लगता है रोजी रोटी और घर परिवार की चिंता छोड़कर सभी संवेदनशील लोगों को सड़क पर उतरना होगा। जब देश सुलग रहा हो और चारों तरफ तनाव भरा माहौल हो तो काम कैसे होगा? पढ़ाई लिखाई कैसे होगी? बड़ा खतरनाक माहौल बनता जा रहा है। देश संकट में है। किसी से उसका वतन छीन लिया जाएगा तो संघर्ष के अलावा उसके पास क्या विकल्प बचता है? किसी को पूरे परिवार समेत अचानक, एक झटके में उसके घर से निकालने की तैयारी कर दी जाए तो उसके पास जिंदगी जीने के कितने विकल्प बच जाते हैं? बड़ा घृणित दौर है ये और बड़ा घृणित यह समाज है जो इंसानियत के विरुद्ध हुक्मरानो की साजिशों को न केवल बर्दाश्त करता है बल्कि उन्हें अनैतिक आधार भी मुहैया कराता है। उनके कुकृत्यों को जायज ठहराता है। मैं इस समाज और इस समाज के सभी ठेकेदारों पर लानत भेजता हूं। और इनके खिलाफ हर संघर्ष को अपना समर्थन देता हूं।
यह बात 1994-97 की है। उन्हीं दिनों दिल्ली में बस सेवा को निजी हाथों में सौंपा गया था। डीटीसी का बस पास उन बसों में मान्य नहीं था। हम लोग कॉलेज में थे। सभी कॉलेज के बच्चों ने स्टॉफ का चलन शुरू किया। कॉलेज के आस पास से गुजरने वाली बसों में कोई टिकट नहीं कटाता था। अगर कोई बस वाला टिकट मांगता तो लड़के उनकी कुटाई करते और बस तोड़ देते।
हमारे दयाल सिंह कॉलेज के छात्रों ने एकबार निजामुद्दीन के पास छात्र नेता की अगुवाई में एक दर्जन से ज्यादा बसों को तोड़ दिया। कहने का मतलब है कि छात्र जब सड़क पर उतरते हैं तो तोड़फोड़ होती है। उस स्थिति में तो होती ही है जब उनका नेतृत्व किसी ठोस हाथ में नहीं हो। लेकिन छिटपुट हिंसा के आधार पर उन्हें देशद्रोही करार देना सही नहीं है। उनके खिलाफ शासनतंत्र क्रूरता से बर्ताव करे यह सही नहीं है।
यहां बार बार सरकारी संपत्ति का हवाला दिया जा रहा है, कोई देश के एक बड़े तबके के, अपने नागरिकों के उस दर्द की बात नहीं कर रहा जो उसे नागरिक संशोधन कानून की वजह से हो रहा है। अभी जरूरत उस दर्द पर बात करने की है। वो दर्द बहुत बड़ा है। और यह समझने की जरूरत है कि एक आबादी को डरा कर उदार समाज, मजबूत देश, ताकतवर राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता।
यह सही है कि किसी भी कानून को बनाने की प्रक्रिया होती है। लेकिन कानून बनाने की कुछ शर्तें भी होती हैं। न्याय की शर्त सबसे बड़ी शर्त होती है। अगर किसी कानून में न्याय आधार नहीं है तो वह कानून आपराधिक चरित्र का होता है। इस कानून के मूल में न्याय नहीं है।
मैं मानता हूं कि देश की सरकार का यह हक होता है कि वो देश नागरिक चिन्हित करे। समय समय पर भारत में भी नागरिक चिन्हित किए जाते रहे हैं। यूआईडी उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा रहा है। देश ही नहीं, प्रदेश भी अपने नागरिक चिन्हित करता है। लेकिन सीएए का मकसद नागरिक चिन्हित करना नहीं है।
सीएए का मकसद नागरिकता देना है और यह संशोधन उस मकसद में धर्म को जोड़ता है। मतलब सीएए का मकसद धर्म के आधार पर नागरिकता देना है। इसमें धर्म के ही आधार पर नागरिकता नहीं देना भी शामिल है। और यहीं ये न्याय को ठुकरा कर अन्याय का दामन थामता है। यहीं ये हमें संस्थागत तौर पर कट्टरता की ओर ढकेलता है। अब इस देश को यह तय करना होगा कि हम एक कट्टर और धर्मांध मुल्क बनेंगे या उदार और न्यायप्रिय देश बनेंगे। चुनौती बड़ी है। इसलिए बैठकर सोचिए। हल्के और बेहूदे तर्कों के आधार पर न्याय की मांग खारिज मत कीजिए।
कई न्यूज चैनलों में काम कर चुके पत्रकार समरेंद्र सिंह की एफबी वॉल से.