आवेश तिवारी-
हमने कहा था न रविश का एनडीटीवी से जाना समूची टीवी इंडस्ट्री को नुकसान पहुंचाएगा, वही होता दिख रहा है। रविश जब तक थे लोग उन्हें देखते थे फिर सबको देखते थे। अब टीवी न्यूज अतीत है।
लोगों के घर से डीटीएच की विदाई हो रही है साथ में टेलीविजन उद्योग भी विदा हो रहा है। क्या आप जानते हैं बिग बॉस जैसे धारावाहिक और टी 20 मैचों को कलर टीवी की तुलना में ओटीटी प्लेटफार्म्स पर ज्यादा देखा जा रहा? अब घरों में डीटीएच की जगह इंटरनेट ने ले ली है। यह सस्ता भी है और जरूरत भी। जब डीटीएच जा रहा है तो निस्संदेह न्यूज चैनल्स भी जाएंगे।
यूट्यूब पर न्यूज चैनल देखना मजेदार नहीं है दुनिया भर के तमाम चैनलों ने अपनी यूट्यूब से ब्रॉडकास्टिंग बंद कर दी है। कम लोगों को जानकारी होगी कि एनडीटीवी भी लंबे अरसे से यूट्यूब पर लिमिटेड ब्रॉडकास्टिंग कर रहा। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि खबरें आप तक कैसे पहुंचेंगी?
यह बात आश्चर्यजनक मगर सच है कि अब आपके और ख़बरों के बीच से धीमे धीमे मीडिया का विलोपन हो रहा है ज्यादा से ज्यादा सामग्री रॉ है। अब तय आपको करना है कि आप क्या देखते हैं? आप देखते जाइये अजीत अंजुम साक्षी जोशी, पुण्य प्रसून जैसे युट्यूबर भी जल्दी अतीत हो जाएंगे। विश्लेषण का समय नहीं है और विश्वसनीयता का संकट जो है तो है ही। भक्त मीडिया ने जो गाजर घास उगाई है वहां पर फिलहाल और कोई फसल उगेगी इसकी संभावना कम है।
Dr Ashok Kumar Sharma
January 17, 2023 at 2:21 pm
यह एक ऐसी वास्तविकता है जो एक निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार पूरी दुनिया में होती दिख रही है। आज से 4 साल पहले जब यूरोप गया था, तब कई देशों में अनेक निजी मकानों में ठहरा। किसी भी मकान में मुझे टेलिविजन के लिए एंटीना या छतरी लगी हुई नहीं दिखी। प्रत्येक घर में इंटरनेट ब्रॉडबैंड कनेक्शन के जरिए ही विभिन्न प्रकार की ओटीटी पर टीवी कार्यक्रम और सिनेमा देखा जा रहा था।
यह प्रक्रिया ठीक उसी तरह की है जब संचार क्रांति के फलस्वरूप पोस्टकार्ड की जगह टेलीग्राम ने ली और जल्दी ही टेलीफोन ने उसे पीछे धकेल दिया और इसके बाद टैलेक्स, टेलीप्रिंटर, फैक्स तथा इंटरनेट के जरिए सामग्री का आदान-प्रदान बाकी सभी संचार माध्यमों को पीछे धकेलता चला गया। यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी और अभी तो आभासी मीडिया अर्थात वर्चुअल माध्यमों का दौर भी आना है। डिजिटल मल्टीप्लेक्स कंप्रेशन की तकनीक कुछ ही सालों में भाषाई पत्रकारिता और संचार के सभी माध्यमों की दूरियों को समाप्त कर देगी।
बड़ा सवाल यह है कि इन सब में रवीश कुमार कहां फिट होते हैं। पत्रकारिता के शलाका पुरुष थे और अब इतिहास हो चुके हैं। इतिहास से भविष्य के सबक तो लिए जाते हैं लेकिन इतिहास को बैठ कर रोया नहीं जाता।
आलेख में बहुत से पत्रकारों को जिक्र करते हुए कहा गया है कि उन सबका वक्त समाप्त हो गया है लेकिन इस आलेख का आरंभ ऐसे किया गया है जैसे कि रविश कुमार के जाने के बाद में टेलीविजन युग का अंत लिख दिया गया है। इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।