आज दैनिक भास्कर में पहले पन्ने पर दो खबरें दिखीं। दोनों पुरानी हैं, कल रेडियो पर सुन लिया था। सोशल मीडिया में देख लिया था। एक पर तो फेसबुक पोस्ट भी लिख चुका दूसरा पता नहीं कर पाया तो आज के अखबारों के भरोसे था। पहली खबर है, “मिजोरम के राज्यपाल राजशेखरन का इस्तीफा” और दूसरी खबर है, “एजी बोले – चोरी नहीं हुए रफाल डील के दस्तावेज, फोटो कॉपी का हुआ इस्तेमाल”। पहली खबर फोल्ड से ऊपर है इसलिए पहले दिखी इसलिए पहली। दूसरी फोल्ड के नीचे है, इसलिए बाद में दिखी और मैंने दूसरी कहा है। ये क्रम मेरा नहीं, दैनिक भास्कर का ही है।
पहली खबर इस प्रकार है, मिजोरम के राज्यपाल के राजशेखरन ने इस्तीफा दे दिया है। राष्ट्रपति भवन ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है। राष्ट्रपति ने असम के राज्यपाल जगदीश मुखी को मिजोरम के राज्यपाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी सौंपी है। केरल भाजपा अध्यक्ष राजशेखर को बीते साल राज्यपाल बनाया गया था। इस खबर में अंतिम वाक्य नहीं होता तो मैं इसे सामान्य खबर मान लेता और संपादकीय विवेक का मामला मानकर छोड़ देता कि अखबार के लिहाज से यह खबर इतनी ही है और मेरे काम की सूचना भी इतनी ही है। एक प्रशासनिक बदलाव है। उसकी सूचना अखबार ने दी। हालांकि दिल्ली में मेरा इस खबर से कोई मतलब नहीं था।
जगदीश मुखी के करीबियों के लिए यह खबर हो सकती है कि अब वे मिजोरम के भी राज्यपाल हैं। मेरा क्या? फिर भी सूचना तो है। कल रेडियो पर भी इतनी ही खबर सुनी थी। मैं तभी से जानना चाह रहा था कि इस्तीफे का कारण क्या है? चुनाव के इस मौसम में भाजपा का कोई नेता (केरल भाजपा अध्यक्ष) यूं ही इस्तीफा देगा? और अगर देगा तो इसमें खबर क्या है? क्या इस्तीफे का कारण बताना या पता लगाने की कोशिश करना और कहना कि पता नहीं चला – जैसा काम भी अखबारों को नहीं करना चाहिए। ठीक है, अघोषित सेंसर चल रहा होगा। विज्ञापन के जरिए पैसे लुटाए जा रहे हैं और उसकी भी चाहत होगी (हालांकि दैनिक भास्कर में सरकारी विज्ञापन कम होते हैं) पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि आप रूटीन खबरें भी न करें और बुनियादी जानकारी भी न दें।
अगर ऐसा है भी, तो इस आधी-अधूरी खबर को पहले पन्ने पर सिर्फ जगह भरने के लिए छापा गया है? संपादकीय चयन की कोई व्यवस्था नहीं है। अगर मैं अखबार निकाल रहा होता और वेतन पाने के लिए इस खबर पर चूं-चपड़ नहीं कर पाता तो यह अंतिम वाक्य – केरल भाजपा अध्यक्ष राजशेखर को बीते साल राज्यपाल बनाया गया था, काट देता। खबरों के आदमी को इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि इस एक वाक्य से यह खबर अधूरी लग रही है। मैं भी कहां मानने वाला था। मुझे तो खबर चाहिए थी।
मैंने दूसरा अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स उठाया तो यह खबर उसमें पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर थी। मिजोरम के राज्यपाल ने इस्तीफा दिया, थरूर के खिलाफ लोक सभा चुनाव लड़ेंगे। यह शीर्षक ही पूरी खबर है। इसमें यह बताने की क्या जरूरत है कि राष्ट्रपति ने इस्तीफा मंजूर कर लिया औऱ कर लिया तो आस-पास के किसी राज्यपाल को शपथ दिला ही दी गई होगी। इसका आम पाठक से क्या मतलब? हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर अंदर के पन्ने पर चार कॉलम में विस्तार से है। शीर्षक है, मिजोरम के राज्यपाल ने इस्तीफा दिया, लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। पहले पन्ने पर शीर्षक है, (शशि) थरूर के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। अंदर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। मैं इसका कारण समझ सकता हूं। अंदर की यह खबर पहले की होगी।
