मंडल एवं जिला का चुनाव निपट जाने के बाद यूपी भाजपा में नई कार्यसमिति गठित होने का दिन नजदीक आ रहा है। दावेदार, उम्मीवार, रिश्तेदार, नातेदार, नेताजी का यार, मंत्रीजी का प्यार, विधायकजी का दुलार, महामंत्रीजी का राजदार यानी इस तरह के जितने भी लोग हैं, वे संगठन में फिट होने के लिये गणेश परिक्रमा से लेकर लक्ष्मी ले-देकर परिक्रमा में जुटे हुए हैं। मंडल एवं जिला स्तर पर भी ऐसे लोगों की भरमार हो गई है, जो किसी बड़े नेता के चिंटू हैं। बचे लोगों की भी चाहत है कि किसी तरह संगठन में जगह मिले, और छुछुनर का जनम छूटे। कुछ दुकान भी चले।
खैर, पद के लिये सबसे ज्यादा मार यूपी भाजपा के मीडिया सेल में है। यहां मीडिया के नजदीक पहुंचने तथा टीवी पर नजर आने की बड़ी गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। मीडिया सेल के लिये एक कहावत भी आम है कि ‘बेकार’ मीडिया प्रभारी भी एक चुनाव निकाल लेने के बाद ‘कार’ वाला हो जाता है। और बड़े बैनर वाले पत्रकारों से सेटिंग सही हो गई ‘सरकार’ वाला भी हो सकता है। इस बार भी जो भी नेता मीडिया प्रभारी बनेगा, उसके कार्यकाल में ही 2022 का विधानसभा का चुनावी रण निपटेगा। यानी माल बनाने का मौका भी मिलेगा।
हर कोई अपनी तरफ से जीतोड़ मेहनत कर रहा है। कोई अध्यक्षजी को सेट कर रहा है तो कोई महामंत्रीजी के दरबार में जयकारा लगा रहा है। कुल मिलाकर माहौल में तनावपूर्ण शांति बनी हुई है। अब यह जिम्मेदारी अध्यक्षजी किसे देंगे, ये तो वही जाने लेकिन झांसी वाले पंडीजी तो मानकर चल रहे हैं कि उनका ही अगला मीडिया प्रभारी बनना तय है। मानकर चल रहे हैं कि चूंकि अध्यक्षजी उनके इलाके वाले हैं तो उनका प्रमोशन तय है। आखिर डिप्टी के रूप में पार्टी के पैसे पर ही पूरा कार्यकाल निकाल देना सबके बस की बात है भी नहीं। कुछ हुनर तो हइये है पंडीजी में।
मीडिया सेल के वर्तमान वाले पंडीजी भी पूरी कोशिश में लगे हुए हैं कि उनका साम्राज्य जारी रहे। उनके सर पर उन वाले महामंत्री जी का हाथ है, जिनके पास ‘कम समय में कैसे बने अमीर’ और ‘झोला लेके आये हैं गैस एजेंसी ले के जायेंगे’ वाला धनवर्षा मंत्र है। यानी जिसका ‘कल राज’ था, उसका आगे भी रह सकता है। ऐसे में यह मान लेना कि झांसी वाले पंडीजी बाजी मार ले जायेंगे, थोड़ी जल्दबाजी होगी। वर्तमान वाले पंडीजी ‘भाई साहब’ के भी खासे नजदीकी हैं, इसलिये मेरे टाइप के कुछ विघ्नसंतोषी मान कर चल रहे हैं कि प्रभारी तो तीसरे वाले पंडीजी ही बनेंगे।
तीसरे वाले पंडीजी अध्यक्षजी के भी खास हैं और टीवी पर बोलते भी बहुत साफ हैं, इसलिये तीसरे वाले पंडीजी भी उम्मीद लगाये ही होंगे। खैर, मीडिया सेल में सबसे ज्यादा दिक्कत लालाजी लोगों को होने वाली है। वोट बैंक वाली जाति से आते नहीं हैं तो इनकी सुनवाई होने की संभावना कम ही है। जुगाड़ू लालाजी तो पहले भी मीडिया प्रभारी रहे हैं, आगे भी कुछ बन ही जायेंगे, लेकिन गंगा किनारे वाले ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले लालाजी का क्या होगा भगवान जाने? सबको साथ लेकर चलने के चक्कर में बेचारे घनचक्कर बन जाते हैं। और वोट बैंक वाला समीकरण भी खिलाफे है।
ऐसा ही हाल प्रवक्ताओं का भी है। टीवी पर चेहरा दिखाकर ज्यादातर अपनी दुकानदारी ही चलाते हैं। सरकार और पार्टी मुश्किल में होती है तो इनमें से ज्यादातर किसी मंत्रीजी या अधिकारीजी के यहां अपने किसी खास का काम कराने में बिजी होते हैं। जब रेप, भ्रष्टाचार जैसे गंभीर और घेराऊ मुद्दे पर चैनलों पर जवाब देना होता है तो ‘हीरो’ से दिखने वाले पंडीजी, ‘नवीन’ विचारों वाले लालाजी और ‘ओम’ जपने वाले प्रकाश बाऊ साहब ही नजर आते हैं। अब देखने वाली बात तो यही होगी कि संघर्षों की बजाय संबंधों की जमीन साधकर अध्यक्ष बनने वाले ‘कांग्रेस’ भइया संबंधों का निर्वहन करते हैं या संघर्षशील लोगों को मीडिया में लाते हैं?
लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह की रिपोर्ट.