहे हैं । हालांकि यह बात सही है कि इस काम में मेंस्ट्रीम मीडिया ने मोदी की पूरी मदद की है और वैसा मीडिया फिलहाल विपक्ष वामपंथियों या अंबेडकर वादियों के पास नहीं है। बावजूद इसके कहीं ना कहीं चूक हुई है जिस पर बात होनी चाहिए।

और हां मैं इस बात का भी जिक्र करना चाहूंगा कि यदि भारतीय निर्वाचन आयोग की बात करें तो वह इस चुनाव में बिल्कुल मोदी के साथ खड़ा हुआ दिखता है जिस प्रकार से नमो टीवी के माध्यम से चुनाव प्रचार होता रहा और भा जा पा के बड़े नेताओं की गलतियों पर चुनाव आयोग पर्दा डालता रहा या उसे क्षमा करता रहा। यह भी एक पहलू याद रखना वाला है।

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अब हम बात करते हैं उन दो विचारधाराओं की जिन्हें इस चुनाव के बाद झटका लगा। तो सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूं की इन दो विचारधाराओं को आम जनता तक पहुंचाने में क्या प्रयास किया गया। भारत में सबसे ज्यादा युवा वोटर्स हैं जो कि चुनाव को प्रभावित करते हैं । उन तक इनकी पहुंच है या नहीं कितने युवा हैं जो इन से जुड़े हुए हैं। या वे युवा तमाम युवाओं को अपने साथ जोड़ पा रहे हैं या नहीं। यह एक बड़ा प्रश्न है और इसके साथ एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या वामपंथ और अंबेडकर वाद बुड्ढे लोगों का विचारधारा बनकर रह गया है।

यदि वामपंथियों की बात करें तो पूरे देश के वामपंथियों ने कन्हैया पर जिस तरह से ध्यान केंद्रित किया और उन्हें तन मन धन से सपोर्ट किया यदि यही काम वे अपने-अपने विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में किए होते तो शायद कुछ रिजल्ट बेहतर होता हालांकि कन्हैया कुमार भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या यह दोनों विचारधाराएं अपने आंदोलन को व्हाट्सएप ग्रुप तक सीमित किए हुए हैं या सोशल मीडिया से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि इनके प्रयास इस लोकसभा में वोट के रूप में परिणित होते नहीं दिखते हैं। वे लोग जो तीन राज्य में हुए कांग्रेस की जीत का क्रेडिट लेते रहे हैं। यह सोचना होगा की किस प्रकार से अपनी रणनीति में बदलाव करने की जरूरत है।

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अब यह नहीं चलेगा कि आप मार्क्सवाद को माने साथ में अपने घरों में देवी देवताओं की तस्वीर भी लगाएं। अब यह नहीं चलने वाला कि आप सिर्फ अंबेडकर की फोटो दिखाकर वोट मांग ले और कोई आप को वोट देता चला जाए। मैं पहले भी कहता आया हूं की वोटर्स को बेवकूफ या बुद्धि हीन समझने की भूल कभी ना करें। नहीं तो धोखा मिलेगा वामपंथ की गलतियां आज पश्चिम बंगाल में सिर चढ़कर बोल रही है। वहां पर जिस गति से भारतीय जनता पार्टी आगे बढ़ रही है इसे देखकर नहीं कहा जा सकता कि कभी वहां पर वामपंथ की भी विचारधारा रही होगी। हमें चूक को ध्यान देने की जरूरत है ।

इन सबके बीच जो बातें मुझे सबसे ज्यादा विचलित करती है वह है प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोगों के जीत के क्या मायने हैं? क्या भारत का मतदाता इतना अंधा हो गया है या फिर कुछ और है कारण। जैसे वोटों का पोलराइजेशन। हालांकि भारतीय जनता पार्टी की इस जीत को मैं पार्टी की जीत देखता हूं क्योंकि ऐसे बहुत सारे गुमनाम सांसद जीत कर आए है। जो पहली बार संसद में कदम रखने वाले हैं। इसीलिए मैं इसे भाजपा की टीम वर्क का नतीजा और उनकी स्ट्रेटजी को निर्णायक मानता हूं । इसके बहुत सारे पहलू हैं इन पर बात अलग से की जा सकती है। फिलहाल इस बात पर ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा कि चूक कहां पर हो गई। और उसके विश्लेषण पर बात बार-बार होती रहनी चाहिए। और हां जिस प्रकार से मोदी ने जीत के तुरंत बाद कहा कि अब हम 2024 के चुनाव की तैयारी में लग गए हैं। क्या ठीक इसी प्रकार विपक्षी पार्टियां अपने आप को 2024 की तैयारी में लगाएगी या फिर अफीम के नींद में सो जाएंगी पहले की तरह?

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लेखक सचिन कुमार खुदशाह स्‍वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क- [email protected]

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