मैंने कंफर्म करना चाहा। गूगल किया तो हिन्दुस्तान टाइम्स की ही खबर मिल गई। इस खबर का शीर्षक है, “मिजोरम के राज्यपाल ने भाजपा के एसओएस पर कार्रवाई की, शशि थरूर से चुनाव लड़ने के लिए पद छोड़ा”। काश, यही शीर्षक अखबार मे होता। पर अखबार में जगह की कमी होती है। कई बार शीर्षक एक लाइन में ही लगाना होता है। लटका हुआ शीर्षक (दूसरी लाइन में एक या दो शब्द) अच्छा नहीं लगता है। इसलिए शीर्षक बदले जाते हैं पर उससे खबर (या शीर्षक) का अर्थ नहीं बदलना चाहिए। हिन्दुस्तान टाइम्स में अंदर के पन्ने पर छपी खबर का शीर्षक जल्दी के कारण ऐसा नहीं है। स्क्रीन शॉट देखिए। इससे पता चलता है कि यह 18:38 यानी शाम 6 बजकर 38 मिनट का है।
अब थोड़ी चर्चा नेट के इस मारक शीर्षक की भी। शीर्षक में “भाजपा के एसओएस” का प्रयोग किया गया है। एसओएस का मतलब होता है सेव आवर सोल यानी हमारी जान बचाइए। बेशक यह शीर्षक हिन्दुस्तान टाइम्स का है पर इसका मतलब यही है कि जान बचाने के संदेश पर राज्यपाल ने इस्तीफा दिया, शशि थरूर के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे। इससे एक-एक सीट पर (या थरूर के खिलाफ) भाजपा की तैयारी मालूम होती है। इससे इस खबर का महत्व समझ में आता है और कायदे से यही खबर है औऱ इस हिसाब से इस खबर को प्रमुखता दी जानी चाहिए थी। नहीं दी गई है तो क्यों आप समझ सकते हैं।
इस बहाने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को राज्यपाल बनाने (पूर्व ही सही) और फिर (एक साल में ही) उनसे इस्तीफा लेकर चुनाव लड़ाने की बेशर्म राजनीति पर भी काफी कुछ कहा लिखा जा सकता है पर वह होगा नहीं। मैं भी नहीं करने जा रहा क्योंकि, जब कांग्रेस ने फलां साल फलां को ऐसे ही चुनाव लड़ाया था तब आप कहां थे जैसे सवालों से निपटने में उलझ गया तो दाल रोटी कैसे चलेगी। अब आता हूं दूसरी खबर पर जो सुप्रीम कोर्ट में भारत के महाधिवक्ता के बयान से संबंधित है। मैं खुद को ऐसे मामलों में टीका टिप्पणी के योग्य नहीं मानता और इसलिए ऐसे मामलों पर उस तरह से नजर नहीं रखता कि पक्के तौर पर निश्चित होकर कुछ कह सकूं।
इसलिए मेरी चिन्ता बहुत बुनियादी है। सुप्रीम कोर्ट में भारत के महाधिवक्ता महोदय कैसे ऐसा कुछ कह सकते हैं जो स्पष्ट नहीं हो या जिसे कुछ और समझा जा सके। क्या यह चूक है? वह भी तब जब राफेल मामले में ही पहले भी ऐसा हो चुका है। इस बार का मामला दिलचस्प इसलिए है कि इस मामले में फाइल चोरी होने या फोटो कॉपी चोरी होने में तकनीकी रूप से कोई अंतर नहीं है। मुझे नहीं पता, शासकीय गुप्त बात अधिनियम में इस आशय का कोई संशोधन किया गया है कि नहीं पर उसके बिना तो आज के समय में इस कानून का कोई मतलब नहीं है औऱ अब जब यह कानून चर्चा में है तो इस पर भी बात होनी चाहिए।
इसे आप ऐसे समझिए कि एक अतिगुप्त दस्तावेज कहीं सुरक्षित रखा हुआ है। पुराने समय में इसे सुरक्षित रखने के दो ही मतलब होते – 1) वह दस्तावेज वहीं रहे और कहीं जाए तो उसकी अनुमति और जानकारी हो और वहीं रहे 2) लंबे समय तक रखा जाने वाला दस्तावेज कीड़े मकौड़ों या आग आदि से नष्ट न हो जाए। पुराने समय में फाइलें रखने के कैबिनेट ऐसे होते थे जो अंदर के दस्तावेजों को सुरक्षित रखते थे। आज के समय में फाइल वहीं रहेगी और एक अच्छे मोबाइल से उसका पन्ना-पन्ना कुछ ही समय में दुनिया भर में पहुंच सकता है। सबके पास लगभग वैसी ही फाइल बन सकती है। यह तकनीक की उपलब्धता है।
फाइल अगर गुप्त थी (मूल्यवान नहीं) तो उसे इस तकनीक से भी बचाया जाना था और मेरी समझ से फाइल चोरी हो गई में दोनों शामिल हैं। अब अगर यह कहा जा रहा है कि फाइल तो है उसकी फोटो कॉपी चोरी हो गई है तो कई सवाल उठते हैं कि फोटो कॉपी कराई ही क्यों गई? अगर किसी ने मूल फाइल चुराकर फोटो कॉपी कराई और फाइल को फिर वहीं रख दिया तो क्या उसपर शासकीय गुप्त बात अधिनियम लागू होगा? आज यह खबर महत्वपूर्ण नहीं है। इन प्रश्नों का जबाव महत्वपूर्ण है। पर अखबार ने सूचना भर दी है इन प्रश्नों का जवाब नहीं है। इसके लिए एक पाठक के रूप में मैं कहां जाऊं?
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट।